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शनिवार, 30 जुलाई 2016

हंगामा है क्यों बरपा


जाने कितने सच इंसान अपने साथ ही ले जाता है . वो वक्त ही नहीं मिलता उसे या कहो हिम्मत ही नहीं होती उसकी सारे सच कहने की . यदि कह दे तो जाने कितना बड़ा तूफ़ान आ जाए फिर वो रिश्ते हों , राजनीति हो या फिर साहित्य ....

साहित्य के सच कहने वाले अक्सर अलग थलग पड़ जाते हैं , अछूत की सी श्रेणी में आ जाते हैं और क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो अकेला रहना नहीं चाहता इसलिए बन जाता है नीलकंठ और धारण कर लेता है अपने गले में गरल , जिसे उम्र भर न निगल पाता है और न ही उगल ....

ये है साहित्यजगत का सच , उसका असली चेहरा . शायद यही कारण है यहाँ अक्सर गुट बनते हैं , गुटबाजी होती है . खेमे बनते हैं , संघ बनते हैं . आखिर जिंदा रहने को साथ का टॉनिक जरूरी होता है . उससे और कुछ हो न हो अन्दर का मैं तो संतुष्ट हो ही जाता है . हाँ सराहा जा रहा हूँ मैं . हाँ पहचान बन गयी है मेरे लेखन की . तो क्या हुआ जो जुगाड़ का दांव खेला और अन्दर कर लिए दो चार पुरस्कार . जिंदा रहना जरूरी है . सांस लेना जरूरी है फिर उसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े . आजकल कौन है जो  तलवे नहीं चाटता . तो क्या हुआ यदि हमने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया . उससे गंगा मैली थोड़े न हो गयी . बस जीने को कुछ साँसें मयस्सर हो गयीं . वैसे भी कहा गया है ... सांस है तो आस है .

ऐसे सच का क्या फायदा जो भ्रम में भी न जीने दे . जीने के लिए भ्रमों का होना जरूरी है .फिर गुजर जाती है ज़िन्दगी सुकून से बिना किसी जद्दोजहद के . वैसे भी नाम होना जरूरी है फिर सुमार्ग पर चलो या कुमार्ग पर . और साहित्य में कोई कुमार्ग होता ही नहीं . सभी सुमार्ग ही हैं आखिर हमारे पूर्वज बनाकर गए हैं तो कैसे संभव है वो कभी कुमार्ग पर चले हों और उनका अनुसरण करना ही हमारे देश की संस्कृति है .

जिस कार्य को करने से संतोष मिले , दिमाग शांत रहे और हर मनोकामना पूरी होती जा रही हो वो कैसे गलत हो सकता है भला . वो कहते हैं न काम वो ही करना चाहिए जिससे मानसिक शांति मिले . अब वो ही कर रहे हैं तो हंगामा है क्यों बरपा . चोरी तो नहीं की डाका तो नहीं डाला . अपना मार्ग ही तो चुना है . अब कौन सच से आँख मिला खुद को निष्कासित करे साहित्यजगत से . ये तो खुद अपना पैर कुल्हाड़ी पर रखना हुआ . हाँ नहीं तो ........



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ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है, ये किसी भी अन्य लेख या बौद्धिक संम्पति की नकल नहीं है।
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©वन्दना गुप्ता vandana gupta  

रविवार, 24 जुलाई 2016

'इन्द्रप्रस्थ' ... मेरी नज़र से



जाने माने कवि उपेन्द्र कुमार जी द्वारा मुझे बहुत ही सम्मान के साथ उनके द्वारा लिखा कविता संग्रह 'इन्द्रप्रस्थ' भेजा गया जो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है जो उन्होंने मुझे इस काबिल समझा . उसे पढ़कर जो मेरे मन में प्रतिक्रिया उभरी वो आप सबके समक्ष हैं :

अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित कवि उपेन्द्र कुमार द्वारा लिखित कविता संग्रह ‘इन्द्रप्रस्थ’ अपने समय से संवाद कर रहा है . इन्द्रप्रस्थ सबसे पहले नाम ही मानो सम्पूर्ण खाका खींच रहा है अतीत से वर्तमान के मध्य सेतु बन . यहाँ इन्द्रप्रस्थ के जाने कितने अर्थ समेटे हैं कवि ने . माध्यम इन्द्रप्रस्थ है मगर सबके अपने ही इन्द्रप्रस्थ हैं . इन्द्रप्रस्थ कोई जमीन का टुकड़ा नहीं . इन्द्रप्रस्थ एक सुलगता हुआ सवाल है जिसमे हर पात्र अपने अपने नज़रिए से खुद को सही सिद्ध करने को जुटा है या कहिये एक ऐसा दृष्टिकोण जो अब तक ओझल रहा या फिर जिस पर कहने की सबकी सामर्थ्य नहीं सिर्फ ये सोच धार्मिक भावनाएं आहत हो जायेंगी या फिर हम कैसे इतिहास को तोड़ मरोड़ सकते हैं . अनेकानेक प्रश्न बेशक उठें लेकिन कहने के लिए हिम्मत का होना तो जरूरी है ही साथ ही उन भावनाओं का होना भी जो उस दृष्टिकोण से देखने की कोशिश कर सकें . स्त्री विमर्श मानो नींव है कविता संग्रह की लेकिन कहीं कोई शोर नहीं , सिर्फ प्रश्न उछाल देना और सोचने पर विवश कर देना यही है कवि के मन का इन्द्रप्रस्थ जहाँ वो स्वतंत्र है अपने दृष्टिकोण को व्यापकता देने को , स्त्री के सन्दर्भों को समझने को और फिर उनकी सूक्षमता को व्याख्यातित करने को .

