जीवन कब बदलता है
ये तो नज़रों का धोखा है
खुद से खुद को छलता है
यूँ ही उत्साह में उछलता है
ना कल बदला था
ना आज बदलेगा
ये तो जोगी वाला फेरा है
आने वाला आएगा
जाने वाला जाएगा
पगले तेरे जीवन में
क्या कोई पल ठहर जायेगा
जो इतना भरमाता है
खुद से खुद को छलता है
क्यूँ आस के बीज बोता है
क्यूँ उम्मीदों के वृक्ष लगाता है
क्या इतना नहीं समझ पाता है
हर बार खाता धोखा है
कभी ना कोई फल तुझे मिल पाता है
फिर भी हसरतों को परवान चढ़ाता है
आम जीवन कहाँ बदलता है
ये तो पैसे वालों का शौक मचलता है
तू क्यूँ इसमें भटकता है
क्यूँ खुद से खुद को छलता है
ना आने वाले का स्वागत कर
ना जाने वाले का गम कर
मत देखादेखी खुद को भ्रमित कर
तू ना पाँव पसार पायेगा
कल भी तेरा भाग्य ना बदल पायेगा
कर कर्म ऐसे कि
खुदा खुद तुझसे पूछे
कि बता कौन सा तुझे
भोग लगाऊं
कैसे अब तेरा क़र्ज़ चुकाऊँ
मगर तू ना हाथ फैला लेना
कर्म के बल को पहचान लेना
कर्मनिष्ठ हो कल को बदल देना
मगर कभी ना भाग्य के पंछी को
दिल में जगह देना
फिर कह सकेगा तू भी
नव वर्ष नूतन हो गया
मैंने खुद से खुद को जो जीत लिया
मैंने खुद से खुद को जो जीत लिया ............
शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
रविवार, 26 दिसंबर 2010
आहें सिलवटों की……………
ज़िन्दा हूं मैं...........
अब कहीं नही हो तुम
ना ख्वाब मे , ना सांसों मे
ना दिल मे , ना धडकन मे
मगर फिर भी देखो तो
ज़िन्दा हूं मैं
ज़िन्दगी...........
ओढ कर ज़िन्दगी का कफ़न
दर्द मे भीगूँ और नज़्म बनूँ
तेरी आहों मे भी सजूँ
मगर ज़िन्दगी सी ना मिलूँ
नींद .................
दर्द का बिस्तर है
आहों का तकिया है
नश्तरों के ख्वाब हैं
अब बच के कहाँ जायेगी
नींद अच्छी आयेगी ना
अंदाज़ ..............
प्रेम के बहुत अन्दाज़ होते हैं
सब कहाँ उनसे गुजरे होते हैं
कभी तल्ख कभी भीने होते हैं
सब मोहब्बत के सिले होते हैं
या मोहब्बत थी ही नहीं ...........
बेशक तुम वापस आ गये
मगर वीराने मे तो
बहार आई ही नही
कोई नया गुल
खिला ही नही
प्रेम का दीप
जला ही नही
शायद मोहब्बत
का तेल
खत्म हो चुका था
या मोहब्बत
थी ही नही
सोच मे हूं.........
अब कहीं नही हो तुम
ना ख्वाब मे , ना सांसों मे
ना दिल मे , ना धडकन मे
मगर फिर भी देखो तो
ज़िन्दा हूं मैं
ज़िन्दगी...........
ओढ कर ज़िन्दगी का कफ़न
दर्द मे भीगूँ और नज़्म बनूँ
तेरी आहों मे भी सजूँ
मगर ज़िन्दगी सी ना मिलूँ
नींद .................
दर्द का बिस्तर है
आहों का तकिया है
नश्तरों के ख्वाब हैं
अब बच के कहाँ जायेगी
नींद अच्छी आयेगी ना
अंदाज़ ..............
प्रेम के बहुत अन्दाज़ होते हैं
सब कहाँ उनसे गुजरे होते हैं
कभी तल्ख कभी भीने होते हैं
सब मोहब्बत के सिले होते हैं
या मोहब्बत थी ही नहीं ...........
बेशक तुम वापस आ गये
मगर वीराने मे तो
बहार आई ही नही
कोई नया गुल
खिला ही नही
प्रेम का दीप
जला ही नही
शायद मोहब्बत
का तेल
खत्म हो चुका था
या मोहब्बत
थी ही नही
सोच मे हूं.........
क्या कहूं
सोच मे हूं
रिश्ता था
या रिश्ता है
या अहसास हैं
जिन्हे रिश्ते मे
बदल रहे थे
या रिश्ता है
या अहसास हैं
जिन्हे रिश्ते मे
बदल रहे थे
रिश्ते टूट सकते है
मगर अहसास
हमेशा ज़िन्दा
रहते हैं
फिर चाहे वो
प्यार बनकर रहें
या …………
मगर अहसास
हमेशा ज़िन्दा
रहते हैं
फिर चाहे वो
प्यार बनकर रहें
या …………
बनकर
बुधवार, 22 दिसंबर 2010
अछूत हूँ मैं
तुम्हारे दंभ को हवा नहीं देती हूँ
तुम्हारी चाहतों को मुकाम नहीं देती हूँ
अपने आप में मस्त रहती हूँ
संक्रमण से ग्रसित नहीं होती हूँ
तुम्हारी बातों में नहीं आती हूँ
बेवजह बात नहीं करती हूँ
तुम्हारे मानसिक शोषण को
पोषित नहीं करती हूँ
कतरा कर निकाल जाते हैं सभी
शायद इसीलिए अछूत हूँ मैं
तुम्हारी चाहतों को मुकाम नहीं देती हूँ
अपने आप में मस्त रहती हूँ
संक्रमण से ग्रसित नहीं होती हूँ
तुम्हारी बातों में नहीं आती हूँ
बेवजह बात नहीं करती हूँ
तुम्हारे मानसिक शोषण को
पोषित नहीं करती हूँ
कतरा कर निकाल जाते हैं सभी
शायद इसीलिए अछूत हूँ मैं
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
बिखरे टुकडे
कौन कमबख्त बडा होना चाहता है
हर दिल मे यहाँ मासूम बच्चा पलता है
इज़हार कब शब्दो का मोहताज़ हुआ है
ये जज़्बा तो नज़रों से बयाँ हुआ है
अब और कुछ कहने की जुबाँ ने इजाज़त नही दी
कुछ लफ़्ज़ पढे, लगा तुम्हें पढा और खामोश हो गयी
अदृश्य रेखाएं
कब दृश्य होती हैं
ये तो सिर्फ
चिंतन में रूप
संजोती हैं
अलविदा कह कर
चला गया कोई
और विदा भी ना
किया जनाजे को
आखिरी बार कब्र तक!
ये कैसी सज़ा दे गया कोई
यूँ दर्द को शब्दों में पिरो दिया
मगर मोहब्बत को ना रुसवा किया
ये कौन सा तूने मोहब्बत का घूँट पिया
जहाँ फरिश्तों ने भी तेरे सदके में सजदा किया
हर दिल मे यहाँ मासूम बच्चा पलता है
इज़हार कब शब्दो का मोहताज़ हुआ है
ये जज़्बा तो नज़रों से बयाँ हुआ है
अब और कुछ कहने की जुबाँ ने इजाज़त नही दी
कुछ लफ़्ज़ पढे, लगा तुम्हें पढा और खामोश हो गयी
अदृश्य रेखाएं
कब दृश्य होती हैं
ये तो सिर्फ
चिंतन में रूप
संजोती हैं
अलविदा कह कर
चला गया कोई
और विदा भी ना
किया जनाजे को
आखिरी बार कब्र तक!
ये कैसी सज़ा दे गया कोई
यूँ दर्द को शब्दों में पिरो दिया
मगर मोहब्बत को ना रुसवा किया
ये कौन सा तूने मोहब्बत का घूँट पिया
जहाँ फरिश्तों ने भी तेरे सदके में सजदा किया
बुधवार, 15 दिसंबर 2010
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब चाँद से आग बरसती हो
और रूह मेरी तडपती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब आस का दिया बुझता हो
और सांस मेरी अटकती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब सफ़र का अंतिम पड़ाव हो
और आँखों मेरी पथरायी हों
मुमकिन है तुम आ जाओ
अच्छा चलते हैं अब
सुबह हुयी तो
फिर मिलेंगे
और रूह मेरी तडपती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब आस का दिया बुझता हो
और सांस मेरी अटकती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब सफ़र का अंतिम पड़ाव हो
और आँखों मेरी पथरायी हों
मुमकिन है तुम आ जाओ
अच्छा चलते हैं अब
सुबह हुयी तो
फिर मिलेंगे
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
क्या यही मोहब्बत होती है ?
वो आते हैं
कुछ देर
बतियाते हैं
अपनी सुनाते हैं
और चले जाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
अपनी बेचैनियाँ
बयां कर जाते हैं
दर्द की सारी तहरीर
सुना जाते हैं
मगर
हाल-ए-दिल ना
जान पाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
सिर्फ कुछ पलों
का तसव्वुर
वो भी ख्वाब सा
बिखर जाता है
जब जाते- जाते
एक नया ज़ख्म
दे जाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
कुछ देर
बतियाते हैं
अपनी सुनाते हैं
और चले जाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
अपनी बेचैनियाँ
बयां कर जाते हैं
दर्द की सारी तहरीर
सुना जाते हैं
मगर
हाल-ए-दिल ना
जान पाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
सिर्फ कुछ पलों
का तसव्वुर
वो भी ख्वाब सा
बिखर जाता है
जब जाते- जाते
एक नया ज़ख्म
दे जाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
फिर कैसे कहते हो ज़िन्दा है आदमी?
कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा -थोडा
मरता है आदमी
एक बार तब मरता है
जब अपनों के दंश
सहता है आदमी
कभी मान के
कभी अपमान के
कभी धोखे के
कभी भरोसे के
स्तंभों को रोज
तोड़ता है आदमी
फिर भी मर -मर कर
रोज़ जीता है आदमी
कैसे कहते हो
मर गया है आदमी
क्या मौत का आना ही
मरना कहलाता है
जो इक -इक पल में
हज़ार मौत मरता है आदमी
वो क्या जीता कहलाता है आदमी?
जिनके लिए जीता था
उन्ही के गले की फँस हो जाये
जब अपनों की दुआओं में
मौत की दुआ शामिल हो जाये
उस पल मौत से पहले
कितनी ही मौत मरता है आदमी
फिर कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा- थोडा
मरता है आदमी
मरता है आदमी ...............
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा -थोडा
मरता है आदमी
एक बार तब मरता है
जब अपनों के दंश
सहता है आदमी
कभी मान के
कभी अपमान के
कभी धोखे के
कभी भरोसे के
स्तंभों को रोज
तोड़ता है आदमी
फिर भी मर -मर कर
रोज़ जीता है आदमी
कैसे कहते हो
मर गया है आदमी
क्या मौत का आना ही
मरना कहलाता है
जो इक -इक पल में
हज़ार मौत मरता है आदमी
वो क्या जीता कहलाता है आदमी?
