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सोमवार, 27 जुलाई 2015

'अतिथि देवो भव '


आइये आपका स्वागत है 
हमारे देश में 

कीजिए आतंकी हमला 
हम आपको सलाम ठोकेंगे 
सालों केस चलाएंगे 
फाँसी की सजा मुक़र्रर करेंगे 
और फिर आपके कुछ नपुंसक हमदर्द 
मानवाधिकार का हवाला दे 
फाँसी के विरोध में याचिका दे छुडवा ले जायेंगे 

यहाँ इंसान नहीं बसते 
आपके कत्लो गारत के लिए 
थाली में सजा पेश करते 
स्वीकारिये और हमें नवाजिये
आइये आपका स्वागत है 

ये देश है नपुंसकों गद्दारों का 
आतंकियों को बचाने  वालों का 
इनकी डिग्निटी का क्या कहना 
ये देश है आतंकियों  का गहना 
तो फिर आइये आपका स्वागत है 

क्योंकि
हम तो बस इतना ही जानते हैं 
'अतिथि देवो भव ' ...........

( सन्दर्भ : पंजाब आतंक हमला और याकूब मेनन फाँसी )

आखिर कब तक ये सब चलता रहेगा ?
आखिर कब तक हम अपनों के दर्द को भूल दुश्मन से सहानुभूति रखते रहेंगे ?
दिल में होली जल रही है :(

शनिवार, 25 जुलाई 2015

सिहरन इश्क की

इश्क के सुलगते चूल्हे बुझाने को कम है सारे संसार का पानी और तुम डुबाना चाहते हो खारे समंदर में .........मैंने रातों की नदियों में उतारी है कश्ती दिल की जहाँ पार जाने का कोई इरादा नहीं .........चलो , चलो तुम भी अपने अक्षांश से , चलूँ मैं भी अपने ध्रुव से ........एक अजनबियत के सफ़र पर जिनके न मोड़ होते हैं और न ही मंजिलें .......यहाँ ढहने को न बुर्ज हैं न मीनारें ............जहाँ मेरी रातों ने सुबहों से अदावत की है वहां एक चिलम इश्क की सुलगाने को उम्र की कितनी ही नज़रें उतारों तुम .........मेरे आस्मां का रंग नहीं बदलने वाला ...........मेरे इश्क का रंग नहीं है सफ़ेद , नीला , पीला , लाल या हरा ........स्याह कालिमाओं पर भी कभी दूजे रंग चढ़े हैं क्या भला ?

कुछ खतों के जवाब नहीं हुआ करते और कुछ कभी कहीं पहुंचा नहीं करते ............जैसे ये !!!

सिहरन इश्क की जवाबों की मोहताज नहीं होती जानां ..........

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

लेखन कभी भी उम्र का मोहताज नहीं होता ........

रजनी गुप्त जी की वाल पर एक आलेख पढ़ा जिसमे उन्होंने भी वो ही मुद्दा उठाया हुआ था जो मैं पिछले कुछ सालों से सोच रही थी तो आज अपने दिल की बात कहने का मौका मिल गया :


  साहित्य में बहुत से लोग लेखन एक उम्र के बाद ही शुरू 

करते हैं तो उन्हें किस श्रेणी में रखा जाएगा वरिष्ठ या 

युवा? मान लो किसी ने शुरू ही ४० की उम्र में लेखन किया 

हो तो उसे किस दृष्टि से देखा जायेगा युवा या वरिष्ठ ?



अब सोचने वाली बात है कि जब उसने लिखना ही देर से 

शुरू किया तो पहचान भी देर से ही मिलेगी और छपेगा भी 

देर से ही तो ऐसे में वो यदि अपना पहला संग्रह ज्ञानपीठ 

या हिंदी अकादमी आदि में देना चाहे तो भी नहीं दे सकता

 क्योंकि वहां तो नवलेखन की अधिकतम उम्र ही ४० है ? 