अक्सर चुप्पी साध जाने वाला विषय है ये . यहाँ स्त्री यौनिकता आधार है सम्पूर्ण संग्रह का फिर माध्यम चाहे कोई भी पात्र क्यों न हो . युधिष्ठिर हो या अर्जुन या फिर कर्ण हो या कुंती कौन ऐसा था जिसका अपना स्वार्थ न था और द्रौपदी एक सुलगती चिता जिससे सब हाथ तो सेंक रहे हैं लेकिन उसकी पीड़ा को नज़रंदाज़ भी कर रहे हैं . सुलगना स्त्री की नियति है – प्रमाणित किया जा रहा है कदम – दर – कदम . कौन नहीं जानता महाभारत की कहानी . सभी जानते हैं फिर ऐसा क्या था जिसने कवि को लिखने को प्रेरित किया यही सोचने का विषय है . और जब संग्रह पढो तो पता चलता है यहाँ तो कवि का एक अलग ही इन्द्रप्रस्थ है जिसमे द्रौपदी को पाने की चाह में हर कोई अन्याय की पराकाष्ठा को पार करता ही चला गया और द्रौपदी वस्तु सी सबमे बंटती चली गयी , जानते हैं हम सभी . लेकिन उससे अलग क्या है ? उससे अलग है द्रौपदी की चाह जहाँ उसका प्रेम एक सम्पूर्णता पाता है जिसे कवि ने ‘मोर नाचते हैं’ के माध्यम से उकेरा है . ‘प्रेमी मिलन की राह खोज ही लेते हैं’ ... इस वाक्य को मानो कवि ने सिद्ध करना चाहा है तब जब एक एक वर्ष द्रौपदी के साथ रहने की भाइयों में ठहरती है . यहाँ द्रौपदी खोजती है अपने प्रेम को मुकाम देने का उपाय . एक भिन्न उपाय जो शायद अब से पहले किसी की दृष्टि में आया ही नहीं . रात्रि में ही तो शयनकक्ष में किसी भी भाई का आगमन वर्जित है लेकिन है तो वो सबकी पत्नी तो दिन में तो पाँचों उसके पति हैं और ऐसे में अर्जुन विशेष , क्योंकि वो ही तो है उसके प्रेम का मूलाधार . और प्रेम कब सही गलत देखता है . उसे तो अपने प्रियतम से क्षणिक जुदाई बर्दाश्त नहीं होती ऐसे में जरूरी है मिलन तो खोजा गया उपाय दिन में मिलने का . दिन में अपने सब मनोरथ पूर्ण करने का . यहाँ सब मनोरथ में सभी मनोरथ शामिल हैं फिर वो दैहिक हों या आत्मिक . एक स्त्री आखिर कैसे संभव है पांच पुरुषों से समान भाव से सम्भोग कर सके . जिसके प्रति प्रेम और निष्ठा होगी वहीँ प्रेम की सम्पूर्णता होती है और वहीँ प्रेम पूर्णता से आकार जब पाता है तभी एक स्त्री पूर्णतया संतुष्ट होती है . बेशक पांच में से चार के साथ सम्भोग करना उसकी मजबूरी ही सही लेकिन वहां न वो उद्दतता होती है और न ही उत्कंठा और न ही रोमांच . तो क्या वो सम्भोग हुआ ? क्या वो एक तरह से बलात्कार सरीखा न हुआ जहाँ न वो तन से शामिल है न मन से . और होता रहा एक स्त्री का शोषण और हम गा रहे हैं उसे उस समय का सुनहरा पक्ष समझ बिना जाने सन्दर्भों को और उनकी सूक्ष्मताओं को . बेशक द्रौपदी स्त्री थी लेकिन जानती थी कैसे पाना है अपना अभीष्ट . खोज लिया उसने रास्ता . यहाँ प्रश्न उठेगा कि कैसे संभव है अन्य भाइयों या कुंती को इस बारे में पता न हो . बेशक उन्हें पता होगा लेकिन गलती उन्होंने की थी . सब भाई चाहते थे द्रौपदी को पाना तभी ये जानते हुए भी कि वो स्वयंवर में गए हैं तो जो लायेंगे तो उस कन्या का वरण करके ही लायेंगे , कुंती सिर्फ अपने अभीष्ट को पाने हेतु उसे वस्तु स्वरुप पाँचों भाइयों में बाँट देने का निर्णय दे देती है जिस पर धर्मराज कहाए जाने वाले युधिष्ठिर मोहर लगाते हैं क्योंकि कहीं न कहीं आसक्त हो उठे थे वो भी उसके रूप लावण्य पर . वहां कौन ऐसा था जो द्रौपदी की रूप राशि से प्रभावित न हुआ हो या उस पर आसक्त न हुआ हो . शायद यही कारण था युधिष्ठिर एक तर्कसंगत विद्रोह नहीं करते तो कैसे जानते हुए भी प्रतिकार कर सकते थे द्रौपदी के अभीष्ट का क्योंकि जो छुपा रहता है तभी तक सही है सामने आने पर उन सबके सत्य भी सामने आ जाते तो शायद कोई किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही नहीं रहता . शायद यही मुख्य वजह रही हो सबके चुप रहने की और द्रौपदी और अर्जुन ने अपना अभीष्ट अपने तरीके से पाया हो . तभी कवि कहता है :
“तय हो गया कि दिन उनके हैं / रात चाहे बारी वाले किसी भी पति की हो / अन्याय के प्रतिकार का यही था एकमात्र रास्ता”  
संभव सब कुछ है क्योंकि अतीत में क्या हुआ कौन जानता है ? वैसे भी इतिहास में जो दर्ज होता है वो कभी पूरा सत्य नहीं होता .
कामना हो या वासना जब तक पूरी नहीं होतीं दग्ध करती ही रहती हैं . ऐसा ही मानो कवि कहना चाहता है ‘चुम्बन ही चुम्बन’ कविता द्वारा जब द्रौपदी स्वप्न में ही कामक्रीड़ारत हो जाती है अर्जुन संग . इस चित्र को खींचने में कवि ने बेशक कहीं त्याज्य शब्दों का प्रयोग नहीं किया जो भौंडापन आता लेकिन जिस खुलेपन से चित्र को खींचा है वो कवि की निर्भीकता को दर्शाता है . आज के समय में रतिक्रिया पर लिखना एक बेहद साहसपूर्ण कार्य कहा जाता है और कवि ने उस साहस का निर्वाह कुछ ऐसे किया विपरीत रति के माध्यम से जो अक्सर कहने से हर कोई झिझकता है . वैसे ही इस सब्जेक्ट पर लिखना स्वीकार्य नहीं होता उस पर पुरुष द्वारा न होकर रतिक्रिया स्त्री द्वारा आकार पाए तो कहा ही जायेगा साहसिक कार्य . सम्पूर्ण कामुकता का दर्शन कराया है कवि ने . लेकिन क्या ये संभव नहीं ? प्रश्न उठता है . क्यों नहीं , आखिर द्रौपदी एक स्त्री थी , उसमे भी कोमल भावनाएं थीं तो कैसे संभव है वो उनसे अछूती रहती . फिर अन्य चार पतियों से कब संतुष्ट हो पायी होगी ? और जब स्त्री संतुष्ट नहीं होती तो खिन्नता आकार लेती है और मानो उसी से निजात पाने को जब वो ख्यालों में डूबती होगी अर्जुन के क्योंकि वो ही उसका पहला और आखिरी प्रेम था तो क्या संभव नहीं वो उन ख्यालों में या उन स्वप्नों में जो दिन में भी साकार हो उठते होंगे , उनमे रतिक्रीड़ा में रत हो जाती हो . संभव है ये भी . मानो कवि कहना चाहता है कामभावना सबमे समान होती है फिर वो स्त्री हो या पुरुष और जब वो संतुष्टि नहीं मिलती तो मानसिक रति भी आधार बन सकती है . वहीँ मानो कवि ये कहना चाहता हो कि कितनी उद्दात्त थी द्रौपदी की प्रेम भावना जो स्वप्न में भी सिर्फ अर्जुन का ही साहचर्य चाहती थी कहने को उसके अन्य चार पति और भी थे लेकिन रतिक्रिया में संतुष्टि अर्जुन से ही मिलती होगी . संग्रह का ये टुकड़ा ‘चुम्बन ही चुम्बन’ जाने कितनी खिड़कियाँ खोल देता है . एक तरफ तो द्रौपदी का प्रेम तो दूसरी तरफ उसकी कामासक्ति , कितनी गहन अंतर्वेदना से गुजरी होगी शायद कोई सोच भी नहीं सकता . स्त्री यौनिकता पर कब कोई सोचना चाहता है फिर कहना तो बहुत दूर की बात होती है और कवि ने न केवल सोचा बल्कि कहा भी . स्त्री वहीँ संतुष्टि पाती है जहाँ प्रेम आधार होता है मिलन का , जहाँ धैर्य होता है न कि सिर्फ स्खलन तक ही सम्भोग . जैसा कि उसके अन्य पतियों के साथ होता होगा . एक साहसपूर्ण विचार दिया है कवि ने सोचने को लेकिन इसके साथ ये भी कहना चाहूँगी यदि यही बात एक स्त्री ने कही होती तो अब तक साहित्य जगत में जाने कितना बड़ा हंगामा हो गया होता . यही अंतर है स्त्री और पुरुष में और उसके लेखन के प्रति यहाँ बैठे पुरोधाओं की सोच में . क्योंकि भुक्तभोगी हूँ इसलिए समझ सकती हूँ . स्त्री पुरुष मिलन की प्रथम बेला का कभी मैंने भी वर्णन किया था कविता में तो कहा गया ऐसा लिखना साहित्य में वर्जित है और आज जब एक पुरुष ने लिखा तो सब स्वीकार्य है जो यही दर्शा रहा है कितना बड़ा फर्क है आज भी दृष्टिकोण में . शायद वो ही बीज सदियों से चले आ रहे हैं महाभारतकाल से ही तभी स्त्री पुरुष का भेद कभी मिट ही नहीं सका . यहाँ अपना सन्दर्भ देने का यही उद्देश्य है कि आज चाहे कहने को कितने ही हम आधुनिक हो गए हों सोच से वो ही सामंती सोच के मालिक हैं . जब आज ये हाल है तो उस समय स्त्री की क्या दशा होगी सोची जा सकती है लेकिन साथ ही एक दूसरा पक्ष भी निकल कर आता है कि थीं कुछ स्त्रियाँ उस समय में भी काफी बोल्ड जो अपने निर्णयों को कार्यन्वित करना जानती थीं फिर वो कुंती हो या द्रौपदी .