जिनके लिए जीता था
उन्ही के गले की फँस हो जाये
जब अपनों की दुआओं में
मौत की दुआ शामिल हो जाये
उस पल मौत से पहले
कितनी ही मौत मरता है आदमी
फिर कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा- थोडा
मरता है आदमी
मरता है आदमी ...............
सोमवार, 6 दिसंबर 2010
अनुपम उपहार हो तुम
नव कोपल
से नर्म एहसास सी
तुम
प्रकृति की सबसे अनुपम
उपहार हो मेरे लिए
वो ऊषा की पहली किरण सा
मखमली अहसास हो तुम
जाने कौन देस से आयीं
मेरे जीवन प्राण हो तुम
ओस की
पारदर्शी बूंद सी
तुम श्रृंगार हो
प्रकृति की
मगर मेरे मन के
सूने
आंगन की
इकलौती आस हो तुम
से नर्म एहसास सी
तुम
प्रकृति की सबसे अनुपम
उपहार हो मेरे लिए
वो ऊषा की पहली किरण सा
मखमली अहसास हो तुम
जाने कौन देस से आयीं
मेरे जीवन प्राण हो तुम
ओस की
पारदर्शी बूंद सी
तुम श्रृंगार हो
प्रकृति की
मगर मेरे मन के
सूने
आंगन की
इकलौती आस हो तुम
गुनगुनी धूप के
रेशमी तागों की
फिसलती धुन पर
थिरकता
परवाज़ हो तुम
पर मेरे लिए
ज़िन्दगी का
सुरमई साज़ हो तुम
शनिवार, 4 दिसंबर 2010
हाँ , मैंने गुनाह किया
हाँ ,
मैंने गुनाह किया
जो चाहे सजा दे देना
जिस्म की बदिशों से
रूह को आज़ाद कर देना
हँसकर सह जाऊँगा
गिला ना कोई
लब पर लाऊंगा
नहीं चाहता कोई छुडाये
उस हथकड़ी से
नहीं कोई चाहत बाकी अब
सिवाय इस एक चाह के
बार- बार एक ही
गुनाह करना चाहता हूँ
और हर बार एक ही
सजा पाना चाहता हूँ
हाँ , सच मैं
आजाद नहीं होना चाहता
जकड़े रखना बँधन में
अब बँधन युक्त कैदी का
जीवन जीना चाहता हूँ
बहुत आकाश नाप लिया
परवाजों से
अब उड़ने की चाहत नहीं
अब मैं ठहरना चाहता हूँ
बहुत दौड़ लिया ज़िन्दगी के
अंधे गलियारों में
अब जी भरकर जीना चाहता हूँ
हाँ ,मैं एक बार फिर
'प्यार' करने का
गुनाह करना चाहता हूँ
प्रेम की हथकड़ी से
ना आज़ाद होना चाहता हूँ
उसकी कशिश से ना
मुक्त होना चाहता हूँ
और ये गुनाह मैं
हर जन्म ,हर युग में
बार- बार करना चाहता हूँ
मैंने गुनाह किया
जो चाहे सजा दे देना
जिस्म की बदिशों से
रूह को आज़ाद कर देना
हँसकर सह जाऊँगा
गिला ना कोई
लब पर लाऊंगा
नहीं चाहता कोई छुडाये
उस हथकड़ी से
नहीं कोई चाहत बाकी अब
सिवाय इस एक चाह के
बार- बार एक ही
गुनाह करना चाहता हूँ
और हर बार एक ही
सजा पाना चाहता हूँ
हाँ , सच मैं
आजाद नहीं होना चाहता
जकड़े रखना बँधन में
अब बँधन युक्त कैदी का
जीवन जीना चाहता हूँ
बहुत आकाश नाप लिया
परवाजों से
अब उड़ने की चाहत नहीं
अब मैं ठहरना चाहता हूँ
बहुत दौड़ लिया ज़िन्दगी के
अंधे गलियारों में
अब जी भरकर जीना चाहता हूँ
हाँ ,मैं एक बार फिर
'प्यार' करने का
गुनाह करना चाहता हूँ
प्रेम की हथकड़ी से
ना आज़ाद होना चाहता हूँ
उसकी कशिश से ना
मुक्त होना चाहता हूँ
और ये गुनाह मैं
हर जन्म ,हर युग में
बार- बार करना चाहता हूँ
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
सिर्फ़ एक बार खुद से रोमांस करने की कोशिश करना……………………250वीं पोस्ट
जब दुनिया की हर शय सिमटने लगे
जब अपने ही तुझको झिड़कने लगें
तेरा मयखाना खाली होने लगे
हर रंग बदरंग होने लगे
तू खुद से बेपरवाह होने लगे
राहें सभी बंद होने लगें
जब ज़िन्दगी भी दोज़ख लगने लगे
कायनात का आखिरी चिराग भी बुझने लगे
तेरा नसीबा भी तुझपे हंसने लगे
जब उम्मीदों के चराग बुझने लगें
तकदीर की स्याह रात वक्त से लम्बी होने लगे
अपने साये से भी डर लगने लगे
ज़िन्दगी से मौत सस्ती लगने लगे
उस वक्त तुम इतना करना
इक पल रुकना
खुद को देखना
मन के आईने में
आत्मावलोकन करना
और सब कुछ भुलाकर
सिर्फ एक बार
खुद से रोमांस करने
की कोशिश करना
देखना ज़िन्दगी तेरी
सँवर जाएगी
दुनिया ही तेरी बदल जाएगी
जो बेगाने नज़र आते थे
अपनों से बढ़कर नज़र आयेंगे
तेरे दिल की बगिया के
सुमन सारे खिल जायेंगे
जीने के सभी रंग
तुझको मिल जायेंगे
बस तू एक बार खुद से
रोमांस करने की कोशिश तो करना ......................
रविवार, 28 नवंबर 2010
टिशु पेपर हूँ मैं………………
लोग आते हैं
अपनी कहते हैं
चले जाते हैं
हम सुनते हैं
ध्यान से गुनते हैं
दिल से लगा लेते हैं
जब तक संभलते हैं
वो किसी और
मुकाम पर
चले जाते हैं
और हम वहीं
उसी मोड़ पर
खाली हाथ
खड़े रह जाते हैं
कभी कभी लगता है
टिशु पेपर हूँ मैं
अपनी कहते हैं
चले जाते हैं
हम सुनते हैं
ध्यान से गुनते हैं
दिल से लगा लेते हैं
जब तक संभलते हैं
वो किसी और
मुकाम पर
चले जाते हैं
और हम वहीं
उसी मोड़ पर
खाली हाथ
खड़े रह जाते हैं
कभी कभी लगता है
टिशु पेपर हूँ मैं
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
शायद जीना इसी का नाम है
साइकिल पर
रखकर सामान
सुबह सुबह
निकल पड़ते हैं
किस्मत से लड़ने
गली गली
आवाज़ लगाते
"फोल्डिंग बनवा लो "
और फिर
कभी कभार ही
कोई मेहरबान होता है
बुलाता है
मोल भाव करता है
और बड़ा
अहसान- सा करके
काम देता है
उस पर यदि कोई
बुजुर्ग हो बनाने वाला
तो वो उसे अपनी
किस्मत मान लेता है
और सौदा कर लेता है
जिस उम्र में हड्डियाँ
ठहराव चाहती हैं
उस उम्र में परिवार का
बोझ कंधे पर उठाये
जब वो निकलता होगा
ना जाने कितनी आशाओं
की लड़ियाँ सहेजता होगा
फोल्डिंग बनाते बनाते
हर पट्टी में जैसे
सारे दिन की दिनचर्या
बुन लेता होगा
सड़क पर बैठकर
कड़ी धूप में
पसीना बहाते हुए
उसे सिर्फ मिलने वाले
पैसों से सपने खरीदने
की चाह होती है
एक वक्त की
रोटी के जुगाड़
की आस होती है
कांपते हाथों से
दिन भर में
बा-मुश्किल
दो ही फोल्डिंग
बना पाता है
उन्ही में
जीने के सपने
सजा लेता है
और ज़िन्दगी के
संघर्ष पर
विजय पा लेता है
और शाम ढलते ही
एक नयी सुबह की
आस में सपनो का
तकिया लगाकर
सो जाता है
शायद
जीना इसी का नाम है
रखकर सामान
सुबह सुबह
निकल पड़ते हैं
किस्मत से लड़ने
गली गली
आवाज़ लगाते
"फोल्डिंग बनवा लो "
और फिर
कभी कभार ही
कोई मेहरबान होता है
बुलाता है
मोल भाव करता है
और बड़ा
अहसान- सा करके
काम देता है
उस पर यदि कोई
बुजुर्ग हो बनाने वाला
तो वो उसे अपनी
किस्मत मान लेता है
और सौदा कर लेता है
जिस उम्र में हड्डियाँ
ठहराव चाहती हैं
उस उम्र में परिवार का
बोझ कंधे पर उठाये
जब वो निकलता होगा
ना जाने कितनी आशाओं
की लड़ियाँ सहेजता होगा
फोल्डिंग बनाते बनाते
हर पट्टी में जैसे
सारे दिन की दिनचर्या
बुन लेता होगा
सड़क पर बैठकर
कड़ी धूप में
पसीना बहाते हुए
उसे सिर्फ मिलने वाले
पैसों से सपने खरीदने
की चाह होती है
एक वक्त की
रोटी के जुगाड़
की आस होती है
कांपते हाथों से
दिन भर में
बा-मुश्किल
दो ही फोल्डिंग
बना पाता है
उन्ही में
जीने के सपने
सजा लेता है
और ज़िन्दगी के
संघर्ष पर
विजय पा लेता है
और शाम ढलते ही
एक नयी सुबह की
आस में सपनो का
तकिया लगाकर
सो जाता है
शायद
जीना इसी का नाम है
सोमवार, 22 नवंबर 2010
खाली पहर
आज एक
खाली पहर
बीत रहा है
कोई सांस नहीं
कोई आस नहीं
कोई चाह नहीं
अब इसमें
हर स्पंदन मौन
वक्त की मूक
अभिव्यक्ति का
गवाह बनता
ये पहर
कुछ छीने
भी जा रहा है
जैसे लूट कर
ले गया हो कोई
किसी की अस्मत
और जुबाँ भी
मौन हो गयी हो
बचा हो तो
सिर्फ उस पहर का
रीतापन
अपने बेसबब
हाल पर
कुंठाओं के
बीज बोता हुआ
अब कुछ नही बचा……………
शायद खालीपन का अहसास भी नही
जैसे बुहारा गया हो आंगन
और निशाँ सब मिट चुके हों
खाली पहर
बीत रहा है
कोई सांस नहीं
कोई आस नहीं
कोई चाह नहीं
अब इसमें
हर स्पंदन मौन
वक्त की मूक
अभिव्यक्ति का
गवाह बनता
ये पहर
कुछ छीने
भी जा रहा है
जैसे लूट कर
ले गया हो कोई
किसी की अस्मत
और जुबाँ भी
मौन हो गयी हो
बचा हो तो
सिर्फ उस पहर का
रीतापन
अपने बेसबब
हाल पर
कुंठाओं के
बीज बोता हुआ
अब कुछ नही बचा……………
शायद खालीपन का अहसास भी नही
जैसे बुहारा गया हो आंगन
और निशाँ सब मिट चुके हों
