चलो आज तुमसे कुछ बतिया लूं
कुछ तुम्हारा हाल जान लूं
सुना है तुम निर्लेप रहते हो
कुछ नहीं करते
सुना है जब महाप्रलय होती है
तुम गहरी नींद में सो जाते हो
और हजारों वर्ष गहरी नींद में
सोने के बाद योगमाया जगाती है
और फिर तुम्हें अपने अकेलेपन का भास होता है
और सृष्टि निर्माण का संकल्प मन में उठता है
मगर मैंने तो सुना था
तुम्हारे तो मन ही नहीं होता
फिर संकल्प कैसा और क्यों?
सारे उपद्रव तो मन ही मचाता है ना
तो फिर कैसे तुम्हें अपने अकेलेपन से
निज़ात पाने की चाह होती है
जबकि तुम्हारे तो मन ही नहीं होता
अच्छा बताओ ज़रा
जब तुम्हारी
एक से अनेक होने की
इच्छा होती है तो
बिना मन के तो इच्छा
नहीं हो सकती ना
फिर कैसे कहते हो
मन नहीं है तुम्हारे पास?
बहुत चालाक हो तुम छलिये
बहुत अच्छे से छलना जानते हो
और हमें मूर्ख बनाते हो
छलिये ........आज जानी हूँ तुम्हें
पहचाना है तस्वीर का दूसरा रुख
सच में दूसरा पक्ष हमेशा काला ही होता है
और तुम.........तुम तो दोनों तरफ से काले हो
देखो यूँ नाराज मत हो ............
कहने का अधिकार तो दोनों पक्षों को होता है
और आज मेरी बारी है ............
क्यूँ तुम जब नचाते हो हमें
तो हम कुछ नहीं कर पाते ना
नहीं कह पाते तुम्हें कुछ भी
सिवाय सिर झुकाकर तुम्हारी बात मानने के
और कोई चारा कभी छोड़ा है तुमने हमारे लिए
मगर आज तो तुम्हारी कारगुजारी
मेरी नज़रों से गुजरी है
आज जाना है मैंने तुम्हारा असली चेहरा
ये सब एक भरम फैलाया है तुमने
एक जाल बिछाया है और दाना डालते हो
देखें कौन सी मछली चुगती है
और तुम्हारे बिछाए जाल में फंसती है
और फिर तड़पती है ..........तुमसे मिलने को
तुम्हें देखने को .......तुम्हें पाने को
उसकी चाहत का अच्छा सिला देते हो
उम्र भर का रोग लगा देते हो
और दिल के रोग की तो दवा भी कोई नहीं होती
और फिर खेलते हो खेल ......लुकाछिपी का
तो बताओ तो ज़रा रंगीले ............
क्या बिना मन के ये सब संभव है ?
मन तो है तुम्हारे भी ..........बस मानते नहीं हो
वर्चस्व टूटने का खतरा नहीं उठाना चाहते ना
वैसे बताना ज़रा
कैसे रह लेते हो अकेले ?
कहीं कुछ नहीं ..........सिर्फ अपने साथ
मुश्किल होता होगा ना जीना
शायद तभी बनाते हो सृष्टि
और फिर लगा देते हो माया का चक्कर
और इंसान की विवशता से खेलते हो
हाँ सही कह रही हूँ .......खेलते ही तो हो
क्यूँकि है एक मन तुम्हारे पास भी
तभी करते हो तुम भी अपने मन की
जन्म मृत्यु के चक्कर में फँसा कर
रचते हो एक चक्रव्यूह
और मानव तुम्हारे हाथ की कठपुतली
जैसा चाहे नाचते हो .........
कभी गीता में उपदेश देते हो
मन पर लगाम लगाओ
और सब प्रभु समर्पण करते जाओ
साथ ही कहते हो
एक मेरे अंश से ही सारा संसार उपजा है
मेरा ही रूप सब में भास रहा है
तो बताना ज़रा
क्या तुम लगा पाए
अपने मन पर लगाम ?
कहो फिर क्यों रच दिया संसार ?