कैसा विचित्र संयोग /पुरुरवा,नहुष,ययाति /जैसे महाप्रतापी परन्तु कामांध/नृपों की कहानी / बार बार दुहराता रहा इन्द्रप्रस्थ / जहाँ किया गया स्त्री मर्यादा का बार बार अपहरण / उसकी इच्छाओं /उसके अधिकारों/ उसकी स्वायतत्ता का / किया गया बार बार हनन /झेला देवियों , महारानियों और देवियों ने / हर बार वही संताप दुःख और अवमानना / छली स्वार्थी प्रपंची पुरुषों के हाथ
‘आवश्यक है इन्द्रप्रस्थ’ में कवि ने न केवल ऊपर लिखित व्याख्या दी बल्कि उस समय के राजाओं के चरित्रों को भी बखूबी उधेडा है मानो कवि कहना चाहता है जो भी हुआ कहीं न कहीं राजाओं के स्त्री पर किये गए छल और अत्याचार ही वो नींव बने जिन पर भविष्य की लडखडाती ईमारत बनी जिसे एक दिन ध्वस्त होना ही था और हुई . कामवासना मानो उस समय के राजाओं का मुख्य शगल था और स्त्री सिर्फ संपत्ति या वस्तु तो उसके उपयोग का उन्हें पूर्ण अधिकार था , जब ऐसी सोच राजा की होगी तो कैसे संभव है वहां धर्म और न्याय का होना . वही संस्कार पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते गए और कुरुक्षेत्र का कारण बने . अपने स्वार्थ और अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए वो किसी भी हद तक जा सकते थे और यही तो हुआ द्रौपदी के साथ जब युधिष्ठिर ने उसे दांव पर लगा दिया अपनी संपत्ति समझ . लेकिन यहीं एक ख्याल यहाँ ये भी आता है मानो युधिष्ठिर को मौका मिला था द्रौपदी से बदला लेने का , जैसा कि कवि ने चित्रित किया है कि वो दिन में अर्जुन से मिला करती थी तो क्या ये एक सम्राट से छुपा रहा होगा , जानते सब थे लेकिन चुप थे और खामोशी से उस ज़हर को पी रहे थे और अब मौका था तो कैसे युधिष्ठिर जाने देता , आखिर था वो भी पुरुष , जो हो गया था द्रौपदी को देखते ही उस पर आसक्त , तो ये भी संभव है उसने इस तरह अपमानित कर बदला लिया हो , ये मेरा दृष्टिकोण है कवि का नहीं , लेकिन जो कवि की दृष्टि है ये उसी को आगे बढ़ा रहा है और शायद ऐसा हुआ भी हो क्योंकि यदि द्रौपदी ऐसा सोच सकती है तो युधिष्ठिर क्यों नहीं ?