बुधवार, 17 नवंबर 2010
मै तो
मै तो हर समय
खूबसूरत समय
मे जीती हूँ
ख्वाब मे नही
जीती हूँ
हकीकत के
धरातल पर
समय से
लड्ती हूँ
खूबसूरत समय
मे जीती हूँ
ख्वाब मे नही
जीती हूँ
हकीकत के
धरातल पर
समय से
लड्ती हूँ
और समय को
अपने पल्लू मे
बाँध लेती हूँ
अपने पल्लू मे
बाँध लेती हूँ
सोमवार, 15 नवंबर 2010
अतिक्रमण
ना जाने क्यूँ
अतिक्रमण
करते हैं हम
कभी ज़मीन का
कभी अधिकारों का
कभी भावनाओं का
तो कभी मर्यादाओं का
शायद हमारे
लहू में ही
कोई जीन
अतिक्रमणता
का काबिज़
हो गया है
जो अपनी
सीमाओं में
रहने को
अपना अपमान
समझता है
सीमाओं का
उल्लंघन
उसकी
प्राथमिकता
होती है
फिर उससे चाहे
किसी का भी
जीवन धराशायी
क्यूँ ना हो जाये
अतिक्रमण करने
वालों का कोई
ईमान नहीं होता
उन्हें परवाह
नहीं होती
कितने दिल टूटे
किसका आशियाँ
उजड़ा
किसका जहाँ
बर्बाद हुआ
किसी के भी
अरमानों का
जनाजा ही
क्यूँ ना निकल जाए
कोई सरे बाज़ार
बदनाम ही
क्यूँ ना हो जाए
मगर अतिक्रमण
करना जरूरी है
और शायद
भावनाओं का तो
बेहद जरूरी
तभी हम
स्वयं को
शरीफ और
समाज की
सशक्त कड़ी
साबित कर पाएं
और अतिक्रमणता
को मुकाम दे पायें
अतिक्रमण
करते हैं हम
कभी ज़मीन का
कभी अधिकारों का
कभी भावनाओं का
तो कभी मर्यादाओं का
शायद हमारे
लहू में ही
कोई जीन
अतिक्रमणता
का काबिज़
हो गया है
जो अपनी
सीमाओं में
रहने को
अपना अपमान
समझता है
सीमाओं का
उल्लंघन
उसकी
प्राथमिकता
होती है
फिर उससे चाहे
किसी का भी
जीवन धराशायी
क्यूँ ना हो जाये
अतिक्रमण करने
वालों का कोई
ईमान नहीं होता
उन्हें परवाह
नहीं होती
कितने दिल टूटे
किसका आशियाँ
उजड़ा
किसका जहाँ
बर्बाद हुआ
किसी के भी
अरमानों का
जनाजा ही
क्यूँ ना निकल जाए
कोई सरे बाज़ार
बदनाम ही
क्यूँ ना हो जाए
मगर अतिक्रमण
करना जरूरी है
और शायद
भावनाओं का तो
बेहद जरूरी
तभी हम
स्वयं को
शरीफ और
समाज की
सशक्त कड़ी
साबित कर पाएं
और अतिक्रमणता
को मुकाम दे पायें
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
दुनिया का दस्तूर
दस्तूर तो दुनिया
सही निभाती है
कमी हम में ही है
जो ना समझ पाते हैं
सब अपने आप के साथी हैं
पल भर के मुसाफिर
मिलते हैं फिर
अपनी राह को
बढ़ जाते हैं
कौन किसी का
मीत यहाँ
कौन किसी का
साथी रे
कुछ पल के लगे
डेरे हैं
फिर बंजारों की टोली
चली जाती है
यहाँ ना कोई
किसी का दोस्त है
सब राह भर के
साथी हैं
दुनिया जानती है
इस दस्तूर को
तू भी सीख जायेगा
रे मनवा
यहाँ रिश्ते उधार
के जुड़ते हैं
जीते जी ना
चुकते हैं
मिलने बिछड़ने का
सिलसिला अनवरत
चलता रहता है
मगर कोई ना
किसी का होता है
इस दस्तूर की
घुट्टी बनाकर
पी जा प्यारे
दिल को पत्थर
बनाकर जीना
सीख जा प्यारे
दुनिया का दस्तूर
निभाना आ जायेगा
शायद तू भी तभी
"इंसान" कहा जाएगा
सही निभाती है
कमी हम में ही है
जो ना समझ पाते हैं
सब अपने आप के साथी हैं
पल भर के मुसाफिर
मिलते हैं फिर
अपनी राह को
बढ़ जाते हैं
कौन किसी का
मीत यहाँ
कौन किसी का
साथी रे
कुछ पल के लगे
डेरे हैं
फिर बंजारों की टोली
चली जाती है
यहाँ ना कोई
किसी का दोस्त है
सब राह भर के
साथी हैं
दुनिया जानती है
इस दस्तूर को
तू भी सीख जायेगा
रे मनवा
यहाँ रिश्ते उधार
के जुड़ते हैं
जीते जी ना
चुकते हैं
मिलने बिछड़ने का
सिलसिला अनवरत
चलता रहता है
मगर कोई ना
किसी का होता है
इस दस्तूर की
घुट्टी बनाकर
पी जा प्यारे
दिल को पत्थर
बनाकर जीना
सीख जा प्यारे
दुनिया का दस्तूर
निभाना आ जायेगा
शायद तू भी तभी
"इंसान" कहा जाएगा
रविवार, 7 नवंबर 2010
फिर क्यूँ ढूँढूँ अवलम्बन?
मै
अपने आप से
बेहद खुश
फिर किसलिये
ढूँढूँ अवलम्बन
स्वीकार नही
अब ना कोई
दीवार रही
मै अपने "मै" मे
जी लेती हूँ
शायद इसीलिये
हँस लेती हूँ
जब जान लिया
है खुद को
फिर क्यूँ
ढूँढूँ अवलम्बन
अपने आप से
बेहद खुश
फिर किसलिये
ढूँढूँ अवलम्बन
मुझे मेरा "मै"
भटकाता नही
उसके सिवा कुछ
उसके सिवा कुछ
रास आता नही
अब बंधन स्वीकार नही
अब ना कोई
दीवार रही
मै अपने "मै" मे
जी लेती हूँ
शायद इसीलिये
हँस लेती हूँ
जब जान लिया
है खुद को
फिर क्यूँ
ढूँढूँ अवलम्बन
गुरुवार, 4 नवंबर 2010
मधुरिम पल
कुसुम कुसुम से
कुसुमित सुमन से
तेरे मेरे मधुरिम पल से
अधरों की भाषा बोल रहे हैं
दिलों के बंधन खोल रहे हैं
लम्हों को अब हम जोड़ रहे हैं
भावों को अब हम तोल रहे हैं
नयन बाण से घायल होकर
दिलों की भाषा बोल रहे हैं
हृदयाकाश पर छा रहे हैं
मेघों से घुमड़ घुमड़ कर
तन मन को भिगो रहे हैं
पल पल सुमन से महक रहे हैं
मधुरम मधुरम ,कुसुमित कुसुमित
दिवास्वप्न से चहक रहे हैं
तेरे मेरे अगणित पल
तेरे मेरे अगणित पल
दोस्तो,
ये रचना आप लोगों ने नहीं पढ़ी होगी और जिन्होंने पढ़ी है उनमे से अब सिर्फ २-३ ही होंगे बाकी सब ब्लॉग जगत से जा चुके हैं इसलिए अब दोबारा लगाई है ..........उम्मीद है पसंद आएगी
कुसुमित सुमन से
तेरे मेरे मधुरिम पल से
अधरों की भाषा बोल रहे हैं
दिलों के बंधन खोल रहे हैं
लम्हों को अब हम जोड़ रहे हैं
भावों को अब हम तोल रहे हैं
नयन बाण से घायल होकर
दिलों की भाषा बोल रहे हैं
हृदयाकाश पर छा रहे हैं
मेघों से घुमड़ घुमड़ कर
तन मन को भिगो रहे हैं
पल पल सुमन से महक रहे हैं
मधुरम मधुरम ,कुसुमित कुसुमित
दिवास्वप्न से चहक रहे हैं
तेरे मेरे अगणित पल
तेरे मेरे अगणित पल
दोस्तो,
ये रचना आप लोगों ने नहीं पढ़ी होगी और जिन्होंने पढ़ी है उनमे से अब सिर्फ २-३ ही होंगे बाकी सब ब्लॉग जगत से जा चुके हैं इसलिए अब दोबारा लगाई है ..........उम्मीद है पसंद आएगी
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
कभी हवा से भी बतिया कर देखिये
कभी हवा से भी बतिया कर देखिये
न जाने कितने पैगाम दे जायेगी
कुछ अनसुना सुना जायेगी
कुछ अनकहा कह जायेगी
तुम्हारे पैयाम ले जायेंगी
दर पर इक दस्तक दे जायेंगी
कभी बतियाकर तो देखिये
कभी हाथ लगाकर तो देखिये
ना भीग जाये तो कहना
हवाओं मे भी नम स्पर्श होता है
नमी हाथो की कहानी कह जायेगी
फिजाओं की हर सदा दे जायेगी
कैसे बहते हैं चश्मे - नम
हवाओ के साथ तुम भी जान लोगे
हवाओ को पहचान लोगे
उनसे अपना दामन बाँध लोगे
न जाने कितने पैगाम दे जायेगी
कुछ अनसुना सुना जायेगी
कुछ अनकहा कह जायेगी
तुम्हारे पैयाम ले जायेंगी
दर पर इक दस्तक दे जायेंगी
कभी बतियाकर तो देखिये
कभी हाथ लगाकर तो देखिये
ना भीग जाये तो कहना
हवाओं मे भी नम स्पर्श होता है
नमी हाथो की कहानी कह जायेगी
फिजाओं की हर सदा दे जायेगी
कैसे बहते हैं चश्मे - नम
हवाओ के साथ तुम भी जान लोगे
हवाओ को पहचान लोगे
उनसे अपना दामन बाँध लोगे
बस एक बार हवाओं से
बतिया कर तो देखिये
बतिया कर तो देखिये
गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010
पर्दा हटा दिया.........
इक
पर्दा लगाया
आज तेरी
यादों को
ओट में
रखने को
जब जी
चाहे चली
आती थीं
और हर
ज़ख्म को
ताज़ा कर
जाती थीं
मगर बेरहम
हवा ने
यादो का ही
साथ दिया
जैसे ही
आई यादें
पर्दा
हटा दिया
और
एक बार
फिर
हर ज़ख्म
को झुलसा दिया
पर्दा लगाया
आज तेरी
यादों को
ओट में
रखने को
जब जी
चाहे चली
आती थीं
और हर
ज़ख्म को
ताज़ा कर
जाती थीं
मगर बेरहम
हवा ने
यादो का ही
साथ दिया
जैसे ही
आई यादें
पर्दा
हटा दिया
और
एक बार
फिर
हर ज़ख्म
को झुलसा दिया
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
जब चाँद जमीं पर उतर आया हो
जब आसमाँ के चाँद से पहले
मेरा चाँद आ जाता है फिर
और क्या हसरत रही बाकी
तब बिना कहे बात होती है
मेरा चाँद बिना बोले सब सुनता है
और एक बोसा रूह पर रखता है
उसकी प्रीत दीवानी सहेज लेती है
उसके प्रेम की तपिश को आगोश मे
उसके प्रेम की चाँदनी मे नहा लेती है
और प्रेम के हर रंग को पा लेती है
बताओ
अब कौन सी हसरत रही बाकी?
