जीवन कब बदलता है
ये तो नज़रों का धोखा है
खुद से खुद को छलता है
यूँ ही उत्साह में उछलता है
ना कल बदला था
ना आज बदलेगा
ये तो जोगी वाला फेरा है
आने वाला आएगा
जाने वाला जाएगा
पगले तेरे जीवन में
क्या कोई पल ठहर जायेगा
जो इतना भरमाता है
खुद से खुद को छलता है
क्यूँ आस के बीज बोता है
क्यूँ उम्मीदों के वृक्ष लगाता है
क्या इतना नहीं समझ पाता है
हर बार खाता धोखा है
कभी ना कोई फल तुझे मिल पाता है
फिर भी हसरतों को परवान चढ़ाता है
आम जीवन कहाँ बदलता है
ये तो पैसे वालों का शौक मचलता है
तू क्यूँ इसमें भटकता है
क्यूँ खुद से खुद को छलता है
ना आने वाले का स्वागत कर
ना जाने वाले का गम कर
मत देखादेखी खुद को भ्रमित कर
तू ना पाँव पसार पायेगा
कल भी तेरा भाग्य ना बदल पायेगा
कर कर्म ऐसे कि
खुदा खुद तुझसे पूछे
कि बता कौन सा तुझे
भोग लगाऊं
कैसे अब तेरा क़र्ज़ चुकाऊँ
मगर तू ना हाथ फैला लेना
कर्म के बल को पहचान लेना
कर्मनिष्ठ हो कल को बदल देना
मगर कभी ना भाग्य के पंछी को
दिल में जगह देना
फिर कह सकेगा तू भी
नव वर्ष नूतन हो गया
मैंने खुद से खुद को जो जीत लिया
मैंने खुद से खुद को जो जीत लिया ............
शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
रविवार, 26 दिसंबर 2010
आहें सिलवटों की……………
ज़िन्दा हूं मैं...........
अब कहीं नही हो तुम
ना ख्वाब मे , ना सांसों मे
ना दिल मे , ना धडकन मे
मगर फिर भी देखो तो
ज़िन्दा हूं मैं
ज़िन्दगी...........
ओढ कर ज़िन्दगी का कफ़न
दर्द मे भीगूँ और नज़्म बनूँ
तेरी आहों मे भी सजूँ
मगर ज़िन्दगी सी ना मिलूँ
नींद .................
दर्द का बिस्तर है
आहों का तकिया है
नश्तरों के ख्वाब हैं
अब बच के कहाँ जायेगी
नींद अच्छी आयेगी ना
अंदाज़ ..............
प्रेम के बहुत अन्दाज़ होते हैं
सब कहाँ उनसे गुजरे होते हैं
कभी तल्ख कभी भीने होते हैं
सब मोहब्बत के सिले होते हैं
या मोहब्बत थी ही नहीं ...........
बेशक तुम वापस आ गये
मगर वीराने मे तो
बहार आई ही नही
कोई नया गुल
खिला ही नही
प्रेम का दीप
जला ही नही
शायद मोहब्बत
का तेल
खत्म हो चुका था
या मोहब्बत
थी ही नही
सोच मे हूं.........
अब कहीं नही हो तुम
ना ख्वाब मे , ना सांसों मे
ना दिल मे , ना धडकन मे
मगर फिर भी देखो तो
ज़िन्दा हूं मैं
ज़िन्दगी...........
ओढ कर ज़िन्दगी का कफ़न
दर्द मे भीगूँ और नज़्म बनूँ
तेरी आहों मे भी सजूँ
मगर ज़िन्दगी सी ना मिलूँ
नींद .................
दर्द का बिस्तर है
आहों का तकिया है
नश्तरों के ख्वाब हैं
अब बच के कहाँ जायेगी
नींद अच्छी आयेगी ना
अंदाज़ ..............
प्रेम के बहुत अन्दाज़ होते हैं
सब कहाँ उनसे गुजरे होते हैं
कभी तल्ख कभी भीने होते हैं
सब मोहब्बत के सिले होते हैं
या मोहब्बत थी ही नहीं ...........
बेशक तुम वापस आ गये
मगर वीराने मे तो
बहार आई ही नही
कोई नया गुल
खिला ही नही
प्रेम का दीप
जला ही नही
शायद मोहब्बत
का तेल
खत्म हो चुका था
या मोहब्बत
थी ही नही
सोच मे हूं.........
