क्यूँ नेह बढाते हो
मैं तो पत्थर हूँ
पत्थरों में स्पंदन नही होता
एक ऐसी जड़ हूँ
जिसमें जीवन नही होता
वो नदिया हूँ
जिसमें बहाव नही होता
वो आकाश हूँ
जिसका कोई दायरा नही होता
वो ठूंठ हूँ
जिस पर कोई फूल नही खिलता
वो साज़ हूँ
जिसमें कोई आवाज़ नही होती
वो सुर हूँ
जिसकी कोई ताल नही होती
वो ज़ख्म हूँ
जिसकी कोई दवा नही होती
वो ख्वाब हूँ
जिसकी कोई ताबीर नही होती
वो कोशिश हूँ
जो कभी पूरी नही होती
वो दीया हूँ
जिसमें बाती नही होती
वो चिराग हूँ
जिसमें रौशनी नही होती
वो शाम हूँ
जिसकी कोई सुबह नही होती
फिर क्यूँ नेह बढाते हो ................
मैं तो पत्थर हूँ
पत्थरों में स्पंदन नही होता
एक ऐसी जड़ हूँ
जिसमें जीवन नही होता
वो नदिया हूँ
जिसमें बहाव नही होता
वो आकाश हूँ
जिसका कोई दायरा नही होता
वो ठूंठ हूँ
जिस पर कोई फूल नही खिलता
वो साज़ हूँ
जिसमें कोई आवाज़ नही होती
वो सुर हूँ
जिसकी कोई ताल नही होती
वो ज़ख्म हूँ
जिसकी कोई दवा नही होती
वो ख्वाब हूँ
जिसकी कोई ताबीर नही होती
वो कोशिश हूँ
जो कभी पूरी नही होती
वो दीया हूँ
जिसमें बाती नही होती
वो चिराग हूँ
जिसमें रौशनी नही होती
वो शाम हूँ
जिसकी कोई सुबह नही होती
फिर क्यूँ नेह बढाते हो ................