जब चाँद जमीं पर उतर आया हो
मेरा चाँद आ जाता है फिर
और क्या हसरत रही बाकी
हर हसरत को पंख मिल जाते हैं
परवाज़ बेलगाम हो जाती है
जब मोहब्बत रुहानी होती हैपरवाज़ बेलगाम हो जाती है
तब बिना कहे बात होती है
मेरा चाँद बिना बोले सब सुनता है
और एक बोसा रूह पर रखता है
उसकी प्रीत दीवानी सहेज लेती है
उसके प्रेम की तपिश को आगोश मे
उसके प्रेम की चाँदनी मे नहा लेती है
और प्रेम के हर रंग को पा लेती है
बताओ
अब कौन सी हसरत रही बाकी?
जब चाँद जमीं पर उतर आया हो
मेरा चाँद मुझमे ही नज़र आया हो
सोमवार, 25 अक्टूबर 2010
किसका दायित्व ?
वेदना का चित्रण
नैनों का दायित्व
नैनों का चित्रण
अश्रुओं का दायित्व
मगर
अश्रुओं का चित्रण
किसका दायित्व ?
नैनों का दायित्व
नैनों का चित्रण
अश्रुओं का दायित्व
मगर
अश्रुओं का चित्रण
किसका दायित्व ?
शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010
ये कौन से शहर का है आदमी
ये कौन से शहर का है आदमी
जो रात भर सोता नहीं
खिलौनों और रोटी के लिए
अब यहाँ का बच्चा रोता नहीं
गुदड़ी में ही बड़ा हो जाता है जो
बचपन उस पर कभी आता नहीं
रात भर दौड़ती हैं सडकें जहाँ
सुना है शहरों में अब दिन होता नहीं
रौशनी से चकाचौंध हैं रातें
अब दिन किसी को लुभाते नहीं
इंसानियत की बात कोई कर जाए
ऐसा इस जहाँ में अब होता नहीं
बिन पंखों के आकाश नापा करते हैं
पंख वालों को यहाँ कोई पूछता नहीं
चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं
कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं
वो सुबह कभी तो आएगी
इस आस में आदमी अब जीता नहीं
हालात को नसीब का खेल मान
रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं
जो रात भर सोता नहीं
खिलौनों और रोटी के लिए
अब यहाँ का बच्चा रोता नहीं
गुदड़ी में ही बड़ा हो जाता है जो
बचपन उस पर कभी आता नहीं
रात भर दौड़ती हैं सडकें जहाँ
सुना है शहरों में अब दिन होता नहीं
रौशनी से चकाचौंध हैं रातें
अब दिन किसी को लुभाते नहीं
इंसानियत की बात कोई कर जाए
ऐसा इस जहाँ में अब होता नहीं
बिन पंखों के आकाश नापा करते हैं
पंख वालों को यहाँ कोई पूछता नहीं
चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं
कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं
वो सुबह कभी तो आएगी
इस आस में आदमी अब जीता नहीं
हालात को नसीब का खेल मान
रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं
मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010
हाँ , अब आसमाँ को नहीं तकती हूँ
सितारों को
नहीं देखती
मेरी किस्मत
का सितारा
वहाँ आसमाँ
में नहीं टंगा
खुदा ने
कोई सितारा
बनाया ही नहीं
फिर कैसे
खोजूँ उसे
आसमाँ में
अब अपने
सितारे आप
बनाती हूँ
दिल के
बगीचे में
सितारों के
फूल उगाती हूँ
जो खुदा ना
कर पाया
किस्मत के
उसी सितारे को
बुलंद करती हूँ
हाँ , अब
आसमाँ को
नहीं तकती हूँ
नहीं देखती
मेरी किस्मत
का सितारा
वहाँ आसमाँ
में नहीं टंगा
खुदा ने
कोई सितारा
बनाया ही नहीं
फिर कैसे
खोजूँ उसे
आसमाँ में
अब अपने
सितारे आप
बनाती हूँ
दिल के
बगीचे में
सितारों के
फूल उगाती हूँ
जो खुदा ना
कर पाया
किस्मत के
उसी सितारे को
बुलंद करती हूँ
हाँ , अब
आसमाँ को
नहीं तकती हूँ
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
कौन रुकता है किसी के लिये
जाओ
कौन रुकता है
किसी के लिए
बहता पानी
कब ठहरा है
किसी के लिए
प्रवाह कब रुके हैं
किसी के लिए
फिर चाहे
संवेदनाओं के हों
या आवेगों के
भावनाओं के हों
या संवेगों के
हर कोई
बह रहा है
फिर चाहे
वक्त ही
क्यूँ ना हो
कब किसके
लिए ठहरा है
तो फिर
कैसे तुमसे
उम्मीद करूँ
एक आस धरूँ
कि तुम
रुकोगे
मेरे लिए
कौन रुकता है
किसी के लिए
बहता पानी
कब ठहरा है
किसी के लिए
प्रवाह कब रुके हैं
किसी के लिए
फिर चाहे
संवेदनाओं के हों
या आवेगों के
भावनाओं के हों
या संवेगों के
हर कोई
बह रहा है
फिर चाहे
वक्त ही
क्यूँ ना हो
कब किसके
लिए ठहरा है
तो फिर
कैसे तुमसे
उम्मीद करूँ
एक आस धरूँ
कि तुम
रुकोगे
मेरे लिए
गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010
बहुत कठिन है डगर पनघट की
अभी तुम्हारी
चाह ख़त्म
नहीं हुई
अभी तुम्हारा
प्रेम पूर्णता
ना पा सका
जब हर चाह
मिट जाएगी तेरी
प्रेम में भी
पूर्णता आ जाएगी
प्रेम में
शर्त होती नहीं
प्रेम में तो
सिर्फ प्रेमी की
गति ही
अपनी गति
होती है
प्रेम स्वीकारने
का नहीं
महसूस करने का
नाम है
क्यूँ प्रेम को
स्वीकारने की
चाह रखते हो
इस चाह को भी
तुम्हें मिटाना होगा
जिस दिन
तेरी हर चाह
मिट जाएगी
तेरी प्रेम की प्यास
भी बुझ जाएगी
फिर प्रेम रस में
भीग तू
खुद प्रेम ही
बन जायेगा
चाह ख़त्म
नहीं हुई
अभी तुम्हारा
प्रेम पूर्णता
ना पा सका
जब हर चाह
मिट जाएगी तेरी
प्रेम में भी
पूर्णता आ जाएगी
प्रेम में
शर्त होती नहीं
प्रेम में तो
सिर्फ प्रेमी की
गति ही
अपनी गति
होती है
प्रेम स्वीकारने
का नहीं
महसूस करने का
नाम है
क्यूँ प्रेम को
स्वीकारने की
चाह रखते हो
इस चाह को भी
तुम्हें मिटाना होगा
जिस दिन
तेरी हर चाह
मिट जाएगी
तेरी प्रेम की प्यास
भी बुझ जाएगी
फिर प्रेम रस में
भीग तू
खुद प्रेम ही
बन जायेगा
शनिवार, 2 अक्टूबर 2010
टुकडियां
अपने साये से भी घबरा जाते हैं
अब भीड बर्दाश्त नही होती
मौसमी बुखार सा
तेरी मोहब्बत
गुबार छोड
जाती है
और हम
...उस गुबार मे
अपने अस्तित्व
को ढूँढते
रह जाते हैं
उफ़ ये खामोशी तडपा गयी
रैन बीती भी ना थी
कि तेरी याद आ गयी
उदासी को भी हसीन बना दिया
कुछ इस तरह मेरे यार ने
मौत को भी जश्न बना दिया
सोच के तकियों में
चुभते यादों के नश्तर
तमाशबीन बना जाते हैं
शायद हवायें बहक गयी हैं
अपना रकीब इन्साँ खुद होता है
बाकी गैर मे इतनी जुर्रत कहाँ
मेरे गरल पीने पर
खुश था ज़माना
गरल पीकर ज़िन्दा
रहने पर क्यूँ
बरपा दिया हंगामा
मिलन का ये अन्दाज़ भी रास आया
मुझे "मै" तेरे ख्यालों मे मिली
दिल के छालों का
बीमा करा लेना
कहीं कोई आकर
नश्तर ना चुभा जाये
ये बेरुखी का आलम
ये तन्हाइयाँ
तूफ़ान आना लाज़िमी है
ज़िन्दगी सब कुछ सिखा देती है
कैसे गुलकंद को नीम बना देती है
किसी भी मोड से गुजरो
हादसे इंतज़ार मे होते हैं
कभी कभी लफ़्ज़ों की बनावट
चेहरा बन जाती है
और कभी
लफ़्ज़ चेहरे पर उतर आते हैं
बुधवार, 29 सितंबर 2010
क्या यही इंतज़ार है?
आये
बैठे
उसके दर पर
कुछ देर
माथा टेक आये
...उसकी गली का
फ़ेरा लगा आये
और फिर
चल दिये
क्या यही इंतज़ार है
या फिर
दीदार की हसरत
सीने मे कैद
किये
खामोश चल दिये
क्या यही इंतज़ार है
या फिर
मिलकर भी
जो मिले ना
सामने होकर भी
अपना बने ना
फिर भी
मुस्कुरा कर
चल दे कोई
क्या यही इंतज़ार है
सोमवार, 27 सितंबर 2010
या खुदा ...........
या खुदा ,
तू दिल बनाता क्यूँ है
दिल दिया तो
इश्क जगाता क्यूँ है
प्रेम के सब्जबाग
दिखाता क्यूँ है
जब मिलाना ही ना था
तो अहसास
जगाता क्यूँ है
इश्क कराया तो
इश्क को रुसवा
कराता क्यूँ है
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
क्षितिज पर एक बार फिर................
