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सोमवार, 2 दिसंबर 2019

तुम्हारा स्वागत है

 1
तुम   कहती  हो  
" जीना है मुझे "
मैं कहती हूँ ………… क्यों ?
आखिर क्यों आना चाहती हो दुनिया में ?
 क्या मिलेगा तुम्हे जीकर ?
बचपन से ही बेटी होने के दंश  को सहोगी 
बड़े होकर किसी की निगाहों में चढोगी
तो कहीं तेज़ाब की आग में खद्कोगी
तो कहीं बलात्कार की  त्रासदी सहोगी 
फिर चाहे वो बलात्कार 
घर में हो या बाहर 
पति द्वारा हो या रिश्तेदार द्वारा या अनजान द्वारा 
क्या फर्क पड़ता है या पड़ेगा 
क्योंकि 
शिकार तो तुम हमेशा ही रहोगी 
जरूरी नहीं की निर्वस्त्र करके ही बलात्कार किया जाए 
कभी कभी  जब निगाहें भेदती हैं कोमल अंगों को 
बलात्कृत हो जाती है नारी अस्मिता 
जब कपड़ों के अन्दर का दृश्य भी 
हो जाता है दृश्यमान देखने वाले की कुत्सित निगाह में 
हो जाती है एक लड़की शर्मसार 
इतना ही नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता 
तुम बच्ची हो , युवा या प्रौढ़ 
तुम बस एक देह हो सिर्फ देह 
जिसके नहीं होते हाथ, पैर या मन 
होती है तो सिर्फ शल्य चिकित्सा की गयी देह के कामुक अंग 
उनसे इतर तुम कुछ नहीं हो 
क्या है ऐसा जो तुम्हें कुलबुला रहा है 
बाहर आने को प्रेरित  कर रहा है 
क्या मिलेगा तुम्हें यहाँ आकर 
देखो तो ………….
 कितनी निरीह पशु सी 
शिकार हो चुकी हैं न्याय की आस में 
मगर यहाँ न्याय
एक बेबस विधवा के जीवन की अँधेरी गली सा शापित खड़ा है 
कहीं नाबलिगता की आड़ में तो कहीं संशोधनों के जाल में 
मगर स्वयं निर्णय लेने में कितना सक्षम है 
ये आंकड़े बताते हैं 
कि न्याय की आस में वक्त करवट बदलता है 
मगर न्याय का त्रिशूल तो सिर्फ पीड़ित को ही लगता है 
हो जाती है वो फिर बार- बार बलात्कृत 
कभी क़ानून के रक्षक द्वारा कटघरे में खड़े होकर 
तो कभी किसी रिपोर्टर द्वारा अपनी टी आर पी के लिए कुरेदे जाने पर 
तो कभी गली कूचे में निकलने पर 
कभी निगाह में हेयता तो कभी सहानुभूति देखकर 
तो कभी खुदी  पर दोषारोपण होता देखकर 
अब बताओ तो ज़रा ………… क्या आना चाहोगी इस हाल में 
क्या जी सकोगी विषाक्त वातावरण में 
ले सकोगी आज़ादी की साँस 
गर कर सको ऐसा तो आना इस जहान में ……………तुम्हारा स्वागत है 

2
तुम कहती हो 
दुनिया  बहुत सुन्दर है 
देखना चाहती हो तुम 
जीना चाहती हो तुम 
हाँ सुन्दर है मगर तभी तक 
जब तक तुम " हाँ " की दहलीज पर बैठी हो 
जिस दिन " ना " कहना सीख लिया 
पुरुष का अहम् आहत हो जाएगा 
और तुम्हारा जीना दुश्वार 
तुम कहोगी …………क्यों डरा रही हूँ 
क्या सारी दुनिया में सारी स्त्रियों पर 
होता है ऐसा अत्याचार 
क्या स्त्री को कोई सुख कभी नहीं मिलता 
क्या स्त्री का अपना कोई वजूद नहीं होता 
क्या हर स्त्री इन्ही गलियारों से गुजरती है 
तो सुनो ……………एक कडवा सत्य 
हाँ ……………एक हद तक ये सच है 
कभी न कभी , किसी न किसी रूप में 
होता है उसका बलात्कार 
कभी  इच्छाओं का तो कभी उसकी चाहतों का 
तो कभी उसकी अस्मिता का 
होता है उस पर अत्याचार 
यूं ही नहीं कुछ स्त्रियों ने आकाश पर परचम लहराया है 
बेशक उनका कुछ दबंगपना  काम आया है 
मगर सोचना ज़रा ……ऐसी  कितनी होंगी 
जिनके हाथों में कुदालें होंगी 
जिन्होंने खोदा होगा धरती का सीना 
सिर्फ मुट्ठी भर …………… एक सब्जबाग है ये 
नारी मुक्ति या नारी विमर्श 
फिर चाहे विज्ञापन की मल्लिका बनो 
या ऑफिस में  काम  करने वाली सहकर्मी 
या कोई जानी मानी हस्ती 
सबके लिए महज  सिर्फ देह भर हो तुम 
फिर चाहे उसका मानसिक शोषण हो या शारीरिक 
दोहन के लिए गर तैयार हो 
प्रोडक्ट के रूप में प्रयोग होने को गर तैयार हो 
अपनी सोच को गिरवीं रखने को गर तैयार हो 
तो आना इस दुनिया में ………… तुम्हारा स्वागत है 