क्या कहूं
सोच मे हूं
रिश्ता था
या रिश्ता है
या अहसास हैं
जिन्हे रिश्ते मे
बदल रहे थे
या रिश्ता है
या अहसास हैं
जिन्हे रिश्ते मे
बदल रहे थे
रिश्ते टूट सकते है
मगर अहसास
हमेशा ज़िन्दा
रहते हैं
फिर चाहे वो
प्यार बनकर रहें
या …………
मगर अहसास
हमेशा ज़िन्दा
रहते हैं
फिर चाहे वो
प्यार बनकर रहें
या …………
बनकर
बुधवार, 22 दिसंबर 2010
अछूत हूँ मैं
तुम्हारे दंभ को हवा नहीं देती हूँ
तुम्हारी चाहतों को मुकाम नहीं देती हूँ
अपने आप में मस्त रहती हूँ
संक्रमण से ग्रसित नहीं होती हूँ
तुम्हारी बातों में नहीं आती हूँ
बेवजह बात नहीं करती हूँ
तुम्हारे मानसिक शोषण को
पोषित नहीं करती हूँ
कतरा कर निकाल जाते हैं सभी
शायद इसीलिए अछूत हूँ मैं
तुम्हारी चाहतों को मुकाम नहीं देती हूँ
अपने आप में मस्त रहती हूँ
संक्रमण से ग्रसित नहीं होती हूँ
तुम्हारी बातों में नहीं आती हूँ
बेवजह बात नहीं करती हूँ
तुम्हारे मानसिक शोषण को
पोषित नहीं करती हूँ
कतरा कर निकाल जाते हैं सभी
शायद इसीलिए अछूत हूँ मैं
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
बिखरे टुकडे
कौन कमबख्त बडा होना चाहता है
हर दिल मे यहाँ मासूम बच्चा पलता है
इज़हार कब शब्दो का मोहताज़ हुआ है
ये जज़्बा तो नज़रों से बयाँ हुआ है
अब और कुछ कहने की जुबाँ ने इजाज़त नही दी
कुछ लफ़्ज़ पढे, लगा तुम्हें पढा और खामोश हो गयी
अदृश्य रेखाएं
कब दृश्य होती हैं
ये तो सिर्फ
चिंतन में रूप
संजोती हैं
अलविदा कह कर
चला गया कोई
और विदा भी ना
किया जनाजे को
आखिरी बार कब्र तक!
ये कैसी सज़ा दे गया कोई
यूँ दर्द को शब्दों में पिरो दिया
मगर मोहब्बत को ना रुसवा किया
ये कौन सा तूने मोहब्बत का घूँट पिया
जहाँ फरिश्तों ने भी तेरे सदके में सजदा किया
हर दिल मे यहाँ मासूम बच्चा पलता है
इज़हार कब शब्दो का मोहताज़ हुआ है
ये जज़्बा तो नज़रों से बयाँ हुआ है
अब और कुछ कहने की जुबाँ ने इजाज़त नही दी
कुछ लफ़्ज़ पढे, लगा तुम्हें पढा और खामोश हो गयी
अदृश्य रेखाएं
कब दृश्य होती हैं
ये तो सिर्फ
चिंतन में रूप
संजोती हैं
अलविदा कह कर
चला गया कोई
और विदा भी ना
किया जनाजे को
आखिरी बार कब्र तक!
ये कैसी सज़ा दे गया कोई
यूँ दर्द को शब्दों में पिरो दिया
मगर मोहब्बत को ना रुसवा किया
ये कौन सा तूने मोहब्बत का घूँट पिया
जहाँ फरिश्तों ने भी तेरे सदके में सजदा किया
बुधवार, 15 दिसंबर 2010
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब चाँद से आग बरसती हो
और रूह मेरी तडपती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब आस का दिया बुझता हो
और सांस मेरी अटकती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब सफ़र का अंतिम पड़ाव हो
और आँखों मेरी पथरायी हों
मुमकिन है तुम आ जाओ
अच्छा चलते हैं अब
सुबह हुयी तो
फिर मिलेंगे
और रूह मेरी तडपती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब आस का दिया बुझता हो
और सांस मेरी अटकती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ
जब सफ़र का अंतिम पड़ाव हो
और आँखों मेरी पथरायी हों
मुमकिन है तुम आ जाओ
अच्छा चलते हैं अब
सुबह हुयी तो
फिर मिलेंगे
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
क्या यही मोहब्बत होती है ?