मैं
दरिया हूँ
ना बाँधो
मुझको
बहने दो
अपने किनारों से
लगते - लगते
मत तानो
बंदिशों के
बाँध
मत बाँधो
पंखों की
परवाज़ को
मत लगाओ
मेरे आसमानों पर
हवाओं के पहरे
एक बार
उड़ान
भरने तो दो
एक बार
बंदिशें तोड़
बहने तो दो
एक बार
खुले आसमान में
विचरने तो दो
फिर देखो
मेरी परवाज़ को
मेरी उडान को
धरती आसमां में
सिमट जाएगी
आसमां धरती सा
हो जायेगा
और शायद
क्षितिज पर
एक बार फिर
मिलन हो जायेगा
दरिया हूँ
ना बाँधो
मुझको
बहने दो
अपने किनारों से
लगते - लगते
मत तानो
बंदिशों के
बाँध
मत बाँधो
पंखों की
परवाज़ को
मत लगाओ
मेरे आसमानों पर
हवाओं के पहरे
एक बार
उड़ान
भरने तो दो
एक बार
बंदिशें तोड़
बहने तो दो
एक बार
खुले आसमान में
विचरने तो दो
फिर देखो
मेरी परवाज़ को
मेरी उडान को
धरती आसमां में
सिमट जाएगी
आसमां धरती सा
हो जायेगा
और शायद
क्षितिज पर
एक बार फिर
मिलन हो जायेगा
सोमवार, 20 सितंबर 2010
एक मिनट
जब कोई
कहता है
रुकना ज़रा
एक मिनट !
आह - सी
निकल जाती है
ये एक मिनट
कितने सितम
ढाता है
ज़रा पूछो उससे
जो इंतजार
के पल
बिताता है
इस एक
मिनट में
वो कितने
जन्म जी
जाता है
ये एक मिनट
किसी के लिए
एक युग बन
जाता है
और उस युग में
दिल ना जाने
कितने जन्म
जी जाता है
और हर जन्म
किसी के
इंतज़ार में
गुज़र जाता है
मगर वो
एक मिनट
वहीं रुक
जाता है
कहता है
रुकना ज़रा
एक मिनट !
आह - सी
निकल जाती है
ये एक मिनट
कितने सितम
ढाता है
ज़रा पूछो उससे
जो इंतजार
के पल
बिताता है
इस एक
मिनट में
वो कितने
जन्म जी
जाता है
ये एक मिनट
किसी के लिए
एक युग बन
जाता है
और उस युग में
दिल ना जाने
कितने जन्म
जी जाता है
और हर जन्म
किसी के
इंतज़ार में
गुज़र जाता है
मगर वो
एक मिनट
वहीं रुक
जाता है
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
गर होती कोई कशिश हम में
किसी के
ख्वाबों में
पले होते
किसी के
दिल की
धडकनों की
आवाज़ होते
किसी के
सुरों की
सरगम होते
किसी के
छंदों का
अलंकार होते
किसी के
दिल के
उदगार होते
किसी के लिए
ऊषा की
पहली किरण होते
किसी के
अरमानों में
सांझ की
दुल्हन से
सजे होते
किसी के
गीतों में
प्यार बन
ढले होते
किसी कवि की
कल्पना होते
मगर यूं ना
ठुकराए जाते
गर होती
कोई कशिश
हम में
ख्वाबों में
पले होते
किसी के
दिल की
धडकनों की
आवाज़ होते
किसी के
सुरों की
सरगम होते
किसी के
छंदों का
अलंकार होते
किसी के
दिल के
उदगार होते
किसी के लिए
ऊषा की
पहली किरण होते
किसी के
अरमानों में
सांझ की
दुल्हन से
सजे होते
किसी के
गीतों में
प्यार बन
ढले होते
किसी कवि की
कल्पना होते
मगर यूं ना
ठुकराए जाते
गर होती
कोई कशिश
हम में
रविवार, 12 सितंबर 2010
टुकडे मोहब्बत के
परछाइयों में छुपे जितने साये हैं
सब मोहब्बत के निशाँ उभर आये हैं
भीड़ के दामन में छुपे साए हैं
मोहब्बत के दर्द यूँ ही नहीं उभर आये हैं
सब दामन बचा के निकल गए
किसी ने मोहब्बत को छुआ ही नहीं
अपने साये से भी घबरा जाते हैं
अब भीड़ बर्दाश्त नहीं होती
इतनी ख़ामोशी अच्छी नहीं लगती
तेरे रुखसार पर मायूसी अच्छी नहीं लगती
कुछ खनक तो होती
गर चोट लगी होती
कुछ गम तेरी यादों के
कुछ गम मेरी आहों के
कुछ सितम तेरी निगाहों के
बस गुजर रही है ज़िन्दगी
ठीक- ठाक सी
कातिल निगाहों से
गर मर गए होते
तो यूँ दर -दर
ना भटक रहे होते
जिन्हें लिबास मिले ही नही
उस जगह माथा न रगड
जहाँ देवता हैं ही नही
उस शख्स को आवाज़ न दे
जो तुम्हारा है ही नही
सब मोहब्बत के निशाँ उभर आये हैं
भीड़ के दामन में छुपे साए हैं
मोहब्बत के दर्द यूँ ही नहीं उभर आये हैं
सब दामन बचा के निकल गए
किसी ने मोहब्बत को छुआ ही नहीं
अपने साये से भी घबरा जाते हैं
अब भीड़ बर्दाश्त नहीं होती
इतनी ख़ामोशी अच्छी नहीं लगती
तेरे रुखसार पर मायूसी अच्छी नहीं लगती
कुछ खनक तो होती
गर चोट लगी होती
कुछ गम तेरी यादों के
कुछ गम मेरी आहों के
कुछ सितम तेरी निगाहों के
बस गुजर रही है ज़िन्दगी
ठीक- ठाक सी
कातिल निगाहों से
गर मर गए होते
तो यूँ दर -दर
ना भटक रहे होते
उन रिश्तों के लिये अश्क न बहा
जिन्हें लिबास मिले ही नही
उस जगह माथा न रगड
जहाँ देवता हैं ही नही
उस शख्स को आवाज़ न दे
जो तुम्हारा है ही नही
गुरुवार, 9 सितंबर 2010
शायद तब ही .................
जो दीन ईमान से
ऊपर उठ जाये
जो जिस्म के
तूफ़ान से
ऊपर उठ जाए
दीवानगी
पागलपन जैसे
शब्दों की महत्ता
ख़त्म हो जाए
हर चाहत
हर अहसास
के स्रोत
लुप्त होने लगें
जहाँ विरह
श्रृंगार भी
गौण हो जायें
जब सारे शब्द
विलुप्त हो जायें
जहाँ दुनिया भी
सजदा करने लगे
जहाँ खुदा भी
छोटा लगने लगे
जब रूहों का
मिलन होने लगे
जब बिना कहे ही
दूजे की आवाज़
सुनने लगें
तरंगों पर ही
भावों का
आदान- प्रदान
होने लगे
इक दूजे में ही
प्राण बसने लगे
जहाँ ज़िन्दगी
और मौत की भी
परवाह ना हो
सिर्फ आत्मिक
मिलन का ही
आधिपत्य हो
आग का दरिया
मोम के घोड़े
पर सवार हो
जब बिना
पिघले पार
कर जाए
तब जानना
मोहब्बत हुई है
या
यही मोहब्बत
होती है
या
शायद तब ही
मोहब्बत होती है
ऊपर उठ जाये
जो जिस्म के
तूफ़ान से
ऊपर उठ जाए
दीवानगी
पागलपन जैसे
शब्दों की महत्ता
ख़त्म हो जाए
हर चाहत
हर अहसास
के स्रोत
लुप्त होने लगें
जहाँ विरह
श्रृंगार भी
गौण हो जायें
जब सारे शब्द
विलुप्त हो जायें
जहाँ दुनिया भी
सजदा करने लगे
जहाँ खुदा भी
छोटा लगने लगे
जब रूहों का
मिलन होने लगे
जब बिना कहे ही
दूजे की आवाज़
सुनने लगें
तरंगों पर ही
भावों का
आदान- प्रदान
होने लगे
इक दूजे में ही
प्राण बसने लगे
जहाँ ज़िन्दगी
और मौत की भी
परवाह ना हो
सिर्फ आत्मिक
मिलन का ही
आधिपत्य हो
आग का दरिया
मोम के घोड़े
पर सवार हो
जब बिना
पिघले पार
कर जाए
तब जानना
मोहब्बत हुई है
या
यही मोहब्बत
होती है
या
शायद तब ही
मोहब्बत होती है
मंगलवार, 7 सितंबर 2010
लिखना मुझे कब आता है
लिखना मुझे
कब आता है
बस आपके दर्द
आपकी नज़र
करती हूँ
दर्द की चादर
ओढकर
जब तुम सोते हो
मै चुपके से
आ जाती हूँ
तुम्हारे दर्द के
कुछ क्षणों
को तुमसे
चुरा ले जाती हूँ
कब आता है
बस आपके दर्द
आपकी नज़र
करती हूँ
दर्द की चादर
ओढकर
जब तुम सोते हो
मै चुपके से
आ जाती हूँ
तुम्हारे दर्द के
कुछ क्षणों
को तुमसे
चुरा ले जाती हूँ
फिर उन अहसासों
को जीती हूँ
तुम्हारे दर्द
को जीती हूँ
तुम्हारे दर्द
को पीती हूँ
और फिर इक
और फिर इक
नज़्म लिखती हूँ
मगर फिर भी
अधूरा रहता है
शायद तुम्हारे
शायद तुम्हारे
दर्द को
पूरी तरह ना
पूरी तरह ना
पकड पाती हूँ
उस वेदना
उस वेदना
की अथाह
गहराई मे ना
गहराई मे ना
उतर पाती हूँ
तभी हर बार
तभी हर बार
पूरी तरह
ना उतार पाती हूँ
शायद इसिलिये
बार -बार
ना उतार पाती हूँ
शायद इसिलिये
बार -बार
मैं लिखती हूँ
तुम्हारे अधूरे - बिखरे
दर्द -भरे पलो को
तुम्हारे अधूरे - बिखरे
दर्द -भरे पलो को
तुम्हारी नज़र
ही करती हूँ
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
राधे राधे
तुम बिन
कैसे बीते
दिवस हमारे
तन मथुरा था
मन बृज में था
निस दिन
रोवत नयन हमारे
राधे राधे
तुम बिन
कैसे बीते
दिवस हमारे
संसार में
जीना था
कर्म भी
करना था
प्रेम को
तो जाने
सिर्फ ह्रदय
हमारे
राधे राधे
तुम बिन
कैसे बीते
दिवस हमारे
निष्ठुर कहाया
निर्मोही बनाया
किसी ने जाना
भेद हमारा
तुम बिन
कैसे बीती
रैन हमारी
राधे राधे
तुम बिन
कैसे बीते
दिवस हमारे
दूर मैं कब था
तुम तो
बसती थी
दिल में हमारे
द्वैत का पर्दा
कब था प्यारी
तुम बिन
अधूरा था
अस्तित्व हमारा
राधे राधे
तुम बिन
कैसे बीते
दिवस हमारे
विरह अवस्था
दोनों की थी
उद्दात प्रेम की
लहर बही थी
इक दूजे बिन
कब पूर्ण थे
अस्तित्व हमारे
राधे राधे
तुम बिन
कैसे बीते
दिवस हमारे
हे सर्वेश्वरी
प्यारी
ये तुम जानो