परन्तु पाप था बाकि चारों के मन में अर्जुन असमंजस में /कौन सुनता द्रुपद के द्वारा उठाये नैतिकता , धर्म और न्याय के प्रश्नों को /और देता समुचित समाधान /पूछता कौन द्रुपद के स्वर में स्वर मिला / क्या लागू रहेगा यही नियम/ भविष्य में भाइयों द्वारा किए गए अन्य विवाहों पर ?
‘जब तक जीवन है’ के माध्यम से ऊपर लिखित प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं . साथ ही युधिष्ठिर को बेशक इतिहास में धर्म का प्रतीक दिखाया गया हो लेकिन थे बहुत कमजोर . कामवासना से ग्रस्त ऐसा राजा जो न चाहते हुए भी सब पाना भी चाहता था बस कहता नहीं था लेकिन हाथ आया अवसर गंवाना भी नहीं चाहता था तभी तो उनकी बुद्धि और विवेक सब धरे के धरे रह जाते थे वासना के अंधड़ में तो दूसरी तरफ प्रतिशोध के अंधड़ में लगा दी द्रौपदी भी दांव पर . 

‘माँ जानती थी’ के माध्यम से कवि ने न केवल अर्जुन के मन की पीड़ा को उकेरा है बल्कि अलिखित समझौते पर उसके द्वारा किया गया अमर्यादित हस्ताक्षर के माध्यम से कुंती पर भी आक्षेप किया है . मानो कवि अर्जुन के माध्यम से कहना चाहता हो , अर्जुन तुमने अभी अपनी माँ को जाना ही कहाँ है ? यद्यपि वो जानती थी स्वयंवर में गए हैं तो जीतेंगे ही तथापि ऐसा कहना कि आपस में बाँट लो , अर्जुन को सोचने पर बेशक विवश करे लेकिन कहीं भी किसी ने भी द्रौपदी को इंसान नहीं समझा . सिर्फ वस्तु या संपत्ति फिर वो कुंती हो या उसके पाँचों पति , इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी ?

