जीवन जीने की जिजीविषा
व्यक्त हैं तुम्हारे चेहरे की लकीरों में
हाथों पर पढ़ी झुर्रियाँ , झुलसी त्वचा
स्वयं एक दस्तावेज़ है
तुम्हारी ज़िन्दगी की जद्दोजहद की
आशा निराशा और हताशा के झुरमुटों में भी
सहेजी हैं तुमने उम्मीद की किरणें
यूं ही नहीं त्वचा सँवलाई है
आँखें प्रतीक हैं तुम्हारे पौरुष की
जहाँ ठहरी चिंता की लकीरें
दे देती हैं पता तुम्हारे मन की तहरीरों का
दया करुणा की मोहताज नहीं तुम
तुम तो हो वो स्वयंसिद्धा
जिसके आगे नतमस्तक है
सृष्टि का हर बंदा
ऐसा कह उपहास नहीं कर सकती
क्योंकि
जानती हूँ न
रोज कितनी आँखों में सिर्फ अपना बदन देखती हो
तो कितने ही चेहरों में अपने लिए वितृष्णा
फिर कैसे हो सकता है हर बंदा नतमस्तक
किन हालात से गुजरती हो
किस नारकीय यातना को झेलती हो
तब जाकर एक वक्त की रोटी का जुगाड़ करती हो
सब जानती हूँ .......... क्योंकि
आखिर हूँ तो एक औरत ही न
और सुनो
तुम्हारे रहन सहन के स्तर को जानने को
नहीं है जरूरत मुझे तुम तक पहुँचने की
तुम्हारी जीवन शैली का दर्शन करने की
क्योंकि
तुम अव्यक्त में भी व्यक्त हो
यदि हो किसी के पास वो नज़र
जो तुम्हें देह से परे देख सके
जो तुम्हारी उघड़ी देह का सही आकलन कर सके
तो स्वयं जान जाएगा
कैसे एक कपडे मे समेटा है तुमने पूरा ब्रह्माण्ड