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सोमवार, 30 मार्च 2015

क्या औचित्य है ऐसे सम्मानों का ?


अँधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपने ही को दे ये कहें आजकल के सम्मान कर्ताओं को या फिर ये कहें जो आएगा वो पायेगा यानि सम्मान का कोई औचित्य नहीं है , सम्मान तो महज ढकोसला है , आप ही पैसे खर्च करें और सम्मान प्राप्त करें तो क्या औचित्य है उस सम्मान का .....मुझे आजतक समझ नहीं आया .

आप सूचना लगाते हैं अमुक सम्मान के लिए अपनी प्रविष्टि भेजिए और फलाने स्थान पर सम्मानित किया जायेगा .अब भेजने वालों ने भेज दी और आपने सूचित भी किया उन्हें कि आपको हम सम्मानित कर रहे हैं , आपकी उपस्थिति कंपल्सरी है ,अपने आने की सूचना से अवगत करायें .......इसमें कहीं ये शर्त नहीं है कि जो आएगा उसे ही सम्मानित किया जाएगा या फिर आने वाले ही सम्मानित होंगे जो नहीं आ सकते उन्हें सम्मानित नहीं किया जाएगा तो फिर एक बार सूचित करने के बाद यदि कोई सम्मान प्राप्त कर्ता अपनी मजबूरियों की वजह से नहीं आ पाता या वो आने में असमर्थता जताए क्योंकि सम्मानित भी देश में नहीं विदेश में करेंगे और सारा खर्चा आने जाने रहने सहित सम्मानित होने वाला खुद उठाएगा जिसमे लगभग 25000-30000 तक खर्चा आ ही जाएगा ऐसे में वो और क्या कहेगा . तो क्या उसे सम्मानित करने का जो निर्णय लिया गया संस्था द्वारा वो null एंड void हो जाता है ? मतलब शक्ल देखकर तिलक लगाया जाएगा ? तो ऐसे सम्मानों का क्या औचित्य है ? 

आप देश से बाहर सम्मानित करेंगे और सम्मान प्राप्तकर्ता से कहेंगे कि चार से पांच दिन के आने जाने का खर्चा वो खुद उठाये और हम उसे ५०००/११००० रूपये देकर सम्मानित कर रहे हैं और यदि वो नहीं आ सकता तो सम्मान गया खटाई में उसकी जगह दूसरे को चुन लेंगे बिना उसे सूचित किये कि अब आप सम्मान के योग्य नहीं रहे क्योंकि आप वहां नहीं आ सकते .......कितनी उपहासास्पद स्थिति है ये .  मेरी समझ से तो परे है मगर मुद्दा विचारणीय है . 

ऐसा एक नहीं दो बार हो चुका . प्रविष्टि भेजो , भेज दी , आप चुन लिए गए फिर एक जगह  कहा गया संस्था के नियमानुसार विभिन्न मदों के १००० रूपये जमा करा दो ..........अरे भाई आप सम्मानित कर रहे हैं या धंधा है आपका ? न आने जाने का खर्चा आप उठाओगे और ऊपर से चाहोगे सम्मान प्राप्त कर्ता आपकी जेब भी भरे ..........और मज़े की चीज दोनों ही आयोजनों में नामी गिरामी लोग शामिल हैं और जाने कितने सम्मान के भूखों को सम्मानित करते हैं और वो अपना खर्चा करके पहुँच भी जाते हैं .........और उनका धंधा चलता रहता है मगर प्रश्न उठता है :

१)क्या औचित्य है ऐसे सम्मानों का ? 
२)ये कैसी परम्पराएं विकसित की जा रही हैं ?
३)क्या ऐसे सम्मान अपनी विश्वसनीयता कभी कायम कर पायेंगे ? 
४) क्या सम्मान के नाम पर होती महाठगी नहीं है ?
५)यूं बड़े आयोजन का दम भरना कहाँ तक उचित है ? इस तरह का धंधा अपनाकर वो खुद को क्या सिद्ध करना चाहते हैं ?


लेखक के हाथ में सम्मान का झुनझुना पकड़ा उसकी पीठ पर सवार हो खुद को स्थापित करने की ये कैसी नयी परंपरा शुरू हो गयी है समझ से परे है .

डिस्क्लेमर : (नाम इसलिए नहीं दिए हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं )

मंगलवार, 24 मार्च 2015

मन की बात... भाग ३

मन की बात 
प्रतिरोध नहीं है ये मेरा उसके प्रति 
न ही कोई व्यंग्य 
बस हो जाता है आम आदमी अचंभित 
और सोच के कबूतर कुलबुलाने लगते हैं 
आखिर कैसी मन की बात और किसके ?
कहीं उपहास तो नहीं है ये उसका ?

