कितने धीमे से काटते हो गिरह
मालूम चलने का सवाल कहाँ
चतुराई यही है
और बेहोशी का दंड तो भोगना ही होता है
होश आने तक
ढल चुकी साँझ को
कौन ओढ़ाए अब घूंघट ?
एक मुश्किल सवाल बन सामने खड़े हो जाना
यही है तुम्हारा अंतिम वार
जिससे बचने को पूरी शक्ति भी लगा लो अब चाहे
काटना नियति है तुम्हारी
धीरे धीरे इस तरह रिता देना
कि बूँद भी न शेष बचे
जानते हो न
खाली कुओं से प्रतिध्वनियाँ नहीं आया करतीं
कितने बड़े गिरहकट हो तुम ............ ओ समय !!!
मालूम चलने का सवाल कहाँ
चतुराई यही है
और बेहोशी का दंड तो भोगना ही होता है
होश आने तक
ढल चुकी साँझ को
कौन ओढ़ाए अब घूंघट ?
एक मुश्किल सवाल बन सामने खड़े हो जाना
यही है तुम्हारा अंतिम वार
जिससे बचने को पूरी शक्ति भी लगा लो अब चाहे
काटना नियति है तुम्हारी
धीरे धीरे इस तरह रिता देना
कि बूँद भी न शेष बचे
जानते हो न
खाली कुओं से प्रतिध्वनियाँ नहीं आया करतीं
कितने बड़े गिरहकट हो तुम ............ ओ समय !!!