‘लहरों में खड़ी’ कुंती के जीवन का मुख्य बिंदु है . शायद रख दी थी नींव समय ने यहीं से महाभारत की . एक तरफ कुंती को बोल्ड दिखाया गया है जो अपनी मर्ज़ी से सूर्य के साथ सहवास करती है और पूर्ण तृप्ति पाती है तभी कर्ण से पुत्र को जन्म दे पाती है और यही बोल्डनेस आगे भी देखने को मिलती है जब पांडू सहवास में असमर्थ होते हैं तो राज्य का लालच उसे फिर अन्य देवताओं के साथ सहवास करने को उकसाता है और वो अपना अभीष्ट प्राप्त करके ही रहती है . मानो कवि कहना चाहता हो ऐसी स्त्रियाँ जो अपने निर्णय स्वयं लेती हैं उनके लिए ये एक आम बात होती है कि जिस पुरुष पर आप आसक्त हो उससे जब चाहे सम्बन्ध बना सकते हो या फिर अपना कोई अभीष्ट सिद्ध होता हो तो सम्बन्ध बनाने में हर्ज नहीं समझतीं तभी तो अपने अभीष्ट को प्राप्त करने हेतु वो एक पल नहीं लगाती द्रौपदी को पांच पुरुषों में बांटने में . उसके लिए आम बात है क्योंकि जो प्राप्त करना है उसके लिए ऐसा करना ही होगा वहां भावनाओं और नैतिकता का कोई स्थान नहीं . मानो बस यहीं तक है कुंती की धारणा . मानो कवि कहना चाहता हो उसके लिए सती सावित्री वाली इमेज महज एक ढकोसला है . स्वतंत्रता और अधिकार ही मायने रखते हैं . जो आज तक स्त्रीत्व के गुण गाये गए हैं उन सबसे परे है कुंती फिर चाहे उसके लिए उसे कितनी ही धिक्कार सहनी पड़े , नैतिकता आदि शब्द बस शब्द ही हैं , उनसे उसका कोई सरोकार नहीं . जैसा कि आजकल हो रहा है शायद वही उस वक्त कुंती ने किया था जो उस वक्त स्वीकार्य नहीं था .

वहीँ एक ख्याल और मेरे जेहन में उठता है मानो कुंती ने ही द्रौपदी को वो राह दिखाई हो और कहा हो बाद में कि बेशक तुम्हारे अन्दर अर्जुन के लिए कोमल भावनाएं हैं इसलिए चाहो तो दिन तुम्हारा है सिर्फ रात भर की ही तो बात है . तुम दिन में अपना समय जिसके साथ जैसे चाहे गुजार सकती हो और तब आसान हो गयी हो द्रौपदी की राह क्योंकि कुंती जानती समझती तो सब थी ही और उसके लिए वैसे भी एक हो या चार कोई फर्क नहीं पड़ता था इसलिए ऐसी सलाह देना आसान था . क्योंकि जिस हिसाब से कुंती को इतना बोल्ड शुरू से दिखाया गया है और उसके निर्णयों का कोई यदि उल्लंघन नहीं कर सकता था तो कैसे संभव था अर्जुन और द्रौपदी का दिन में मिलना ? कहीं न कहीं कुंती की सहमती रही ही होगी और मूँद ली होंगी उसने आँखें इस तरफ से क्योंकि उसका लक्ष्य बहुत बड़ा था और स्त्री कामवासना की तृप्ति के लिए जरूरी था उसे भी तृप्त रखना . एक कुशल राजनीतिज्ञ की भांति मानो कुंती चाल पर चाल चल रही थी . एक पक्ष ये भी हो सकता है . 

‘कुल और गोत्र’ और ‘देखे मैंने उन आँखों से’ के माध्यम से कवि ने नया सिर्फ एक ही पहलू रचा है और बाकि सब तो सबका सुना पढ़ा जा चुका है कि कैसे कर्ण के मन में द्रौपदी के प्रति द्रुपद लालसा उत्पन्न करवाते हैं और बाद में कृष्ण के कहने पर अपमानित किया जाता है . 

अंत में ‘प्रत्येक स्त्री का इन्द्रप्रस्थ’ के माध्यम से द्रौपदी के ह्रदय की व्यथा को चित्रित किया गया है . वहां वही प्रश्न दस्तक दे रहे हैं जो अनंतकाल से हर बुद्धिजीवी उठा रहा है लेकिन पितृ सत्तात्मक समाज सब जानते बूझते भी उन्हें तवज्जो नहीं देना चाहता सिर्फ अपने एकाधिकार के लिए . लेकिन द्रौपदी जिसने इतना तिरस्कार , अपमान सहा मानो वो छोड़ जाना चाहती है अपने बीज इसी संसार में ताकि आने वाली पीढ़ी को उनसे दो चार न होना पड़े मानो कहना चाहती है , “उठो स्त्री, खुद मुख्तार बनो , मत धर्म/परंपरा के नाम पर व्यभिचार की शिकार बनो .” बस इतना ही कहना चाहता है कवि बेहद दुखी मन से .