बातों के बतोले खिलाने से नहीं भरा करते पेट  
जानते हैं न ...... पेट सबके लगा है 
और पेट की आग बुझाने की जद्दोजहद में 
क्रिया को प्रतिक्रिया की जरूरत होती है 
कि मन की बात को मात्र खिलौना मत बनाओ अपने राजनैतिक खेल का 


जिस तरह खाली पेट कोई जंग नहीं जीती जाती 
उसी तरह खाली बातों और वादों के आश्वासनों से 
नहीं बना करता आसमान में इन्द्रधनुष .......जानते तो होंगे ही न ये सत्य भी 

प्रधानमंत्री जी 
करने को मन की बात 
हमारे पास नहीं होते हमारे अपने साए भी 
देखिये कितने निरीह हैं हम 
बस पशुवत होने को हलाल 
हमेशा सिर झुकाकर खड़ा रहना भर हो गयी है नियति हमारी 

कभी किया होता तुलनात्मक अध्ययन 
तब पता चलता तुला के किस पलड़े में खड़े हैं हम 
और किस पलड़े में हैं आप 
सुनिए 
कोई गिला नहीं है इससे हमें 
और न ही कोई शिकायत 
हम जानते हैं जमीन पर खड़े रहना और चलना भी 
और देखिये हम आपको समझाना भी नहीं चाहते 
क्योंकि बहुत समझदार हैं आप 

बस 'मन की बात' अभियान ने 
तकलीफों में इजाफा ही बेशक किया है 
और वाकिफ हैं आप भी हमारी तकलीफ से 
बस जाने किन मजबूरियों के वशीभूत कर रहे हों आप मन की बात 
सोच खुद को तसल्ली दे लेती है जनता 


हमारी आस के फूल मुरझाएं 
उससे पहले करिए कोशिश
 जनता के मन की बात जानने की 
शायद ' मन की बात ' अपने सही अर्थों में सार्थक हो जाए 


सोमवार, 23 मार्च 2015

मन की बात ....भाग २

प्रधानमंत्री जी 
मन की बात करने का हक़ सिर्फ आपको है 
जानते हैं न क्यों ..... 
उच्च पद स्वतः बन जाते हैं साक्षी मन की बात कहने के 

एक प्रश्न पूछूँ
वैसे जानती हूँ जवाब नहीं मिलेगा 
मगर फिर भी पूछ ही लेती हूँ 
क्या आपने कभी सोचा 
मन क्या सिर्फ आपके पास है ?
या फिर जनता के पास मन होता ही नहीं 
या फिर आप अन्तर्यामी हैं 
जान लेते हैं सबके मन की बात 
इसलिए सिर्फ अपने मन की कह कर लेते हैं इतिश्री अपने कर्तव्य की 

एक बार इस पद से नीचे उतर कर जाते मन की बात जानने भी 
कितने बंजर खेतों की दास्ताँ 
सूनी आखों की सुगबुगाहट 
पत्थर होती नस्लों के बुतों 
और कसबे गाँव और शहर के बीच मचे घमासान में 
नज़र कहीं आ जाता यदि कोई जिंदा आदमी 
तो शायद कर भी लेता वो कहीं किसी से कोई मन की बात 
जबकि यहाँ तो मृतप्रायः हो गयी है एक पूरी सभ्यता ही 
शायद उतर सकता तब भरम का पर्दा 
और हकीकतों के लिबास से आती बू से हो जाते आप वाकिफ 

सच कहती हूँ 
उसके बाद 
न कर पाते कभी मन की बात तब तक 
जब तक हर मन की क्यारियों को न सींच देते 
ये रात का सफ़र है 
सुबह होने में देरी है 
बस उतनी ही जितनी 
आपके और आम इंसान के मन की बात में है अंतर 

क्या पाट सकते हो इस खाई को किसी सम्भावना के पुल से 
यदि हाँ .......तो उस दिन करना कोई मन की बात 
तब तक मत दिखाइए ख्वाबों के गुलाब 
यहाँ तो उम्र वैसे ही काँटों पर बसर हो रही है 
और कांटे सहेजने को नहीं बचा यहाँ कोई घर द्वार या मन .............

रविवार, 22 मार्च 2015

मन की बात

मन की बात कहने का चलन नया शुरू हुआ 
सोचा कर लूँ दो बात मैं भी मन की 
मगर उसके साथ ही ये विचार 
अंगडाइयां भरने लगा 
क्या इतना आसान है मन की बात करना ?