वो आते हैं
कुछ देर
बतियाते हैं
अपनी सुनाते हैं
और चले जाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
अपनी बेचैनियाँ
बयां कर जाते हैं
दर्द की सारी तहरीर
सुना जाते हैं
मगर
हाल-ए-दिल ना
जान पाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
सिर्फ कुछ पलों
का तसव्वुर
वो भी ख्वाब सा
बिखर जाता है
जब जाते- जाते
एक नया ज़ख्म
दे जाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
कुछ देर
बतियाते हैं
अपनी सुनाते हैं
और चले जाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
अपनी बेचैनियाँ
बयां कर जाते हैं
दर्द की सारी तहरीर
सुना जाते हैं
मगर
हाल-ए-दिल ना
जान पाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
सिर्फ कुछ पलों
का तसव्वुर
वो भी ख्वाब सा
बिखर जाता है
जब जाते- जाते
एक नया ज़ख्म
दे जाते हैं
क्या यही मोहब्बत होती है ?
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
फिर कैसे कहते हो ज़िन्दा है आदमी?
कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा -थोडा
मरता है आदमी
एक बार तब मरता है
जब अपनों के दंश
सहता है आदमी
कभी मान के
कभी अपमान के
कभी धोखे के
कभी भरोसे के
स्तंभों को रोज
तोड़ता है आदमी
फिर भी मर -मर कर
रोज़ जीता है आदमी
कैसे कहते हो
मर गया है आदमी
क्या मौत का आना ही
मरना कहलाता है
जो इक -इक पल में
हज़ार मौत मरता है आदमी
वो क्या जीता कहलाता है आदमी?
जिनके लिए जीता था
उन्ही के गले की फँस हो जाये
जब अपनों की दुआओं में
मौत की दुआ शामिल हो जाये
उस पल मौत से पहले
कितनी ही मौत मरता है आदमी
फिर कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा- थोडा
मरता है आदमी
मरता है आदमी ...............
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा -थोडा
मरता है आदमी
एक बार तब मरता है
जब अपनों के दंश
सहता है आदमी
कभी मान के
कभी अपमान के
कभी धोखे के
कभी भरोसे के
स्तंभों को रोज
तोड़ता है आदमी
फिर भी मर -मर कर
रोज़ जीता है आदमी
कैसे कहते हो
मर गया है आदमी
क्या मौत का आना ही
मरना कहलाता है
जो इक -इक पल में
हज़ार मौत मरता है आदमी
वो क्या जीता कहलाता है आदमी?
जिनके लिए जीता था
उन्ही के गले की फँस हो जाये
जब अपनों की दुआओं में
मौत की दुआ शामिल हो जाये
उस पल मौत से पहले
कितनी ही मौत मरता है आदमी
फिर कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा- थोडा
मरता है आदमी
मरता है आदमी ...............