या बहुत सी ऐसी जगह देखीं जहाँ यदि कोई पुरस्कार या 

सम्मान किसी कृति को देना है तो भी उम्र सीमा ४० है तो 

ऐसे में वो तो कोई भी राह नहीं चुन सकता ? बहुत से 

लेखकों को इन्ही वजहों से मन मसोसते हुए अक्सर देखा 

जाता है जब वो कहते हैं कि यार उम्र से मात खा गए वर्ना 

हम भी साहित्यकार थे काम के और ये बात होती भी उतनी

 ही सही थी जितनी संजीदगी से वो कहते क्योंकि उनका 

लेखन होता ही ऐसा है लेकिन सिर्फ उम्र के कारण सही 

मूल्यांकन नहीं हो पाता .


क्या जरूरी नहीं इन मुद्दों पर वरिष्ठ साहित्यकारों और

 अकादमियों को सोचना चाहिए और एक लेखक के लेखन
 
की उम्र से महत्त्व देना चाहिए न कि लेखक की उम्र से ?



अभी कुछ दिनों पहले कहीं पढ़ा था कि एक लेखक ने अपना लेखन ही ८० वर्ष की उम्र में शुरू किया था तो उसे किस श्रेणी में रखा जाए और किस दृष्टि से क्योंकि उम्र के हिसाब से वरिष्ठ हैं तो लेखन के हिसाब से युवा तो क्या ये उचित नहीं कि साहित्य में लेखक की उम्र और उसके लेखन की उम्र में फर्क किया जाए क्योंकि लेखन कभी भी उम्र का मोहताज नहीं होता ........ लेखन शक्ति तो एक बच्चे में भी हो सकती है और एक बुजुर्ग में भी लेकिन किसने लेखन को उच्चता प्रदान की ये ज्यादा मायने रखता है क्योंकि हो सकता है एक वरिष्ठ का लेखन उतना परिपक्व न हो जितना एक युवा का . तो क्यों न ये देखा जाए कौन कितने वक्त से लिख रहा है और क्या लिख रहा है ? क्या उसका लेखन देश समाज को सही दिशा देने में सक्षम है ? यदि ऐसे प्रश्नों पर कोई खरा उतर रहा है उसी हिसाब से उसके लेखन की उम्र का आकलन करते हुए युवा या वरिष्ठ की श्रेणी में रखा जाये तो ये साहित्य के लिए एक बेहतर स्थिति प्रदर्शित करेगा और प्रतिभा का समुचित आकलन भी किया जा सकेगा . 

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

दहलीजों के पाँव नहीं होते ...


सजती हैं अक्सर राख की दुल्हनें 
सजा कर माथे पर टिकुली 
खींच कर लक्ष्मण रेखा लाल रंग से 
करती हैं खुद को कैद 
एक साढ़े सात फेरों के हवनकुंड में 

चुआ कर तेल दोनों कोनों में 
करा दिया जाता है गृहप्रवेश 
प्रथा जो है 
निभानी तो पड़ेगी न 

एक अपार संसार की 
खुलती पहली खिड़की से 
झाँकती हैं दो जोड़ी आँखें 
देखने को नयनाभिराम दृश्य 
मगर हथेलियों पर उम्र भर 
सिसकती हैं आरजुएं 


और उम्र का सिपाही 
ठक ठक की दस्तक के साथ 
रोज भूंजता है हसरतों की मक्की 
स्वाद का क्या है 
जीभ भूल चुकी है स्वाद की सीढ़ियों पर चढ़ना 

हो जाते हैं एक दिन 
जब सब मन्त्र समाप्त तब भी 
प्रज्ज्वलित रहती है अग्नि हवनकुंड में 
मगर 
आहुति को न मन्त्र बचते हैं न समिधा 

तब भी 
खूंटे से बंधी रहती है गाय 
जानती है एक अटूट सत्य 
जहाँ मूक बधिर सी रेत दी जाती  हैं गर्दनें 
उन चौखटों के 
उन दहलीजों के पाँव नहीं होते .............