हाँ मेरा मन हो या तेरा मन या उसका मन 
सबके मन में पैठे हैं कुछ गहरे राज 
कुछ अपनों के नाम पर दिए ज़ख्मों के अमलतास 
तो कुछ बेगानों के उछाले सुर्ख गुलाब 
काँटों की चुभन संग लगाते हैं रोज चीरा 
और तुम होते हो उनके साथ मुस्कुराने को मजबूर 

सिर्फ इतना होता तो काफी था 
यहाँ तो वक्त से पहले 
जिंदा चिनवा दी जाती हैं 
तुम्हारे स्वाभिमान की अनारकलियाँ
बेवजह चढवा दिए जाते हो सूली पर 
सच कहने के इल्ज़ाम में 
होता है रोज जहाँ 
तुम्हारी भावनाओं का बलात्कार 
तोहमतों की फसल बखूबी लहलहाती है जहाँ 
वहां कैसे संभव है मन की बात कहना 

शीत युद्ध की भांति 
मन की बात 
बन जाती है किसी के लिए आरामगाह 
तो किसी के लिए मैदाने जंग 
फर्क समझना जरूरी है यहाँ 
कि तुम किस तरफ खड़े हो 
पक्ष और प्रतिपक्ष चिन्हित होते ही हैं 
राजनैतिक मोहरों की तरह 
और तुम नहीं हो राजनीतिक सिपहसलार 


मन की बात कहने का हक़ यहाँ 
सिर्फ सुपर शक्तियों तक ही सीमित हुआ करता है 
आम इंसान हो तुम 
और आम इंसान के मन नहीं हुआ करते 
फिर कैसे कर सकते हो तुम मन की बात 
जानते हुए ये सत्य 
मन की बात कहते ही हो जाओगे  जिलावतन 
फिर वो शहर हो घर हो राजनीति हो या साहित्य ...........

सोमवार, 16 मार्च 2015

तो फिर दो हाथ में हाथ (इक प्रेम कहानी )

सुनो 
तुमने मुझे सही समझा 
तुम्हारी कविता में जैसे मै खुद से मिला

क्या सच में या मन रखने को कह रहे हो ? 

सच में मगर हैरत में हूँ 
इतनी दूर से भी कोई किसी को 
इतनी गहराई से कैसे समझ सकता है ?

दूर से ही तो इंसान ज्यादा समझ सकता है
पास रहकर तो दूरियाँ ज्यादा बढती हैं .......जानते हो न 

हाँ जानता हूँ फिर भी जाने क्यों लगा 
कोई मुझे कैसे इतनी अच्छे से समझ सकता है 
क्या ऐसा भी हो सकता है 

हाँ हो सकता है 
बशर्ते कोई आपकी शख्सियत से प्रभावित न हुआ हो
दूर खडा सिर्फ़ आपके क्रिया कलाप को गुन रहा हो 
कितनी सघन संवेदना है  
कितनी प्यास की तीव्रता है  
कितनी बची जिजीविषा है 
आसान होता है उसके बाद समझना 
जानते हो क्यों
क्योंकि 
जब आप दूर खडे किसी को देखा करते हो
उससे न कोई लगाव रखते हो 
बस एक द्रष्टा की भांति 
उसके ह्रदय में झाँका करते हो 
कहीं न कहीं 
अपनी ही कोई अस्फ़ुट प्रतिक्रिया वहाँ देखा करते हो ,
अपना ही कोई प्रतिबिम्ब वहाँ छलका करता है 
अपना ही अकथ्य वहाँ मुखर हुआ करता है
तब आसान हो जाता है आईने में अक्स को उभारना 

शायद सच कह रही हो तुम 
तुमसे एक अपनत्व सा होने लगा है 
सुनो 
मुझे कभी भूलोगी तो नहीं ?

ये प्रश्न आखिर क्यों ? 
मै तो जिसे अपना मान लेती हूँ 
दिल में जगह दे देती हूँ 

इसका मतलब नही भूलोगी ? 
ये तुम सोचो इसका क्या मतलब निकलता है 

तुम ही बता दो न 


मतलब हाँ और न का खेल है 



समझा नही 



मतलब हाँ कहूँ तो ही मानोगे कि नही भूलूँगी 

क्या इतना भी विश्वास नहीं 


है न ...

