इक
पर्दा लगाया
आज तेरी
यादों को
ओट में
रखने को
जब जी
चाहे चली
आती थीं
और हर
ज़ख्म को
ताज़ा कर
जाती थीं
मगर बेरहम
हवा ने
यादो का ही
साथ दिया
जैसे ही
आई यादें
पर्दा
हटा दिया
और
एक बार
फिर
हर ज़ख्म
को झुलसा दिया
गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
जब चाँद जमीं पर उतर आया हो
जब आसमाँ के चाँद से पहले
मेरा चाँद आ जाता है फिर
और क्या हसरत रही बाकी
तब बिना कहे बात होती है
मेरा चाँद बिना बोले सब सुनता है
और एक बोसा रूह पर रखता है
उसकी प्रीत दीवानी सहेज लेती है
उसके प्रेम की तपिश को आगोश मे
उसके प्रेम की चाँदनी मे नहा लेती है
और प्रेम के हर रंग को पा लेती है
बताओ
अब कौन सी हसरत रही बाकी?
जब चाँद जमीं पर उतर आया हो
मेरा चाँद आ जाता है फिर
और क्या हसरत रही बाकी
हर हसरत को पंख मिल जाते हैं
परवाज़ बेलगाम हो जाती है
जब मोहब्बत रुहानी होती हैपरवाज़ बेलगाम हो जाती है
तब बिना कहे बात होती है
मेरा चाँद बिना बोले सब सुनता है
और एक बोसा रूह पर रखता है
उसकी प्रीत दीवानी सहेज लेती है
उसके प्रेम की तपिश को आगोश मे
उसके प्रेम की चाँदनी मे नहा लेती है
और प्रेम के हर रंग को पा लेती है
बताओ
अब कौन सी हसरत रही बाकी?
जब चाँद जमीं पर उतर आया हो
मेरा चाँद मुझमे ही नज़र आया हो
सोमवार, 25 अक्टूबर 2010
किसका दायित्व ?
वेदना का चित्रण
नैनों का दायित्व
नैनों का चित्रण
अश्रुओं का दायित्व
मगर
अश्रुओं का चित्रण
किसका दायित्व ?
नैनों का दायित्व
नैनों का चित्रण
अश्रुओं का दायित्व
मगर
अश्रुओं का चित्रण
किसका दायित्व ?
शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010
ये कौन से शहर का है आदमी
ये कौन से शहर का है आदमी
जो रात भर सोता नहीं
खिलौनों और रोटी के लिए
अब यहाँ का बच्चा रोता नहीं
गुदड़ी में ही बड़ा हो जाता है जो
बचपन उस पर कभी आता नहीं
रात भर दौड़ती हैं सडकें जहाँ
सुना है शहरों में अब दिन होता नहीं
रौशनी से चकाचौंध हैं रातें
अब दिन किसी को लुभाते नहीं
इंसानियत की बात कोई कर जाए
ऐसा इस जहाँ में अब होता नहीं
बिन पंखों के आकाश नापा करते हैं
पंख वालों को यहाँ कोई पूछता नहीं
चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं
कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं
वो सुबह कभी तो आएगी
इस आस में आदमी अब जीता नहीं
हालात को नसीब का खेल मान
रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं
जो रात भर सोता नहीं
खिलौनों और रोटी के लिए
अब यहाँ का बच्चा रोता नहीं
गुदड़ी में ही बड़ा हो जाता है जो
बचपन उस पर कभी आता नहीं
रात भर दौड़ती हैं सडकें जहाँ
सुना है शहरों में अब दिन होता नहीं
रौशनी से चकाचौंध हैं रातें
अब दिन किसी को लुभाते नहीं
इंसानियत की बात कोई कर जाए
ऐसा इस जहाँ में अब होता नहीं
बिन पंखों के आकाश नापा करते हैं
पंख वालों को यहाँ कोई पूछता नहीं
चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं
कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं
वो सुबह कभी तो आएगी
इस आस में आदमी अब जीता नहीं
हालात को नसीब का खेल मान
रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं
मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010
हाँ , अब आसमाँ को नहीं तकती हूँ
सितारों को
नहीं देखती
मेरी किस्मत
का सितारा
वहाँ आसमाँ
में नहीं टंगा
खुदा ने
कोई सितारा
बनाया ही नहीं
फिर कैसे
खोजूँ उसे
आसमाँ में
अब अपने
सितारे आप
बनाती हूँ
दिल के
बगीचे में
सितारों के