3
अभी जमीन उर्वर नहीं है 
महज ढकोसलों और दिखावों की भेंट चढ़ी है 
दो शब्द कह देना भर नहीं होता नारी विमर्श 
आन्दोलन  करना भर नहीं होता नारी मुक्ति 
नारी की मुक्ति के लिए नारी को  करना होता है 
जड़वादी ,   रूढ़िवादी सोच से खुद को मुक्त 
मगर अभी  जमीन उर्वर नहीं है 
अभी नहीं डाली गयी है इसमें उचित मात्र में खाद ,बीज और पानी 
फिर कैसे बहे बदलाव की बयार 
कैसे पाए नारी अपना सम्मान 
अभी संभव नहीं हवाओं के रुख का बदलना 
जानती हो क्यों ………… क्योंकि 
यहाँ है जंगलराज ……… न कोई डर है ना कानून 
चोर के हाथ में ही है तिजोरी की चाबी 
ऐसे में किस किस से और कब तक खुद को बचाओगी
कैसे इस माहौल में जी पाओगी 
ये सब सोच लेना तब आना इस दुनिया में ………… तुम्हारा स्वागत है 

4
और सुनो सबसे बडा सच 
नहीं हुयी मैं इतनी सक्षम 
जो बचा सकूँ तुम्हें 
हर विकृत सोच और निगाह से 
नहीं आयी मुझमें अभी वो योग्यता 
नहीं है इतना साहस जो बदल सकूँ 
इतिहास के पन्नों पर लिखी इबारतें 
पितृसत्तात्मक समाज के चेहरे से 
सिर्फ़ कहानियों , कविताओं ,आलेखों या मंच पर 
बोलना भर सीखा है मैनें 
मगर नहीं बदली है इक सभ्यता अभी मुझमें ही 
फिर कैसे तुम्हें आने को करूँ प्रोत्साहित 
कैसे करूँ तुम्हारा खुले दिल से स्वागत 
जब अब तक खुद को ही नहीं दे सकी तसल्लियों के शिखर 
जब अब तक खुद को नहीं कर सकी अपनी निगाह में स्थापित 
बन के रही हूँ अब तक सिर्फ़ और सिर्फ़ 
पुरुषवादी सोच और उसके हाथ का महज एक खिलौना भर 
फिर भी यदि तुम समझती हो 
तुम बदल सकती हो इतिहास के घिनौने अक्षर 
मगर मुझसे कोई उम्मीद की किरण ना रखना 
गर कर सको ऐसा तब आना इस दुनिया में ……तुम्हारा स्वागत है 


ये वो तस्वीर है  
वो कडवा सच है 
आज की दुनिया का 
जिसमें आने को तुम आतुर हो 
और कहती हो 
" जीना है मुझे " 


गुरुवार, 28 नवंबर 2019

दहल उठा है आसमां..

जाने किस मोड़ पर छोड़ आयी
आँसू, आहें और दर्द
अब जिद की नोक पर कर रही है नृत्य
प्रज्ञा उसकी
तुम्हारी भौंहों के टेढ़ेपन को बनाकर जमीन

यूँ ही चलते फिरते खींच रही है वो अपनी लकीर
न तुमसे छोटी और न ही तुमसे बड़ी

जाने क्यों गुनगुनाहट के घुंघरुओं से दहल उठा है आसमां...

सोमवार, 2 सितंबर 2019

आ अब लौट चलें

इस दौड़ती भागती दुनिया में
समय की धुरी पर ठहरा मन मेरा
कहता है
आ अब लौट चलें
एक बार फिर उसी दौर में
जहाँ पंछियों से रोज मुलाकात हो
मेरे आँगन में रोज उनकी आमद हो

मैं सितार सी बजती फिरूँ
उमंगों का संगीत रूह में बजता रहे
मन की अलंगनी पर
इक ख्वाब रोज नया सजता रहे

वो गली चौराहों पर
अपनेपन के ठहाके गूंजते मिलें
शहर शहर से गले मिल
किलकारियों से सजते मिलें
धर्म जाति से परे
भाईचारे के घुंघरू बजते मिलें

आमीन कहने की न दरकार रहे
यूँ आईनों के चेहरे शफ्फाक रहें
युद्ध के कान खींचकर
शांति बस यही कहे
आ अब लौट चलें
समय की धुरी पर इक नयी रौशन सभ्यता नर्तन करे


मंगलवार, 18 जून 2019

हम शर्मिंदा हैं


मरे हुए लोग हाय हाय नहीं करते
मरे हुए लोगों की कोई आवाज़ नहीं होती
मरे हुए लोगों की कोई कम्युनिटी नहीं होती
जो कोशिशों के परचम लहराए
और हरी भरी हो जाए धरा मनोनुकूल

आइये हम अपने लिए शांति पाठ करें
यूँ कहकर
हम शर्मिंदा हैं कि हम मर चुके हैं
बच्चों हम से कोई उम्मीद मत रखना
हम बस तुम्हारे लिए नहीं
स्वयं के लिए
स्वयं को साबित करने के लिए
दो शब्द लिखने को जिंदा होते हैं
और फिर मर जाते हैं

हम भूल चुके हैं
जब एक बच्चा मरता है
तब लाखों उम्मीदें मरती हैं
और करोड़ों संभावनाएं
मरे हुए लोगों को नहीं होता सरोकार किसी जीवित से
फिर एक मरे या सौ

मरना हमारे समय का सबसे सुभीता शब्द है
आइये मरने को राष्ट्रीय शब्द घोषित करें