सम्पूर्ण काव्य संग्रह स्त्री के स्त्री होने की सजा का एक जीवंत उदाहरण बनकर उभरा है . स्त्री होना अभिशाप नहीं लेकिन अतीत ने ऐसे बीज बोये आज तक वो ही फसलें कट रही हैं शायद यही वजह रही हो कवि मन के आहत होने की और फिर लिया हो संभावनाओं ने जन्म जब सोच का दरिया ठाठें मारने लगा हो . यूँ ही तो नहीं लिखी जाती कोई भी विरिदावली. कितना गहन चिंतन मनन किया गया होगा तब जाकर हर पात्र की मनः स्थिति को आत्मसात किया होगा . फिर वो कैसे कलम के माध्यम से कागज पर उतरा होगा ये भी विचारणीय बिंदु है . यदि आज के सन्दर्भ में देखें तो वही सब आज भी किसी न किसी रूप में हो ही रहा है . वैसे भी कहा जाता है परम्पराएं बड़े घरों या राजाओं के माध्यम से ही शुरू होती हैं और उनका निर्वाह प्रजाजन करते हैं . शायद यही है कारण जो आज तक उस कालिख को वक्त अपने माथे से पोंछ नहीं सका . ज्यों की त्यों बोई गयीं और फसलें आज भी चुभन का बायस बनी हुई हैं . बेशक कुछ बदलाव है लेकिन नगण्य या कहिये उतना ही जितना द्रौपदी या कुंती में था . कवि ने पाठक को चिंतन की एक नयी दिशा पकड़ाई है . सोच को नया नजरिया दिया है जिसके लिए कवि बधाई का पात्र है . निसंदेह ये नजरिया आने वाली पीढ़ी के चिंतन में एक नया अध्याय जरूर जोड़ेगा .
कवि का गीतों से कितना प्रेम है वो भी जगह जगह उभर कर आया है मानो इस बहाने कवि ने उन गीतों को फिर याद करने का पाठक को मौका दिया हो .

इस काव्य संग्रह को लिखने का शायद कवि का मुख्य उद्देश्य यही रहा है कि मर्यादाओं का जितना हनन उस काल में हुआ शायद आज भी नहीं होता होगा .उस जड़ सोच को आज का युवा उखाड़ फेंक रहा है जो जरूरी है वर्ना अनंतकाल तक जाने कितनी पीढियां और तबाह होती रहें . एक विश्लेषणपरक विचारणीय संग्रह हेतु कवि का आने वाला कल शुक्रगुजार रहेगा . 

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©वन्दना गुप्ता vandana gupta  

बुधवार, 6 जुलाई 2016

तुमने कहा

तुमने कहा
गर्दन झुकाओ और ढांप लो अपना वजूद
कि
अक्स दिखाई न दे किसी भी आईने में

मैंने हुक्मअदूली करना नहीं सीखा
वक्त रेगिस्तान की प्यास सा
बेझिझक मेरी रूह से गुजरता रहा
सदियाँ बीतीं और बीतती ही गयीं
और आदत में शुमार हो गया मेरी बिना कारण जिबह होना

नींद किसी शोर खुलती ही न थी
जाने कौन सी चरस चाटी थी ...

फिर तुमने कहा
जागो , उठो , बढ़ो , चलो
कि सृष्टि का उपयोगी अंग हो तुम

कि
तुम्हारे बिना अधूरा हूँ मैं
न केवल मैं
बल्कि सारी कायनात
कि
तुम्हारे होने से ही है मेरा अस्तित्व
मैं और तुम दो कहाँ
समता का नियम लागू होता है हम पर

और मैं जाग गयी
उठ गयी चिरनिद्रा से

फिर क्यों नहीं तुम्हें भाता मेरा जागरूक स्वरुप
फिर तुम पति हो , पिता , भाई या बेटे

सुलाया भी तुमने और जगाया भी तुमने
तो भला बताओ मेरा क्या दोष?

फिर भी
मैं निर्दोष जाने क्यों होती रही तुम्हारे दोषारोपण की शिकार
कशमकश में हूँ ...

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