पिछले कुछ दिनों से अक्सर ऐसा हो रहा है या तो रचना की अंतिम पंक्ति या अंतिम पैरा पहले लिखा जाता है उसके बाद लेती है रचना आकार या फिर कोई बीच का हिस्सा पहले लिखा और बाद में रचना ने आकार लिया .........एक नयी सी दुनिया खुली है आजकल मेरे चारों ओर और आज की इस  रचना ने भी अंतिम पंक्ति से ही आकार लिया 

सोमवार, 13 जुलाई 2015

ज़िन्दगी का स्वाद बदलने को

जरूरी तो नहीं होता हमेशा 
घडी की सुइयों संग संग रक्स करना 
कभी कभी बगावत भी जरूरी होती है 
अब वो समय से हो या खुद से 

आज मिला दिया है 
सुर से सुर 
अपने अंतर्मन से 
नहीं सरकना आज मुझे घडी की सुइंयों संग 

कोई इन्कलाब तो आ नहीं जाएगा 
जो वक्त पर खाना न बना सकूँगी 
जो घर के काम न समेट सकूँगी 
जो आँगन को न बुहार सकूँगी 
जो आज खुद से कुछ देर बतिया लूंगी 
क्या होगा ज्यादा से ज्यादा 
बस कुछ देर .......
और इतनी सी देर से नहीं बदला करतीं ग्रहों की चालें 

रूह की थकान उतारने को 
जरूरी होते हैं कुछ ख़ास ठीये 
क्या हुआ जो उम्र को लपेट दबा लिया कांख में 
और लगी कलाबाजियां खाने 
लौटने लगी फिर से 
किसी अदृश्य काल में 
जहाँ बर्फ के गोले खा चटकारा लगा सकूँ 
खट्टी मीठी गोलियों और इमली के स्वाद संग 
कुछ देर सब कुछ भूल सकूँ 
तीखी हरी मिर्च के बाद भी 
तेज मसाले और नींबू डलवा 
आँख से पानी बहाते 
जुबाँ से सी - सी करते 
स्वाद के हिंडोले पर झूल सकूँ 

वर्तमान से अतीत तक विचरण करने से 
नहीं टूटा करतीं परम्पराएं 
बस जीने को जरूरी 
चार मौसमों से परे 
एक बार फिर मिल जाता है पांचवां मौसम 
जो भर जाता है 
उमंगों के ताज में जीने की ललक 

तो क्या हुआ जो 
कुछ पल खुद को सौंप दिए जाएँ 
और समय से विपरीत बहा जाए 
उलटे पाँव चलने का हुनर सबको नहीं आता 
नियम के विपरीत चलकर 
जीने का भी अपना मज़ा हुआ करता है 


ज़िन्दगी का स्वाद बदलने को 
जरूरी है 
एक कुंजी कमर में लटकानी 
बगावत के मौसम की भी ..........

आखिर कब तक तहजीबों को दुशाला ओढ़ाए कोई ?

शनिवार, 11 जुलाई 2015

कसाब.गाँधी@यरवदा.इन

हिंदी चेतना के जुलाई - सितम्बर २०१५ अंक में मेरे द्वारा 

लिखी पंकज सुबीर के कहानी  

संग्रह' कसाब.गाँधी @यरवदा.इन की समीक्षा प्रकाशित हुई है :








जाने माने कथाकार पंकज सुबीर का कहानी संग्रह ‘ कसाब. गाँधी @यरवदा .इन  ‘ शिवना प्रकाशन से आया है जिसका विश्व पुस्तक मेला २०१५ में विमोचन हुआ .

पंकज सुबीर एक जाना पहचाना नाम है जिनके लेखन से सभी परिचित हैं जो आज किसी पहचान का मोहताज नहीं . एक अलग सोच के धनी हैं लेखक, जहाँ कहानियों में एक तिलिस्म बुनने की कोशिश की होती है जो पाठक को पढवा ले जाती है . लेखक पात्रों का चित्रण इस तरह करता है यूं लगता है शायद वो उसी की ज़िन्दगी का कोई पहलू हो या बहुत पास से लेखक उन पात्रों से गुजरा हो और यही लेखन की सफलता होती है .