या हम जाने
राधे राधे
तुम बिन
कैसे बीते
दिवस हमारे
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
रिश्तों की गाँठ
अंतर्मन के सागर की
अथाह गहराइयों में
उपजी पीड़ा का दर्द
छटपटाहट, बेबसी की
जंजीरों में जकड़ी
रिश्ते की डोर
ना जाने कितनी
बार टूटी
और टूटकर
बार- बार
जोड़नी पड़ी
इस आस पर
शायद मोहब्बत को
मुकाम मिल जाये
और हर बार
रिश्ते में एक
नयी गाँठ
लगती रही
हर गाँठ के साथ
डोर छोटी होती गयी
प्रेम की , विश्वास की
चाहत की डोर
तो ना जाने कहाँ
लुप्त हो गयी
अब तो सिर्फ
गाँठे ही गाँठे
नज़र आती हैं
डोर के आखिरी
सिरे पर भी
आखिरी गाँठ
अब कैसे नेह
के बँधन को
निभाए कोई
कब तक
स्वयं की
आहुति दे कोई
शायद अब
नया सिरा
खोजना होगा
रिश्ते की डोर
को मोड़ना होगा
गाँठों के फंद में
दबे अस्तित्व
को खोजना होगा
रिश्ते को पड़ाव
समझ जीना होगा
रिश्तों के मकडजाल
से उबरना होगा
खुद को एक
नया मुकाम
देना होगा
अथाह गहराइयों में
उपजी पीड़ा का दर्द
छटपटाहट, बेबसी की
जंजीरों में जकड़ी
रिश्ते की डोर
ना जाने कितनी
बार टूटी
और टूटकर
बार- बार
जोड़नी पड़ी
इस आस पर
शायद मोहब्बत को
मुकाम मिल जाये
और हर बार
रिश्ते में एक
नयी गाँठ
लगती रही
हर गाँठ के साथ
डोर छोटी होती गयी
प्रेम की , विश्वास की
चाहत की डोर
तो ना जाने कहाँ
लुप्त हो गयी
अब तो सिर्फ
गाँठे ही गाँठे
नज़र आती हैं
डोर के आखिरी
सिरे पर भी
आखिरी गाँठ
अब कैसे नेह
के बँधन को
निभाए कोई
कब तक
स्वयं की
आहुति दे कोई
शायद अब
नया सिरा
खोजना होगा
रिश्ते की डोर
को मोड़ना होगा
गाँठों के फंद में
दबे अस्तित्व
को खोजना होगा
रिश्ते को पड़ाव
समझ जीना होगा
रिश्तों के मकडजाल
से उबरना होगा
खुद को एक
नया मुकाम
देना होगा
बुधवार, 25 अगस्त 2010
"मैं" का व्यूहजाल
एक सिमटी
दुनिया में
जीने वाले हम
मैं, मेरा घर ,
मेरी बीवी,
मेरे बच्चे
मैं और मेरा
के खेल में
"मैं" की
कठपुतली
बन नाचते
रहते हैं
और तुझे
दुनिया का
हर उपदेश
समझा जाते हैं
देश के लिए
कुछ कर
गुजरने की
ताकीद कर
जाते हैं
मगर कभी
खुद ना उस
पर चल पाते हैं
क्योंकि "मैं" के
व्यूहजाल से
ना निकल
पाते हैं
समाज का सशक्त
अंग ना बन पाते हैं
दुनिया में
जीने वाले हम
मैं, मेरा घर ,
मेरी बीवी,
मेरे बच्चे
मैं और मेरा
के खेल में
"मैं" की
कठपुतली
बन नाचते
रहते हैं
और तुझे
दुनिया का
हर उपदेश
समझा जाते हैं
देश के लिए
कुछ कर
गुजरने की
ताकीद कर
जाते हैं
मगर कभी
खुद ना उस
पर चल पाते हैं
क्योंकि "मैं" के
व्यूहजाल से
ना निकल
पाते हैं
समाज का सशक्त
अंग ना बन पाते हैं
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
घायल यादें
बेल बूँटों सा
टाँका था कभी
यादों को
दिल की
उजली मखमली
चादर पर
बरसों बाद जो
तह खोली
तो वक्त की
गर्द में दबे
बेल बूँटे अपना
रंग खो चुके थे
सिर्फ बेरंग,
मुड़ी - तुड़ी
कटी- फटी सी
यादें अपने
घावों को
सहलाती मिलीं
टाँका था कभी
यादों को
दिल की
उजली मखमली
चादर पर
बरसों बाद जो
तह खोली
तो वक्त की
गर्द में दबे
बेल बूँटे अपना
रंग खो चुके थे
सिर्फ बेरंग,
मुड़ी - तुड़ी
कटी- फटी सी
यादें अपने
घावों को
सहलाती मिलीं
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
सावन कितना बरस ले ............
बरसते मौसम में
भीगता तन
मन को ना
भिगो पाया
मन के आँगन
की धरती
तो कब की
सूखे की
भयावह मार से
फट चुकी है
अब अहसासों
की खेती ना
कर सकोगे
तमन्नाओं की
फसल ना
उगा सकोगे
भाव ना कोई
जगा सकोगे
सावन कितना
बरस ले
कुछ आँगन
कभी नहीं
भीगते
भीगता तन
मन को ना
भिगो पाया
मन के आँगन
की धरती
तो कब की
सूखे की
भयावह मार से
फट चुकी है
अब अहसासों
की खेती ना
कर सकोगे
तमन्नाओं की
फसल ना
उगा सकोगे
भाव ना कोई
जगा सकोगे
सावन कितना
बरस ले
कुछ आँगन
कभी नहीं
भीगते
शनिवार, 14 अगस्त 2010
वन्दे मातरम कहते जाओ
वन्दे मातरम कहते जाओ
आस्तीनों में साँप पाले जाओ
ए खुदा के नामुराद बन्दों
देश को लूट - खसोटे जाओ
कल की फिक्र तुम ना करना
बस आज जेबें भरते जाओ
जनता मरती है मरने दो
बस तुम अमरता को पा जाओ
शहीद की कुर्बानी को भी तुम
अपना मान बनाये जाओ
सत्ता के गलियारों में बस
अपनी रोटियां सेंके जाओ
भूखी बिलखती जनता से तुम
जीने का हक़ छीने जाओ
सपनों के भारत के नाम पर
जनता का शोषण किये जाओ
भ्रष्टाचार की जमीन पर तुम
अपनी गोटियाँ बिछाये जाओ
आज़ादी की वर्षगाँठ पर
आज़ादी को रुलाये जाओ
तिरंगे का अपमान करके
वन्दे मातरम कहते जाओ
आस्तीनों में साँप पाले जाओ
ए खुदा के नामुराद बन्दों
देश को लूट - खसोटे जाओ
कल की फिक्र तुम ना करना
बस आज जेबें भरते जाओ
जनता मरती है मरने दो
बस तुम अमरता को पा जाओ
शहीद की कुर्बानी को भी तुम
अपना मान बनाये जाओ
सत्ता के गलियारों में बस
अपनी रोटियां सेंके जाओ
भूखी बिलखती जनता से तुम
जीने का हक़ छीने जाओ
सपनों के भारत के नाम पर
जनता का शोषण किये जाओ
भ्रष्टाचार की जमीन पर तुम
अपनी गोटियाँ बिछाये जाओ
आज़ादी की वर्षगाँठ पर
आज़ादी को रुलाये जाओ
तिरंगे का अपमान करके
वन्दे मातरम कहते जाओ
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
यूँ तेरी मोहब्बत में.............
कुछ पल का मिलना
फिर बिछड़ जाना
क्या जरूरी है ?
कुछ देर रुके होते
दो बात की होती
कुछ अपनी कही होती
कुछ मेरी सुनी होती
कुछ दर्द लिया होता
कुछ दर्द दिया होता
कुछ अपनी बेचैनियों का
कोई राज़ दिया होता
कुछ वादे मोहब्बत के किये होते
कुछ शिकवे वफाओं के किये होते
कुछ अपने भरम तोड़े होते
कुछ नए भरम दिए होते
कुछ दिल के टुकड़े किये होते
कुछ चुन लिए होते
कुछ बिखर गए होते
कुछ पल यूँ ही तेरे आगोश में
हम जी लिए होते
कुछ पल तो मोहब्बत की
बरखा में भीग लिए होते
मिलने की हसरतों के
हर अरमान जी लिए होते
जुदाई के लम्हों को
फिर हम सह लिए होते
यूँ तेरी मोहब्बत में
कुछ जी लिए होते
कुछ मर लिए होते
फिर बिछड़ जाना
क्या जरूरी है ?
कुछ देर रुके होते
दो बात की होती
कुछ अपनी कही होती
कुछ मेरी सुनी होती
कुछ दर्द लिया होता
कुछ दर्द दिया होता
कुछ अपनी बेचैनियों का
कोई राज़ दिया होता
कुछ वादे मोहब्बत के किये होते
कुछ शिकवे वफाओं के किये होते
कुछ अपने भरम तोड़े होते
कुछ नए भरम दिए होते
कुछ दिल के टुकड़े किये होते
कुछ चुन लिए होते
कुछ बिखर गए होते
कुछ पल यूँ ही तेरे आगोश में
हम जी लिए होते
कुछ पल तो मोहब्बत की
बरखा में भीग लिए होते
मिलने की हसरतों के
हर अरमान जी लिए होते
जुदाई के लम्हों को
फिर हम सह लिए होते
यूँ तेरी मोहब्बत में
कुछ जी लिए होते
कुछ मर लिए होते
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
माँ हूँ ना मैं.......
कभी बेच दिया
कभी नीलाम किया
कभी अपनों के
हाथों ही अपनों ने
शर्मसार किया
कुछ ऐसे मेरे
बच्चों ने मुझे
दागदार किया
माँ हूँ ना मैं ........
इनकी धरती माँ
सिर्फ दो दिन ही
इन्हें याद आती हूँ
उसके बाद
स्वार्थपरता की
कोठरी में कैद
कर दी जाती हूँ
दिन रात सीने
पर पाँव रख
उसूलों, आदर्शों की
बलि चढ़ाकर
आगे बढ़ते जाते हैं
मेरे बच्चे ही मेरी
जिंदा ही चिता
जलाते हैं
और रोज ही मेरी
आहुति दिए जाते हैं
माँ हूँ ना मैं..........
माँ होती ही
जलने के लिए है
माँ होती ही
बलिदान के लिए है
माँ होने का
क़र्ज़ तो मुझे ही
चुकाना होगा
अपने ही बच्चों के
हाथों एक बार फिर
बिक जाना होगा
अपने आँसू पीकर
छलनी ह्रदय
को सींकर
बच्चों की ख़ुशी
की खातिर
अपनी आहुति
देनी होगी
चाहे बच्चे
भूल गए हों
मगर मुझे तो
माँ के फ़र्ज़ को
निभाना होगा
माँ हूँ ना मैं
आखिर
माँ हूँ ना मैं.......
कभी नीलाम किया
कभी अपनों के
हाथों ही अपनों ने
शर्मसार किया
कुछ ऐसे मेरे
बच्चों ने मुझे
दागदार किया
माँ हूँ ना मैं ........