सोमवार, 6 दिसंबर 2010
अनुपम उपहार हो तुम
नव कोपल
से नर्म एहसास सी
तुम
प्रकृति की सबसे अनुपम
उपहार हो मेरे लिए
वो ऊषा की पहली किरण सा
मखमली अहसास हो तुम
जाने कौन देस से आयीं
मेरे जीवन प्राण हो तुम
ओस की
पारदर्शी बूंद सी
तुम श्रृंगार हो
प्रकृति की
मगर मेरे मन के
सूने
आंगन की
इकलौती आस हो तुम
से नर्म एहसास सी
तुम
प्रकृति की सबसे अनुपम
उपहार हो मेरे लिए
वो ऊषा की पहली किरण सा
मखमली अहसास हो तुम
जाने कौन देस से आयीं
मेरे जीवन प्राण हो तुम
ओस की
पारदर्शी बूंद सी
तुम श्रृंगार हो
प्रकृति की
मगर मेरे मन के
सूने
आंगन की
इकलौती आस हो तुम
गुनगुनी धूप के
रेशमी तागों की
फिसलती धुन पर
थिरकता
परवाज़ हो तुम
पर मेरे लिए
ज़िन्दगी का
सुरमई साज़ हो तुम
शनिवार, 4 दिसंबर 2010
हाँ , मैंने गुनाह किया
हाँ ,
मैंने गुनाह किया
जो चाहे सजा दे देना
जिस्म की बदिशों से
रूह को आज़ाद कर देना
हँसकर सह जाऊँगा
गिला ना कोई
लब पर लाऊंगा
नहीं चाहता कोई छुडाये
उस हथकड़ी से
नहीं कोई चाहत बाकी अब
सिवाय इस एक चाह के
बार- बार एक ही
गुनाह करना चाहता हूँ
और हर बार एक ही
सजा पाना चाहता हूँ
हाँ , सच मैं
आजाद नहीं होना चाहता
जकड़े रखना बँधन में
अब बँधन युक्त कैदी का
जीवन जीना चाहता हूँ
बहुत आकाश नाप लिया
परवाजों से
अब उड़ने की चाहत नहीं
अब मैं ठहरना चाहता हूँ
बहुत दौड़ लिया ज़िन्दगी के
अंधे गलियारों में
अब जी भरकर जीना चाहता हूँ
हाँ ,मैं एक बार फिर
'प्यार' करने का
गुनाह करना चाहता हूँ
प्रेम की हथकड़ी से
ना आज़ाद होना चाहता हूँ
उसकी कशिश से ना
मुक्त होना चाहता हूँ
और ये गुनाह मैं
हर जन्म ,हर युग में
बार- बार करना चाहता हूँ
मैंने गुनाह किया
जो चाहे सजा दे देना
जिस्म की बदिशों से
रूह को आज़ाद कर देना
हँसकर सह जाऊँगा
गिला ना कोई
लब पर लाऊंगा
नहीं चाहता कोई छुडाये
उस हथकड़ी से
नहीं कोई चाहत बाकी अब
सिवाय इस एक चाह के
बार- बार एक ही
गुनाह करना चाहता हूँ
और हर बार एक ही
सजा पाना चाहता हूँ
हाँ , सच मैं
आजाद नहीं होना चाहता
जकड़े रखना बँधन में
अब बँधन युक्त कैदी का
जीवन जीना चाहता हूँ
बहुत आकाश नाप लिया
परवाजों से
अब उड़ने की चाहत नहीं
अब मैं ठहरना चाहता हूँ
बहुत दौड़ लिया ज़िन्दगी के
अंधे गलियारों में
अब जी भरकर जीना चाहता हूँ
हाँ ,मैं एक बार फिर
'प्यार' करने का
गुनाह करना चाहता हूँ
प्रेम की हथकड़ी से
ना आज़ाद होना चाहता हूँ
उसकी कशिश से ना
मुक्त होना चाहता हूँ
और ये गुनाह मैं
हर जन्म ,हर युग में
बार- बार करना चाहता हूँ
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
सिर्फ़ एक बार खुद से रोमांस करने की कोशिश करना……………………250वीं पोस्ट
जब दुनिया की हर शय सिमटने लगे
जब अपने ही तुझको झिड़कने लगें
तेरा मयखाना खाली होने लगे
हर रंग बदरंग होने लगे
तू खुद से बेपरवाह होने लगे
राहें सभी बंद होने लगें
जब ज़िन्दगी भी दोज़ख लगने लगे
कायनात का आखिरी चिराग भी बुझने लगे
तेरा नसीबा भी तुझपे हंसने लगे
जब उम्मीदों के चराग बुझने लगें
तकदीर की स्याह रात वक्त से लम्बी होने लगे
अपने साये से भी डर लगने लगे
ज़िन्दगी से मौत सस्ती लगने लगे
उस वक्त तुम इतना करना
इक पल रुकना
खुद को देखना
मन के आईने में
आत्मावलोकन करना
और सब कुछ भुलाकर
सिर्फ एक बार
खुद से रोमांस करने
की कोशिश करना
देखना ज़िन्दगी तेरी
सँवर जाएगी
दुनिया ही तेरी बदल जाएगी
जो बेगाने नज़र आते थे
अपनों से बढ़कर नज़र आयेंगे
तेरे दिल की बगिया के
सुमन सारे खिल जायेंगे
जीने के सभी रंग
तुझको मिल जायेंगे
बस तू एक बार खुद से
रोमांस करने की कोशिश तो करना ......................
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