कसाब.गाँधी@यरवदा.इन  संग्रह की पहली कहानी ही अपने तिलिस्म में पाठक को कैद करती है . दो नंबरों के माध्यम से संवाद प्रक्रिया उन पहलुओं पर कटाक्ष करती है जिनकी अक्सर अनदेखी की जाती है या पता होता है मगर अंजान बने रहना चाहते हैं हम और लेखक ने उसी पक्ष को कहानी के माध्यम से उभरा है जहाँ सी -७०९६ और १८९ दो नम्बर बतिया रहे हैं . सी -७०९६ को कसाब और १८९ को गाँधी का प्रतीक बना एक दर्द को उकेरा है तो कहीं एक गलत निर्णय कैसे प्रभावित करता है सारे आन्दोलन को उस पर प्रहार किया . फांसी से पहले की रात में किस मानसिकता से गुजरा होगा कसाब उसका दिग्दर्शन तो कराया ही है साथ में उसके हाव भाव , उसकी सोच , उसका प्रतिपल पहलु बदलना हो या सामने वाले को आंकना , छोटी छोटी चीजों से दर्शाना लेखक का खुद को पात्र को आत्मसात किये बिना लिखना मुनासिब नहीं था . बेशक दोनों अपनी अपनी परिस्थितियों में लिए गए निर्णयों को सही जता रहे हैं लेकिन शायद अन्दर से जानते हैं कि वो कहाँ गलत थे और कहाँ सही मगर अहम् की परतों के नीचे दबा देते हैं निर्णयों को और चल पड़ते हैं उन राहों पर जो किसी के लिए संकरी हो जाती हैं तो किसी के लिए बंद .

वहीँ इस कहानी में गाँधी से वार्तालाप कराते हुए कहीं न कहीं कसाब कहो या सी -७०९६ को बोध होता है , उसकी आत्मा जानती है कि वो गलत है और शायद यही वो पल होता है जब वो स्वीकारता है अंतिम सत्य और यही लेखक का मुख्य मकसद रहा कि दोषी को सही गलत की पहचान हो . शायद मौत सामने खड़ी होती है जब तब सही और गलत की हर बुरे से बुरे इंसान को पहचान हो जाती है और वो अपनी सजा को फिर खुले दिल से स्वीकार पाता है . उससे पहले अपने तर्कों से खुद को सही सिद्ध करने की कोशिश करता है अपनी ही नज़र में फिर वो गाँधी का आभास का रूप ही क्यों न हो और यही लेखक ने दर्शाने की कोशिश की है कि जीवन भर चाहे तुम कितना ही अपने अच्छे बुरे कामों को स्वीकृति देते रहो कि तुम सही हो मगर अंतिम सत्य यही होता है जब तुम अपनी आत्मा की तुला पर खुद को तोलते हो और अपने ही पलड़े में खुद को हल्का पाते हो तब तुम अपनी कमियों और कमजोरियों को स्वीकारते हो , सही गलत का निर्णय लेते हो और वो ही जीवन का अंतिम सत्य है जब इंसान अपनी गलती स्वीकार ले , न उससे पहले न उसके बाद कोई सत्य कहीं बचता है और ऐसा करना ही सबसे बड़ा उसका प्रायश्चित होता है .

लेखक ने एक मानवीय मनोविज्ञान को कहानी का धरातल बनाया है . इन्सान गलतियों का पुतला होता है और उसके द्वारा की गयी गलतियाँ उसे अंत में जरूर घेरती हैं फिर चाहे वो कितना ही हालात की दुहाई दे खुद को सही सिद्ध करने की कोशिश करे लेकिन अंत में स्वीकारना यही सिद्ध करता है कि अंतरात्मा से बढ़कर कोई न्यायधीश नहीं होता और जो स्वीकार ले वो जीते जी मुक्त हो जाता है देह के बंधन से फिर चाहे देह रहे न रहे , फर्क नहीं पड़ता .

जहाँ तक कहानी को लिखने का कौशल है उसमे तो लेखक सिद्धहस्त हैं . दोनों पात्रों के बीच बातचीत एक ऐसे माहौल में कराना और उसके लिए माहौल बुनना , पाठक आश्चर्य में डूबा अंत तक पढता जाता है कि आखिर कहानी के माध्यम से लेखक कहना क्या चाहता है यानि जहाँ सम्भावना का अंत हो रहा है वहीँ से एक नयी सम्भावना को जन्म देना ही लेखक के लेखन का कौशल है . इस कहानी के बारे में जो लिखा जाए कम ही रहेगा क्योंकि संवाद की शैली और प्रश्नोत्तरी ही पाठक के मनो मस्तिष्क को मथने को काफी है , उस पर कुछ गहरे राज खोलना कहानी में रोमांच पैदा करता है साथ ही संवाद अदायगी मानो रंगमंच पर सामने ही कलाकार हों और दर्शक उस प्रक्रिया को घटित होते देख रहा हो तो कहानी अपने बहुआयामी रंगों को संजोये लेखन को सफल बनाती है .