इनकी धरती माँ
सिर्फ दो दिन ही
इन्हें याद आती हूँ
उसके बाद
स्वार्थपरता की
कोठरी में कैद
कर दी जाती हूँ
दिन रात सीने
पर पाँव रख
उसूलों, आदर्शों की
बलि चढ़ाकर
आगे बढ़ते जाते हैं
मेरे बच्चे ही मेरी
जिंदा ही चिता
जलाते हैं
और रोज ही मेरी
आहुति दिए जाते हैं
माँ हूँ ना मैं..........
माँ होती ही
जलने के लिए है
माँ होती ही
बलिदान के लिए है
माँ होने का
क़र्ज़ तो मुझे ही
चुकाना होगा
अपने ही बच्चों के
हाथों एक बार फिर
बिक जाना होगा
अपने आँसू पीकर
छलनी ह्रदय
को सींकर
बच्चों की ख़ुशी
की खातिर
अपनी आहुति
देनी होगी
चाहे बच्चे
भूल गए हों
मगर मुझे तो
माँ के फ़र्ज़ को
निभाना होगा
माँ हूँ ना मैं
आखिर
माँ हूँ ना मैं.......
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
विनाश के चिन्ह यादो की धरोहर बन जाते हैं
ये सीने में कैद
ज्वार- भाटे
उफन कर
बाहर आने
को आतुर
जब होते हैं
अपने साथ
विनाश को भी
दावत देते हैं
कहीं अरमानो के
मकानों को
धराशायी
कर जाते हैं
कहीं हसरतों
के वृक्ष
उखड जाते हैं
तमन्नाओं की
सुनामी में
सभी संचार
के माध्यमो को
नेस्तनाबूद कर
विनाश पर
अट्टहास करते हैं
और चहुँ ओर
फैली वीभत्स
नीरवता
एक शून्य
छोड़ जाती है
और विनाश
के चिन्ह
यादो की
धरोहर
बन जाते हैं
कभी ना
मिटने के लिए
ज्वार- भाटे
उफन कर
बाहर आने
को आतुर
जब होते हैं
अपने साथ
विनाश को भी
दावत देते हैं
कहीं अरमानो के
मकानों को
धराशायी
कर जाते हैं
कहीं हसरतों
के वृक्ष
उखड जाते हैं
तमन्नाओं की
सुनामी में
सभी संचार
के माध्यमो को
नेस्तनाबूद कर
विनाश पर
अट्टहास करते हैं
और चहुँ ओर
फैली वीभत्स
नीरवता
एक शून्य
छोड़ जाती है
और विनाश
के चिन्ह
यादो की
धरोहर
बन जाते हैं
कभी ना
मिटने के लिए
शनिवार, 31 जुलाई 2010
ज़िन्दगी का हिसाब -किताब
ज़िन्दगी के
हिस्से होते रहे
टुकड़ों में
बँटती रही
बच्चे की
किलकारियों सा
कब गुजर
गया बचपन
और एक हिस्सा
ज़िन्दगी का
ना जाने
किन ख्वाबों में
खो गया
मोहब्बत ,कटुता
भेदभाव,वैमनस्यता
अपना- पराया
तेरे- मेरे
की भेंट
दूजा हिस्सा
चढ़ गया
कब आकर
पुष्प को
चट्टान
बना गया
पता ही ना चला
आखिरी हिस्सा
ज़िन्दगी का
ज़िन्दगी भर के
जमा -घटा
गुना -भाग
में निकल गया
यूँ ज़िन्दगी
टुकड़ों में
गुजर गयीं
कुछ ना हाथ लगा
और फिर अचानक
मौसम बदल गया
इक अनंत
सफ़र की ओर
मुसाफिर चल दिया
हिस्से होते रहे
टुकड़ों में
बँटती रही
बच्चे की
किलकारियों सा
कब गुजर
गया बचपन
और एक हिस्सा
ज़िन्दगी का
ना जाने
किन ख्वाबों में
खो गया
मोहब्बत ,कटुता
भेदभाव,वैमनस्यता
अपना- पराया
तेरे- मेरे
की भेंट
दूजा हिस्सा
चढ़ गया
कब आकर
पुष्प को
चट्टान
बना गया
पता ही ना चला
आखिरी हिस्सा
ज़िन्दगी का
ज़िन्दगी भर के
जमा -घटा
गुना -भाग
में निकल गया
यूँ ज़िन्दगी
टुकड़ों में
गुजर गयीं
कुछ ना हाथ लगा
और फिर अचानक
मौसम बदल गया
इक अनंत
सफ़र की ओर
मुसाफिर चल दिया
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
बस वो ना बनाया ..........
मैं
ख्वाब बनी
हकीकत में ढली
नज़्म भी बनी
गीतों में ढली
तेरे सांसों की
सरगम पर
सुरों की झंकार
भी बनी
रूह का स्पंदन
भी बनी
मौसम का खुमार
भी बनी
सर्दी की गुनगुनी
धूप में ढली
कभी शबनम
की बूंद बन
फूलों में पली
तेरे हर रंग में ढली
वो सब कुछ बनी
जो तू ने बनाया
तूने सब कुछ बनाया
मगर वो ना बनाया
जो तेरे अंतर्मन के
दीपक की बाती होगी
तेरे अरमानों की
थाती होती
तेरे हर ख्वाब की
ताबीर होती
तेरी हर धड़कन की
आवाज़ होती
तेरी रूह की पुकार होती
तेरी जान की जान होती
बस वो ना बनाया
तूने कभी
बस वो ना बनाया ..........
ख्वाब बनी
हकीकत में ढली
नज़्म भी बनी
गीतों में ढली
तेरे सांसों की
सरगम पर
सुरों की झंकार
भी बनी
रूह का स्पंदन
भी बनी
मौसम का खुमार
भी बनी
सर्दी की गुनगुनी
धूप में ढली
कभी शबनम
की बूंद बन
फूलों में पली
तेरे हर रंग में ढली
वो सब कुछ बनी
जो तू ने बनाया
तूने सब कुछ बनाया
मगर वो ना बनाया
जो तेरे अंतर्मन के
दीपक की बाती होगी
तेरे अरमानों की
थाती होती
तेरे हर ख्वाब की
ताबीर होती
तेरी हर धड़कन की
आवाज़ होती
तेरी रूह की पुकार होती
तेरी जान की जान होती
बस वो ना बनाया
तूने कभी
बस वो ना बनाया ..........
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
मानव! व्यर्थ भूभार ही बना
ज़िन्दगी व्यर्थ
वक्त की बर्बादी
नतीजा---शून्य
अगर किसी एक
को भी अपना ना बना पाया
या किसी का बन ना पाया
मानव!
व्यर्थ भूभार ही बना
अगर कोई एक
कर्म ना किया ऐसा
जिसे याद रखा जा सके
पूजा का ढोंग
तेरा व्यर्थ गया
ढकोसलों में
ढकी शख्सियत
तेरी व्यर्थ गयी
अगर किसी
एक आँख का
आँसू ना पोंछ सका
मानव !
तू तो
खुद से ही हार गया
अगर
"मैं " को ही ना जीत पाया
जीवन तेरा व्यर्थ ही गया
खाली हाथ आया
और खाली ही चल दिया
वक्त की बर्बादी
नतीजा---शून्य
अगर किसी एक
को भी अपना ना बना पाया
या किसी का बन ना पाया
मानव!
व्यर्थ भूभार ही बना
अगर कोई एक
कर्म ना किया ऐसा
जिसे याद रखा जा सके
पूजा का ढोंग
तेरा व्यर्थ गया
ढकोसलों में
ढकी शख्सियत
तेरी व्यर्थ गयी
अगर किसी
एक आँख का
आँसू ना पोंछ सका
मानव !
तू तो
खुद से ही हार गया
अगर
"मैं " को ही ना जीत पाया
जीवन तेरा व्यर्थ ही गया
खाली हाथ आया
और खाली ही चल दिया
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
काव्य के नए मानक गढ़ने दो
क्यूँ बंदिशों में बांधते हो
क्यूँ बन्धनों में जकड़ते हो
भरने दो इन्हें भी उड़ान
नापने दो इन्हें भी दूरियां
छूने दो इन्हें भी आसमान
कर सकते हो तो इतना करो
क्यूँ बन्धनों में जकड़ते हो
भरने दो इन्हें भी उड़ान
नापने दो इन्हें भी दूरियां
छूने दो इन्हें भी आसमान
कर सकते हो तो इतना करो
हौसले इनके बढ़ाते चलो
मार्ग प्रशस्त करते चलो
क्यूँ लिंगभेद के उहापोह में
दिग्भ्रमित करते हो
रचना तो सबकी होती है
जनक चाहे कोई भी हो
क्यूँ स्त्री पुरुष के भेद को
ना पाट पाते हो
क्यूँ सृजनात्मकता पर
अंकुश लगाते हो
काव्य ---स्त्री या पुरुष
की थाती नहीं
सिर्फ कोमल भावों का
ही तो सृजन होता है
फिर पुरुष हो या स्त्री
भावों पर तो किसी का
जोर नहीं
तब तुम क्यूँ
बाँध बनाते हो
उड़ने दो
उन्मुक्त हवाओं को
बहने दो समय की
धारा के साथ
एक दिन ये भी
नया आकाश
बना देंगी
इन्हें भी रूढ़ियों
को बदलने दो
काव्य के नए
मार्ग प्रशस्त करते चलो
क्यूँ लिंगभेद के उहापोह में
दिग्भ्रमित करते हो
रचना तो सबकी होती है
जनक चाहे कोई भी हो
क्यूँ स्त्री पुरुष के भेद को
ना पाट पाते हो
क्यूँ सृजनात्मकता पर
अंकुश लगाते हो
काव्य ---स्त्री या पुरुष
की थाती नहीं
सिर्फ कोमल भावों का
ही तो सृजन होता है
फिर पुरुष हो या स्त्री
भावों पर तो किसी का
जोर नहीं
तब तुम क्यूँ
बाँध बनाते हो
उड़ने दो
उन्मुक्त हवाओं को
बहने दो समय की
धारा के साथ
एक दिन ये भी
नया आकाश
बना देंगी
इन्हें भी रूढ़ियों
को बदलने दो
काव्य के नए
मानक गढ़ने दो
दोस्तों
ये रचना कल की पोस्ट की ही उपज है क्यूँकि कुछ लोग सोचते हैं कि स्त्री को स्त्री के भावों पर ही लिखना चाहिये और पुरुष को पुरुष् के भावों पर मगर मेरे ख्याल से तो भावों को बांधा नही जा सकता इसलिए फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष वो जो भी मह्सूस करे उसे लिखने देना चाहिये …………हो सकता है काव्य की दृष्टि से ये बात सही हो मगर मुझे इसका ज्ञान नही है और जरूरत भी नही है क्यूँकि भाव तो किसी भी बंधन को स्वीकार नही करते………बस कल यूँ ही ये भाव बन गये तो आपके समक्ष प्रस्तुत कर दिये।
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
वरना आफताब पा गया होता..........