है तो फिर पूछना क्या 
अपना विश्वास पक्का होना चाहिए 
फिर तो आस्माँ भी धरती पर उतर आता है 


सही कहती हो शायद 
बहुत छला गया हूँ इसलिए संभल कर घूँट भरा करता हूँ
हर रिश्ते को शक की निगाह से देखा करता हूँ 


ओ अजनबी !यूँ न परेशान हो 
वक्त की करवटों से न हैरान हो 
बेशक सफ़र के राही हैं हम
फिर भी यूँ ही न मिले हैं हम 
शायद कहीं किसी खुदा की कोई मर्ज़ी हो 
शायद किसी खुदा की तूने की इबादत हो 
जो आज यूँ मुलाकात की शम्मा जलायी हो 


सुनो 
तुम्हारी बातें सुकून दे रही हैं 
सुकून से ज्यादा तो मेरे दिल में घर कर रही हैं 
लगता है आज पिघल जायेगा आस्माँ और झुक जाएगा धरा के कदमों पर


अरे अरे क्या सोचने लगे 
कहाँ खोने लगे 
किस आस्माँ पर ख्वाबों का महल बनाने लगे 


नहीं अब कुछ मत कहना 
बस चुप रहना 
जो कह रहा हूँ बस सुनती रहो 
और आँख बन्द कर संग मेरे चलती रहो 
सुनो 
दोगी न साथ ?


उफ़! तुमने ये क्या प्रश्न किया 
मुझसे मेरा वजूद ही छीन लिया 
अब क्या कहूँ किसे कहूँ याद नहीं
ये तो मेरी तपस्या की सम्पूर्णता हुई 
जो तुम्हारे ख्वाबों की शहज़ादी हुई 
कहो कहाँ चलना होगा , 
किस लोक में भ्रमण करना होगा 


तो फिर दो हाथ में हाथ और मूँद लो अपनी आँख 
मेरे काल्पनिक संसार से मेरी हकीकत के सफ़र तक 
आओ चलो चलें थामे इक दूजे का हाथ

मंगलवार, 10 मार्च 2015

यूं ही

जाने कौन सी खलिश बींधती है मुझे 
कि इक आह सी हर साँस पर निकलती रही 

और मैं अनजान हूँ ऐसा भी नहीं 
फिर भी खुद से पूछने में झिझकती रही 

अंजुमन यूं तो खाली ही रहा अक्सर 
फिर भी उम्र फासलों से गुजरती रही 

हसरतों को लुभाने की बात मत करना 
कि इक बियाबानी दिल में मचलती रही 

अब मुस्कुराने से भला क्या होगा 
जब नज्मों में दिल की लगी सुलगती रही 

अब कौन रखे हिसाब सिसकते ज़ख्मों का 
जब यूँ ही इक सिलवट दिल पर पड़ती रही 

रविवार, 8 मार्च 2015

मैं नर ……… तुम मादा





1
मैं नर ……… तुम मादा
तुम मादा 
मैं नर 
फिर चाहे 
मानव हो या दानव 
पशु हो या पक्षी 
पुरुष हो या प्रकृति 
हम सब पर लागू होता 
शाश्वत सिद्धांत हैं 
जननी के लिए 
जनक का होना जरूरी है
या जनक बनने के लिए 
जननी का होना लाजिमी है 
बिना सिद्धांत का पालन किये 
किसी प्रमेय का हल नहीं निकाला जा सकता 
सो लागू है हम पर भी 

 2
तुम …. एक बहु उपयोगी हथियार सी 
मेरी मनोकामनाओं  के 
बीजों को पोषित करतीं 
गर अट्टहास को आतुर हो तो 
समझना होगा तुम्हें 
कल भी 
आज भी 
और भविष्य में भी 
तुम्हें अट्टहास लगाने को वजह मैं ही दूंगा 
मगर कितना और किस मात्रा  में 
और कहाँ लगाना है 
ये मैं ही बताऊँगा 
चिन्हित करूंगा मार्ग 
दूँगा  दिशानिर्देश 
तब उन्मुक्त उड़ान का अट्टहास लगाने की 
तुम्हारी प्रक्रिया सार्थक होगी 

