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शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

क्षणिकाएं

तुम मानो या ना मानो
मुझे पता है
प्यार करती हो मुझे
तुम स्वीकारो या ना स्वीकारो
मुझे पता है
तुम्हारा हूँ मैं


अश्क भी आते नही
दर्द भी होता नही
तू पास होकर भी
अब पास होता नही


इक आती सांस के साथ
तेरे आने की आस बँधी
और जाती सांस के साथ
हर आस टूट गयी


तेरी पुकार में ही
दम ना था
मैं तो किनारे
ही खड़ी थी


किनारे की मिटटी को
छूकर तो देख
मेरे अश्क से
भीगी मिलेगी
दिल के तारों को
छेडकर तो देख
मेरे ही गीत
गाते मिलेंगे
लम्हों के पास
आकर तो देख
तेरे मेरे प्यार के
फ़साने ही मिलेंगे


या तो
याद बना ले मुझको
या याद बन जा
यादों के आने जाने से
पास होने का
अहसास होता है

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

मत हवा दो

भड़कती चिंगारी
धधकता ज्वालामुखी
हर सीने में है
मत हवा दो

चिंगारी गर शोला
बन जाएगी
कहर बन बरस जाएगी
ज्वालामुखी गर
जो फट जायेगा
सैलाब इक ले आएगा
मत हवा दो

हवा का रुख
ज़रा तो देखा करो
कुछ तो सोचा
समझा करो
मत आदमी के
सब्र का इम्तिहान लो
गर एक बार
आदमी , आदमी बन गया
शोलो को उठाकर
हाथ में
धधकते ज्वालामुखी
की आग में
करके भस्म
भ्रष्टाचार, हिंसा,
स्वार्थपरता,
आतंकवाद की
हर शय को
खुद को वो
साबित कर देगा
हवाओं का रुख
भी बदल देगा
अब तो संभल जाओ
मत रेत के
महल बनाओ
मत आज़ादी का
गलत फायदा उठाओ
मत हवा दो
आदमी की
उस आग को
मत हवा दो .........

बुधवार, 20 जनवरी 2010

मन की गलियाँ

मन की
विहंगम गलियाँ
और उसके
हर मोड़ पर
हर कोने में
इक अहसास
तेरे होने का
बस और क्या चाहिए
जीने के लिए
वहाँ हम
तुझसे बतियाते हैं
और चले जाते हैं
फिर उन्ही गलियों के
किसी मोड़ पर
और खोजते हैं
उसमें खुद को
ना तुझसे बिछड़ते हैं
ना खुद से मिल पाते हैं
और मन की गलियों की
इन भूलभुलैयों में
खोये चले जाते हैं

रविवार, 17 जनवरी 2010

मत करो ऐसा ...........

मैं कोई वस्तु नही
क्यूँ मेरी बोली लगाते हो
दुनिया की इस मंडी में
क्यूँ खरीदी बेचीं जाती हूँ
कभी धर्म के ठेकेदारों ने
मेरी बलि चढ़ाई है
कभी समाज के ठेकेदारों ने
मेरी बोली लगायी है
मैं भी इक इंसान हूँ
मुझमें भी खुदा बसता है
उसी खुदा की नेमत हूँ
जिसकी करते तुम आशनाई हो
फिर क्यूँ मुझे ही पीसा जाता है
क्यूँ मेरा ही गला दबाया जाता है
जननी भी हूँ , भगिनी भी हूँ
फिर भी भटकती फिरती हूँ
अपना अस्तित्व बचाने की चाह में
मर -मरकर भी जीती हूँ
मुझमें भी हैं अरमान पलते
मेरी भी हैं चाहतें मासूम
क्यूँ नही उन्हें मिली आज तक
दिल की जो गहराई है
क्यूँ अबला का तमगा चिपकाते हो
रिश्तों को क्यूँ बेडी बनाते हो
औरत हूँ मैं
सिर्फ भोग्या नही
मान क्यूँ नही लेते हो
कदम दर कदम चली मैं तुम्हारे
फिर क्यूँ नही मेरे साथ तुम चलते हो
अधिकरों की बात पर क्यूँ तुम
इतना शोर मचाते हो
कर्तव्यों की आंच पर क्यूँ
मेरी भावनाएं जलाते हो
क्या फर्क है मुझमें और तुममें
कौन सी कड़ी कमजोर है
फिर क्यूँ मुझे ही ये
ज़हर का घूँट पिलाते हो
मैं भी इक इंसान हूँ
मेरा भी लहू लाल है
मुझमें भी वो ही दिल है
बताओ फिर क्या फर्क है
मुझमें और तुममें
क्यूँ मुझे ही दोजख की
आग में जलाये जाते हो

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

कुछ ख्याल

पति होने का धर्म
उसने कुछ ऐसे निभाया
इक हँसते , मुस्कुराते
ज़िन्दगी की उमंगों से
भरपूर गुल को
निर्जीव, बेजान बनाया


तू
तेरा ख्याल
और
तेरी ज़िन्दगी
सब तेरा
इसमें
'मैं ' कहाँ हूँ ?


जो दिखाई ना दे
वो अश्क
जो सुनाई ना दे
वो शब्द
और दोनों का दर्द
कभी झांकना
उनके आईने में
वहां जलते हुए
रेगिस्तान मिलेंगे


रोज चूर -चूर होना
और फिर जुड़ जाना
ए दिल-ए-नादाँ
ये फितरत कहाँ से पाई ?


कोई भाग सकता है सबसे
मगर नही भाग सकता खुदी से


ख्वाहिशों के बिस्तर पर
करवट बदलती रात
भोर की पहली किरण के साथ
दम तोड़ जाती है