‘ मुख्यमंत्री नाराज थे ‘ आज के नेताओं के चरित्रों का कच्चा चिटठा खोलती है जो मौत को भी अपनी सफलता का माध्यम बना लेते हैं , संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को दर्शाती है कहानी . डी डी मित्तल कहानी का मुख्य किरदार जो मुश्किल से पद प्राप्त करता है लेकिन एक गलती से उसे खोने की कगार पर पहुँच जाता है तो अपनी माँ की मौत को ही एक बार फिर कुर्सी पाने का माध्यम बना लेता है , माँ की अंतिम इच्छा के रूप में प्रचार प्रसार कर कुर्सी बचा लेना जीवन से घटते मूल्यों और बढती असंवेदनशीलता को तो दर्शाती है साथ ही समाज और सिस्टम में व्याप्त मानसिक भ्रष्टाचार को भी दर्शाती है . ‘ पुत्रियाँ बचाओ योजना ‘ प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा चलाई योजना को हथियार बना लिया अपनी माँ की अंतिम इच्छा बता , जो दर्शाती है कैसा चरित्र हो गया है आज के नेताओं का तो कैसे समाज का निर्माण होगा ? ये प्रश्न हवा में तैरता नज़र आता है . स्वार्थ की पट्टी आँख में बाँधना कुर्सी प्राप्त करने की पहली शर्त है मानो आज के नेता ये सन्देश दे रहे हों क्योंकि यदि आपको सिस्टम में टिके रहना है तो मुख्यमंत्री को खुश रखना जरूरी है , मुख्यमंत्री का नाराज होना ..... शामिल नहीं है सिस्टम में इन टिके रहने को . लेखक द्वारा राजनीती में फैले भ्रष्टाचार पर एक कटाक्ष है ये छोटी सी कहानी जो गहरा वार करती है और राजनीति के दांव पेंचों और उठा पटक से अवगत कराती है .

राजनीति के येन केन प्रकारेण कुर्सी बचाओ अभियान का स्याह पक्ष उकेरने में सक्षम है कहानी तो कहने में सफल है लेखक .

लव जिहाद उर्फ़ उदास आँखों वाला लड़का ..... लेखक का हर बार शीर्षक के माध्यम से पाठक को आकर्षित करना कहानी लेखन का पहला आकर्षण होता है उसके बाद कहानी का नम्बर आता है . सांप्रदायिकता की आग में झुलसती मानवता और उसके बीच पनपे प्रेम का हश्र क्या होता है उसका चित्रांकन है पूरी कहानी जहाँ दो जाने माने धर्मों को प्रतीकों के माध्यम से दर्शाते हुए कहानी को लेखक आगे बढाता है , हरा रंग और सिन्दूरी रंग सारी कहानी को कह जाता है , एक तनाव भरे माहौल में प्रेम में दो प्रेमियों का पड़ना और फिर उसका आकार लेना और अंत में उसका हश्र जो अक्सर होता है बिछुड़ना यूं एक आम ही कहानी है इसीलिए लेखक ने लड़के और लड़की को कोई नाम नहीं दिया , यहाँ तक कि किसी पात्र का कोई नाम नहीं है फिर लड़के का पिता , लड़की का पिता और माता आदि संबोधन दे कहानी को लेखक बढाता गया क्योंकि वो लड़का और लड़की कोई भी हो सकते हैं और उनकी कहानी का अंत क्या हो सकता है ज्यादातर सभी जानते हैं कि कैसे ऐसी बातों को दबाया जाता है और प्रेम करने वालों को अलग किया जाता है फिर चाहे उसके लिए लड़की उम्र भर दोजख की आग में जले और लड़का एक कट्टर सांप्रदायिक बन जाए , उसी को लेखक द्वारा व्यक्त किया गया है . कोशिशें काफी की जाती हैं , लड़के के संप्रदाय को भड़काने की लेकिन जिस हद तक चाहा होता है वैसा हो नहीं पाता बेशक कुछ अपने मारे जाते हैं लेकिन स्थिति को नियंत्रण में दिखा दिया जाता है .