3
क्योंकि 
तुम ……… मादा हो 
नहीं है तुम्हें अधिकार 
प्रमेय के नियम बदलने का 
मगर मुझ पर भी लागू हो 
वो नियम , जरूरी नहीं 
तुम सिर्फ एक इकाई हो 
एक ऐसा कोष्ठक 
जिसे अपनी सुविधानुसार 
कहीं भी जोड़ा जा सकता है 
और जब कभी तुम्हें अहसास हो 
अपने वजूद की निरर्थकता का 
शोषित होने का 
तब आसान होगा मेरे लिए 
सारे  नियमो को ताक  पर रखकर 
तुम्हारी मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाने का 
तुम्हें लक्ष्य पाने को आतुर 
भटकती आत्मा कहने का 
क्योंकि 
प्रयोग की दृष्टि से तो 
हम एक दूसरे के बिना अधूरे ही हैं 
और तुम्हारा उत्कर्ष 
मेरे निष्कर्षों का 
सदा ही मोहताज रहा है 
इसलिए 
बौद्धिक कहो , मानसिक कहो 
शारीरिक या वाचिक 
शब्दों की गरिमा कहीं भंग न हो जाए 
सोच , नहीं कहना चाहता तुम्हें  कुछ भी 
मगर तुम समझ ही गयी हो मेरा मंतव्य 

4
हाँ , नर हूँ मैं 
और तुम ……… मादा 
इस अंतर को याद रखना तुम्हारी नियति है 
वरना 
कुछ शाख से टूटे हुए पत्तों को 
हवाएं कहाँ ले जाती हैं 
पता भी नहीं चलता 
मगर वृक्ष पहले भी 
था , है और रहेगा 
ये आत्म प्रवंचना नहीं है 
ये वो सत्य है जिसे तुम 
जानती हो 
मानती हो 
स्वीकारती हो 
मगर फिर भी देखती हो 
खुद को देह से परे … एक अस्तित्व 
मादा होना ही एक प्रश्नचिन्ह है 
फिर देह से परे एक अस्तित्व खोजना 
तो तुम्हारी वो भूल है 
मानो तपते सूरज पर 
कोई चाँद की रोटियां सेंक रहा हो 
मगर पेट भी न भर रहा हो 

5
ओ मेरे पिंजरे की मैना 
मेरे हाथों की कठपुतली 
तुम्हारी सारी  डोरें 
सारे  दरवाज़े 
सारे  झरोखे 
मेरे अहम् के गाढे किले से बंधे हैं 
जहाँ मैं जानता हूँ 
कब और कितनी छूट देनी है 
कब डोर खींचनी है 
और कब प्रयोग करके तोड़ देनी है 
ख्याति के वटवृक्ष हेतु 
तुम्हारी बलि अनिवार्य है 
क्योंकि 
तुम मेरे खेल का वो पांसा हो 
जिसमे चौसर की बिसात पर 
दोनों तरफ से खिलाडी मैं ही हूँ 
और खुद की जीत की खातिर 
पांसों को कैसे पलटना है , जानता हूँ 
क्योंकि 
मैं वो शकुनि हूँ 
जो अपने उद्देश्यपूर्ति के लिए 
चाहे कितनी ही पीढियां तबाह हो जायें 
महाभारत कराये बिना कुछ नहीं देता 
गर हो तुम में दम 
गर हो तुम में अर्जुन और कृष्ण सा सारथि 
तभी करना कोशिश 
वर्ना तो कितनी ही 
सभ्यताएं नेस्तनाबूद होती रहीं 
मगर मेरा अस्तित्व 
ना कभी ख़त्म हुआ 
और ना ही ख़ारिज 

6
बेशक तुम्हारा होना भी जरूरी रहा 
मगर सिर्फ ढाल बनकर 
तलवार बनकर नहीं 
इसलिए याद रखना हमेशा 
प्रमेय का सिद्धांत 
मैं नर हूँ 
और तुम ………. मादा 
जिसमे नहीं है माद्दा 
बिना मेरे साथ की बैसाखी के 
हिमालय को फतह करना 
वर्ना आज तुम यूँ ना शोषित होतीं 
वर्ना आज तुम्हारी अस्मिता के 
यूँ ना परखच्चे उड़े होते 
वर्ना आज तुम्हारी ही इज्जत 
हर गली , कूचों और गलियारों में 
यूँ  ना शोषित होती 
फिर चाहे वो घर हो, समाज या साहित्य ………… 

मंगलवार, 3 मार्च 2015

उसने कहा

उसने कहा 
सबसे छोटी प्रेम कविता लिखो 
मैंने उसका नाम लिख दिया 

उसने कहा 
सबसे उदास प्रेम कविता लिखो 
मैंने अपना नाम लिख दिया 

उसने कहा 
सबसे दर्दभरी प्रेम कविता लिखो 
मैंने सजदे में सिर झुका लिया 

भला इसके बाद भी  प्रेम का और कोई मानी बचा है क्या ?