फूल उगाती हूँ
जो खुदा ना
कर पाया
किस्मत के
उसी सितारे को
बुलंद करती हूँ
हाँ , अब
आसमाँ को
नहीं तकती हूँ
नहीं देखती
मेरी किस्मत
का सितारा
वहाँ आसमाँ
में नहीं टंगा
खुदा ने
कोई सितारा
बनाया ही नहीं
फिर कैसे
खोजूँ उसे
आसमाँ में
अब अपने
सितारे आप
बनाती हूँ
दिल के
बगीचे में
सितारों के
फूल उगाती हूँ
जो खुदा ना
कर पाया
किस्मत के
उसी सितारे को
बुलंद करती हूँ
हाँ , अब
आसमाँ को
नहीं तकती हूँ
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
कौन रुकता है किसी के लिये
जाओ
कौन रुकता है
किसी के लिए
बहता पानी
कब ठहरा है
किसी के लिए
प्रवाह कब रुके हैं
किसी के लिए
फिर चाहे
संवेदनाओं के हों
या आवेगों के
भावनाओं के हों
या संवेगों के
हर कोई
बह रहा है
फिर चाहे
वक्त ही
क्यूँ ना हो
कब किसके
लिए ठहरा है
तो फिर
कैसे तुमसे
उम्मीद करूँ
एक आस धरूँ
कि तुम
रुकोगे
मेरे लिए
कौन रुकता है
किसी के लिए
बहता पानी
कब ठहरा है
किसी के लिए
प्रवाह कब रुके हैं
किसी के लिए
फिर चाहे
संवेदनाओं के हों
या आवेगों के
भावनाओं के हों
या संवेगों के
हर कोई
बह रहा है
फिर चाहे
वक्त ही
क्यूँ ना हो
कब किसके
लिए ठहरा है
तो फिर
कैसे तुमसे
उम्मीद करूँ
एक आस धरूँ
कि तुम
रुकोगे
मेरे लिए
गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010
बहुत कठिन है डगर पनघट की
अभी तुम्हारी
चाह ख़त्म
नहीं हुई
अभी तुम्हारा
प्रेम पूर्णता
ना पा सका
जब हर चाह
मिट जाएगी तेरी
प्रेम में भी
पूर्णता आ जाएगी
प्रेम में
शर्त होती नहीं
प्रेम में तो
सिर्फ प्रेमी की
गति ही
अपनी गति
होती है
प्रेम स्वीकारने
का नहीं
महसूस करने का
नाम है
क्यूँ प्रेम को
स्वीकारने की
चाह रखते हो
इस चाह को भी
तुम्हें मिटाना होगा
जिस दिन
तेरी हर चाह
मिट जाएगी
तेरी प्रेम की प्यास
भी बुझ जाएगी
फिर प्रेम रस में
भीग तू
खुद प्रेम ही
बन जायेगा
चाह ख़त्म
नहीं हुई
अभी तुम्हारा
प्रेम पूर्णता
ना पा सका
जब हर चाह
मिट जाएगी तेरी
प्रेम में भी
पूर्णता आ जाएगी
प्रेम में
शर्त होती नहीं
प्रेम में तो
सिर्फ प्रेमी की
गति ही
अपनी गति
होती है
प्रेम स्वीकारने
का नहीं
महसूस करने का
नाम है
क्यूँ प्रेम को
स्वीकारने की
चाह रखते हो
इस चाह को भी
तुम्हें मिटाना होगा
जिस दिन
तेरी हर चाह
मिट जाएगी
तेरी प्रेम की प्यास
भी बुझ जाएगी
फिर प्रेम रस में
भीग तू
खुद प्रेम ही
बन जायेगा
शनिवार, 2 अक्टूबर 2010
टुकडियां
अपने साये से भी घबरा जाते हैं
अब भीड बर्दाश्त नही होती
मौसमी बुखार सा
तेरी मोहब्बत
गुबार छोड
जाती है
और हम
...उस गुबार मे
अपने अस्तित्व
को ढूँढते
रह जाते हैं
उफ़ ये खामोशी तडपा गयी
रैन बीती भी ना थी
कि तेरी याद आ गयी
उदासी को भी हसीन बना दिया
कुछ इस तरह मेरे यार ने
मौत को भी जश्न बना दिया
सोच के तकियों में
चुभते यादों के नश्तर
तमाशबीन बना जाते हैं
शायद हवायें बहक गयी हैं
अपना रकीब इन्साँ खुद होता है
बाकी गैर मे इतनी जुर्रत कहाँ
मेरे गरल पीने पर
खुश था ज़माना
गरल पीकर ज़िन्दा
रहने पर क्यूँ
बरपा दिया हंगामा
मिलन का ये अन्दाज़ भी रास आया
मुझे "मै" तेरे ख्यालों मे मिली
दिल के छालों का
बीमा करा लेना
कहीं कोई आकर
नश्तर ना चुभा जाये
ये बेरुखी का आलम
ये तन्हाइयाँ
तूफ़ान आना लाज़िमी है
ज़िन्दगी सब कुछ सिखा देती है
कैसे गुलकंद को नीम बना देती है
किसी भी मोड से गुजरो
हादसे इंतज़ार मे होते हैं
कभी कभी लफ़्ज़ों की बनावट
चेहरा बन जाती है
और कभी
लफ़्ज़ चेहरे पर उतर आते हैं
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