खुद से खेलना या कहो
अपनी परछाईं से खेलना
और खुश होना कितना जायज है
खेल के लिए दो तो होने चाहियें
मज़ा तो उसी में होता है
और तुमने बना दिए
स्त्री और पुरुष ...........है ना
दो रूप अपने ही
दोनों को साथ रहने का
गृहस्थ धर्म निभाने का
एक तरफ उपदेश देते हो
तो दूजी तरफ
मोह माया से दूर रहने का
सब कुछ त्यागने का सन्देश देते हो
ज़रा बताना तो सही
कैसे एक ही वक्त में
इन्सान दो काम करे
क्या तुम कर सकते हो
ये तुम ही तो इस रूप में होते हो ना
बताओ तो ज़रा क्या फिर कैसे
खुद से पृथक रह सकते हो
जब तुम खुद से जुदा नहीं हो
हर रूप में तुम ही भास रहे हो
सिर्फ बुद्धि विवेक की लाठी
हाथ में पकड़ाकर
नर नारी बनाकर
कौन सा विशेष कार्य किया
सब तुम्हारा ही तो किया धरा है
राधा मीरा शबरी के प्रेम का पाठ पढ़ाते हो
कभी भक्तों की दीन हीन दशा दर्शाते हो
क्यों श्याम ये भ्रम फैलाते हो
जबकि हर रूप में खुद ही भासते हो
या फिर जीने दो इंसानों को भी इन्सान बनकर
खुद की तरह .........जैसे तुम जी रहे हो
अकेले अपने मन के मुताबिक
करते हो ना मन की इच्छा पूर्ण
सिर्फ अपने मन की ...........
तभी तो इन रूपों में आते हो
प्रेम का ओढना ओढ़
सबको नाच नाचते हो
फिर अदृश्य हो जाते हो
क्या है ये सब ?
खुद में खुद का ही विलास
या करते हो तुम मानव बनाकार
उनका उपहास
अरे मान भी लो अब
तुम बेशक ईश्वर हो
मगर तुम भी मन के हाथों मजबूर हो
जब तुम मन के हाथों मजबूर हो
नयी सृष्टि रचाते हो
तो फिर मानव को क्यूँ उपदेशों से भरमाते हो
क्यों नहीं जीने देते
क्यों उसे दो नाव की सवारी करवाते हो
जानती हूँ
तुम ही उसमे होते हो.....मैंने ही कहा है अभी
क्योंकि तुमने ही तो कहा है गीता में
धर्म ग्रंथों में ...........हर रूप तुम्हारा है
कण कण में वास तुम्हारा है
वो ही मैं कह रही हूँ ............
फिर बताओ तो सही
कौन किससे जुदा है
और कौन किसके मन की कर रहा है
तुम और तुम्हारा मन ..........हा हा हा कान्हा
मान लो आज .............है तुम्हें भी मन
और किसके कहने पर
सिर्फ तुम्हारे मन के कहने पर
तुमने अपने संकल्प को रूप दिया
तो बताओ तो ज़रा .............
तुम भी तो मन के हाथों मजबूर होते हो
फिर कैसे ये उपदेश जगत को देते हो
नहीं कान्हा .........तुम्हारी भी
कथनी और करनी में बहुत फर्क है
ये तो मानव बुद्धि है
जो तुम्हारे ही वश में है
जैसे चाहे यन्त्रारूढ चलाते हो
और व्यर्थ के जाल में सबको फंसाते हो
जबकि सत्य यही है
तुम भी अकेले हो .......नितांत अकेले
और अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए
अपने मन को बहलाने के लिए
तुम दुनिया बनाते हो ............और उसमे खुद ही भासते हो
खुद को भी उपदेश देते हो
खुद से ही खुद को पुजवाते हो
पर खुद को ही ना जान पाते हो
धर्म ग्रंथों में क्या लिखा है किसने लिखा
उसका किसने क्या अर्थ निकाला
सब जाना ..........और तुमने क्या कहा वो भी
तुमने ही तो कहा है .............
श्री मद भागवद मेरा वांगमय स्वरुप है
तो कहो अब .........क्या तुम्हारी वाणी झूठी है
अंततः तो यही निष्कर्ष निकला ना
बिना मन के इच्छा का जन्म नहीं होता
और बिना इच्छा के सृष्टि का निर्माण नहीं होता
फिर कहो प्यारे ...........और मान लो
मन की कालरात्रि के चक्रव्यूह में तुम भी फंसते हो
तुम कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम
ये सन्देश गलत ही देते हो
चाहतें तो तुम्हारे मन में भी भांवरे डालती हैं .......
बस इतना नहीं समझ पाते हो
तुम इतना नहीं समझ पाते हो .............
अगर हो कोई जवाब तो देना जरूर
इंतज़ार करूंगी मोहन उर्फ़ ब्रह्म उर्फ़ निराकार ज्योतिर्पुंज ............