आखिर कब तक सब पर दोषारोपण करूँ
तालाब की हर मछली तो ख़राब नहीं ना
फिर भी हर पल हर जगह
जब भी मौका मिला
मैंने तुम्हारी पूरी जाति को
कटघरे में खड़ा किया
जबकि जानती हूँ और मानती भी हूँ
पाँचों उँगलियाँ एक सी नहीं होतीं
मगर शायद बचपन से
यही मेरे संस्कारों में रोपा गया
एक डर के साथ
मेरे आत्मविश्वास को छला गया
मुझे निरीह प्राणी समझा गया
और मुझे अपने अस्तित्व की पहचान से
वंचित रखा गया
ये पीढ़ी दर पीढ़ी रोपित
एक छलावा ही शायद
हमेशा तुम्हारी पूरी जाति से
नफरत करता रहा
हर तरफ सिर्फ और सिर्फ
अंधियारों में फैले स्याह साए ही
मेरे डर को पुख्ता करते रहे
जबकि ऐसा हर जगह तो नहीं था ना
नहीं तो शायद ये संसार
ढोर डंगर से ज्यादा कुछ ना होता
पशुओं सा जीवन जी रहे होते सभी
जिसमे कोई रिश्ता नहीं होता
कोई मर्यादा नहीं होती
मगर ऐसा भी तो नहीं है ना
आज अवलोकन करने बैठी
तो लगा ये भी तो एक अन्याय ही है ना
क्योंकि जिसे हम हमेशा नकारते आये
जिसको हिकारत से देखते रहे
उसने ही तो पहल की ना हमारे उत्थान की
वो ही लड़ा सारे जहान से हमारे लिए
माना गिने चुने वजूदों ने ही
धरा का दामन अपवित्र किया
मगर उससे लड़ने का हमने भी तो
ना दुस्साहस किया
बल्कि उसके कृत्य से डर
अपने को अपनी शिराओं में
और समेट लिया
और शायद इसी संकुचन ने
हमें परावलम्बी बनाया
फिर उस दोज़ख से भी तो
तुम्ही ने बाहर निकालने की कवायद की
मेरे हौसलों को परवाज़ दी
एक नया आसमान दिखाया उड़ने के लिए
फिर कैसे सिर्फ तुम्हें ही
दोषी मान सजा दूं
कुछ वीभत्स मानसिकता वाले वजूदों के लिए
संपूर्ण जाति तो दोषी नहीं हो सकती ना
फिर कैसे हर कुकृत्य के लिए
सिर्फ तुम पर ही दोषारोपण करूँ ........ओ पुरुष !
कंकड़ पत्थरों को अलग करने के लिए
परिपाटियों को बदलने के लिए छलनी का होना भी जरूरी होता है ना ............