अपने आने जाने के क्रम में
कितनी ही उठापटक कर लें
मगर हश्र अंततः मिटना ही है
फिर वो कोई भी हो
चिंताएं , ज़िन्दगी या इन्सान
तिल तिल कर जलने से नहीं मिटा करतीं
जबरन चाहतों पर फूल नहीं चढवाये जा सकते
चिंताओं की अनगिनत लकीरों में
उम्र के तकाज़े फीके पड़ने लगते हैं
तमाम पोशीदा राज़ मानो
उघड़ने को आतुर हो उठते हों
मगर
नफीरियों के बजने से ही तो
नहीं होता इल्म बारात का
वक्त की नज़ाकतें ही
तजवीजें उपलब्ध कराती हैं
मुक्ति की
ये एक आत्मघाती हमला है
बचाव का कोई साधन नहीं
फिर भी
जाने क्यों ढोई जाती हैं चिता तक
जबकि जानते हैं सब
घुलनशील पदार्थ सी तो होती हैं चिंताएं