घर की देहरी
पार कर भी ले
मन की देहरी
ना लाँघ पाया कभी
तेरे मन की दहलीज
पर अपने मन की
बन्दनवार सजाई
मगर फिर भी
सूक्ष्म, अनवरत
बहते विचारों को
मथ ना पाया कभी
ना जाने कौन सा
सतत प्रवाह
रोकता रहा
बढ़ने से
कौन सा बाँध
बना था
तेरे मन की
देहरी पर खिंची
लक्ष्मण रेखा पर
जिसे आज तक
ना तू लाँघ पाया
ना मुझे ही आने
की इजाजत दी
मन की खोह
में छिपी कौन सी
प्रस्तर प्रतिमा
रोकती है तुझे
जिसके अभिशाप
से कभी मुक्त
ना हो पाया
ना वर्तमान को
अपना पाया
ना भविष्य
को सजा पाया
सिर्फ भूत के
बिखरे टुकड़ों
में खुद को
मिटाता रहा
एक छोटी- सी
रेखा ना लाँघ
पाया कभी
वरना आफताब सी
प्रेम की तपिश
पा गया होता
माहताब तेरा
बन गया होता
जीवन तेरा
सँवर गया होता
पार कर भी ले
मन की देहरी
ना लाँघ पाया कभी
तेरे मन की दहलीज
पर अपने मन की
बन्दनवार सजाई
मगर फिर भी
सूक्ष्म, अनवरत
बहते विचारों को
मथ ना पाया कभी
ना जाने कौन सा
सतत प्रवाह
रोकता रहा
बढ़ने से
कौन सा बाँध
बना था
तेरे मन की
देहरी पर खिंची
लक्ष्मण रेखा पर
जिसे आज तक
ना तू लाँघ पाया
ना मुझे ही आने
की इजाजत दी
मन की खोह
में छिपी कौन सी
प्रस्तर प्रतिमा
रोकती है तुझे
जिसके अभिशाप
से कभी मुक्त
ना हो पाया
ना वर्तमान को
अपना पाया
ना भविष्य
को सजा पाया
सिर्फ भूत के
बिखरे टुकड़ों
में खुद को
मिटाता रहा
एक छोटी- सी
रेखा ना लाँघ
पाया कभी
वरना आफताब सी
प्रेम की तपिश
पा गया होता
माहताब तेरा
बन गया होता
जीवन तेरा
सँवर गया होता
सोमवार, 12 जुलाई 2010
यही तो अमर प्रेम है ………………है ना
दोस्तों ,
आज की पोस्ट में हम सबकी साथी कुसुम ठाकुर जी को समर्पित कर रही हूँ क्यूंकि आज उनका जन्मदिन है और कल उनकी शादी की सालगिरह ..........इसमें उनके भावों को शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रही हूँ और उनकी उस महान भावना के आगे नतमस्तक हूँ ..........शायद यही तो अमर प्रेम होता है ............ये सिर्फ एक कोशिश है मगर शायद अभी भी काफी कुछ अधूरा रह गया हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ क्यूंकि जितना उनको समझा है और जाना है उसी आधार पर ये लिखने का प्रयत्न कर रही हूँ .........
तुम्हें याद है
कल हमारे
वैवाहिक बँधन
में वक़्त एक
और यादों की
लकीर छोड़ रहा है
कल का दिन
तुम्हारे और मेरे
जीवन का अनमोल दिन
हमारा बँधन
शरीरों का तो
रहा ही नहीं
आत्मिक बँधन
कब किसी
बँधन को
स्वीकारते हैं
आज तुम
मेरे पास नहीं
वहाँ जा चुके हो
जहाँ से कोई आता नहीं
सब यही कहते हैं
क्या हमारा
बँधन शरीरों
का था
नहीं ना
क्या तुम
मेरे पास नही
मुझे तो तुम
कभी
दूर दिखे ही नहीं
हर पल
मेरे साथ ही
तो होते हो
मेरी साँसों
में बसते हो
मेरे दिल में
धड़कन बन
धड़कते हो
मेरे रोम- रोम में
तुम्हारा ही तो
अक्स झलकता है
देखो मैं
आज भी वैसे ही
वर्षगाँठ मानती हूँ
क्यूँकि तुम
मेरे साथ हो
मेरे पास हो
मैं तो आज भी
तुम्हारे लिए ही
सँवरती हूँ
जैसा तुम चाहते थे
मुझे हमेशा
इन्द्रधनुषी
रंगों सा
खिला - खिला देखना
और मैं तुम्हारे
रंगों में रंगी
आज भी प्रीत की
रंगोली सजाती हूँ
आत्मिक बँधन को
वो क्या जाने
जो कभी
शरीर से ऊपर
उठे ही नहीं
देखो अब
मुझे कल का
इंतज़ार है
जैसे हमेशा
होता था
जब तुम और मैं
एक साथ
मोहब्बत की
रस्म निभाएंगे
शायद तुम्हें भी
उसी लम्हे का
इंतज़ार होगा
है ना................
आज की पोस्ट में हम सबकी साथी कुसुम ठाकुर जी को समर्पित कर रही हूँ क्यूंकि आज उनका जन्मदिन है और कल उनकी शादी की सालगिरह ..........इसमें उनके भावों को शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रही हूँ और उनकी उस महान भावना के आगे नतमस्तक हूँ ..........शायद यही तो अमर प्रेम होता है ............ये सिर्फ एक कोशिश है मगर शायद अभी भी काफी कुछ अधूरा रह गया हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ क्यूंकि जितना उनको समझा है और जाना है उसी आधार पर ये लिखने का प्रयत्न कर रही हूँ .........
तुम्हें याद है
कल हमारे
वैवाहिक बँधन
में वक़्त एक
और यादों की
लकीर छोड़ रहा है
कल का दिन
तुम्हारे और मेरे
जीवन का अनमोल दिन
हमारा बँधन
शरीरों का तो
रहा ही नहीं
आत्मिक बँधन
कब किसी
बँधन को
स्वीकारते हैं
आज तुम
मेरे पास नहीं
वहाँ जा चुके हो
जहाँ से कोई आता नहीं
सब यही कहते हैं
क्या हमारा
बँधन शरीरों
का था
नहीं ना
क्या तुम
मेरे पास नही
मुझे तो तुम
कभी
दूर दिखे ही नहीं
हर पल
मेरे साथ ही
तो होते हो
मेरी साँसों
में बसते हो
मेरे दिल में
धड़कन बन
धड़कते हो
मेरे रोम- रोम में
तुम्हारा ही तो
अक्स झलकता है
देखो मैं
आज भी वैसे ही
वर्षगाँठ मानती हूँ
क्यूँकि तुम
मेरे साथ हो
मेरे पास हो
मैं तो आज भी
तुम्हारे लिए ही
सँवरती हूँ
जैसा तुम चाहते थे
मुझे हमेशा
इन्द्रधनुषी
रंगों सा
खिला - खिला देखना
और मैं तुम्हारे
रंगों में रंगी
आज भी प्रीत की
रंगोली सजाती हूँ
आत्मिक बँधन को
वो क्या जाने
जो कभी
शरीर से ऊपर
उठे ही नहीं
देखो अब
मुझे कल का
इंतज़ार है
जैसे हमेशा
होता था
जब तुम और मैं
एक साथ
मोहब्बत की
रस्म निभाएंगे
शायद तुम्हें भी
उसी लम्हे का
इंतज़ार होगा
है ना................
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
मैं कुछ पल का ब्लॉगर हूँ
मैं कुछ पल का ब्लॉगर हूँ
कुछ पल की मेरी पोस्टें हैं
कुछ पल की मेरी हस्ती है
कुछ पल की मेरी ब्लॉगिंग है
मैं कुछ पल ...........................
मुझसे पहले कितने ब्लॉगर
आये और आकर चले गए ,चले गए
कुछ झंडे गाड़कर चले गए
कुछ ठोकर खाकर चले गए,चले गए
वो उस पल की ब्लॉगिंग का हिस्सा थे
मैं इस पल की ब्लॉगिंग का हिस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊँगा
जो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
मैं कुछ पल .........................................
कल और आयेंगे ब्लॉगिंग की
नयी ऊँचाइयाँ छूने वाले
हमसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर पढने वाले
कल कोई किसी को याद करे
क्यूँ कोई किसी को याद करे
मसरूफ ज़माना ब्लॉगिंग के लिए
क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
मैं कुछ पल ........................
कुछ पल की मेरी पोस्टें हैं
कुछ पल की मेरी हस्ती है
कुछ पल की मेरी ब्लॉगिंग है
मैं कुछ पल ...........................
मुझसे पहले कितने ब्लॉगर
आये और आकर चले गए ,चले गए
कुछ झंडे गाड़कर चले गए
कुछ ठोकर खाकर चले गए,चले गए
वो उस पल की ब्लॉगिंग का हिस्सा थे
मैं इस पल की ब्लॉगिंग का हिस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊँगा
जो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
मैं कुछ पल .........................................
कल और आयेंगे ब्लॉगिंग की
नयी ऊँचाइयाँ छूने वाले
हमसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर पढने वाले
कल कोई किसी को याद करे
क्यूँ कोई किसी को याद करे
मसरूफ ज़माना ब्लॉगिंग के लिए
क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
मैं कुछ पल ........................
बुधवार, 30 जून 2010
कभी तो जगेगा ही...............
तपते चेहरे
कुंठित मन
ह्रदय में पलता
आक्रोश का
ज्वालामुखी
लिए हर शख्स
कभी
सत्ता के
गलियारों में
भटकता
गिडगिडाता
कसमसाता
राजनीतिक
समीकरणों से
बेहाल
आक्रोशित
नाराज मानस
के मन का
उबाल
कभी
समाज के
विद्रूप चेहरे से
खुद को
उपेक्षित
महसूसता
मानव
रीतियों, रिवाजों
की भेंट चढ़ता
जीवन का इक अंग
मानव के
अंतस में
सिर्फ ज़हर का
दावानल ही
सुलगाता है
कब तक
इन्सान खुद से
सत्ता से
समाज से लड़े
कब तक
आश्वासन के
अवलंबन का
बोझ ढोए
कभी तो
उफनेगा ही
लावा कभी तो
फूटेगा ही
बगावत का
बिगुल बजेगा ही
फिर ये
अँधा ,बहरा
और गूंगा
समाज
कभी तो
जगेगा ही
कभी तो .................
कुंठित मन
ह्रदय में पलता
आक्रोश का
ज्वालामुखी
लिए हर शख्स
कभी
सत्ता के
गलियारों में
भटकता
गिडगिडाता
कसमसाता
राजनीतिक
समीकरणों से
बेहाल
आक्रोशित
नाराज मानस
के मन का
उबाल
कभी
समाज के
विद्रूप चेहरे से
खुद को
उपेक्षित
महसूसता
मानव
रीतियों, रिवाजों
की भेंट चढ़ता
जीवन का इक अंग
मानव के
अंतस में
सिर्फ ज़हर का
दावानल ही
सुलगाता है
कब तक
इन्सान खुद से
सत्ता से
समाज से लड़े
कब तक
आश्वासन के
अवलंबन का
बोझ ढोए
कभी तो
उफनेगा ही
लावा कभी तो
फूटेगा ही
बगावत का
बिगुल बजेगा ही
फिर ये
अँधा ,बहरा
और गूंगा
समाज
कभी तो
जगेगा ही
कभी तो .................
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