यहाँ कहानी में सिन्दूरी रंग द्वारा किये गए  भीतरघात को लक्ष्य किया गया है जिसे हरा रंग समझ नहीं पाता और उसकी चपेट में आ जाता है , यदि समझ पाता तो जाने कितना कत्लो गारत होता , इस ओर भी लेखक ने ध्यान दिलाया है , शायद परिस्थितियां नियंत्रण में नहीं रहतीं , शायद लेखक बता रहा है अब तरीके बदल गए हैं मगर मानव के जेहन में जो दुसरे सम्प्रदाय के लिए नफरत है वो नहीं बदली है इसलिए अलग अलग रूप रख कर सामने आती है इसलिए ज्यादा बढ़ तो नहीं पाता तनाव लेकिन एक सम्प्रदाय विशेष उसका शिकार हो जाता है और मानो कहना चाह रहा हो जिसका मौका लगे वो ही वार करने से नहीं चूकता फिर चाहे वो कोई भी सम्प्रदाय हो . एक आम कहानी बस प्रस्तुतीकरण ही रोचकता बरकरार रखता है .

‘ चिरई – चुरमुन और  चीनू दीदी ‘ बचपन से यौवन की तरफ बढ़ते युवा के मन मस्तिष्क और शारीरिक बदलाव के साथ अधकचरे ज्ञान से फैले अन्धकार का चित्रण है . यूं कहानी के पात्रों के नाम हैं लेकिन वो खुद को चिरई –चुरमुन कहते हैं क्योंकि यहाँ पात्र बहुत हैं यानि युवा होते लड़के जो बचपन से नानी दादी से कहानी सुनते बड़े होते हैं , जिन्हें अभी पता भी नहीं होता स्त्री पुरुष संबंधों का ऐसी अपरिपक्वता के साथ जीते बच्चों को जरूरत होती है सही मार्गदर्शन की लेकिन जब उन्हें सही मार्गदर्शन नहीं मिलता तो उनकी सोच वहीँ जाकर रुक जाती है हर बार आखिर उनसे क्या छुपाया जा रहा है और क्यों ? जो वो देखते हैं सुनते हैं उसके बारे में जानकारी चाहते हैं लेकिन जानकारी के बदले यदि मार पड़े या डांट तो जिज्ञासा के जंतु कुलबुलाने लगते हैं और अपनी अधकचरी सोच के माध्यम से अपने अपने अर्थ वो निकालते हैं ,जब ऐसे माहौल में वो बड़े होते हैं तो जो भी खुद से ज्यादा समझदार दिखे उसके दिखाए रास्ते पर ही चलने लगते हैं और उसे ही सही समझते हैं .......ऐसा ही लेखक ने उन बच्चों के माध्यम से दर्शाया है कैसे कुछ सवालों के जवाब नहीं मिलते तब बड़े स्कूल में जाने पर अपने से सीनियर उन पर अपना ज्ञान बघारते हैं तो उसी को सत्य समझते हैं , अश्लील किताबों से मिलता अधकचरा ज्ञान ही फिर सहायक होता है जो उनके लिए संसार के आठवे अजूबे से कम नहीं होता क्योंकि एक दबे ढके माहौल में रहने वालों को अचानक आज़ादी की हवा उड़ाने लगे तो संभालना आसान नहीं होता ऐसा ही उनके साथ होता है , जो देखा जाना पढ़ा वो अधूरा ही है जब तक उसकी अनुभूति से न गुजरा जाए तो चिरई – चुरमुन गैंग द्वारा योजना बनाना कि कैसे कार्य को अंजाम दिया जाए और उस अनुभूति से गुजरा जाए इसका खालिस चित्रण है कहानी . चीनू का गाँव में आना , उसके लिए आग शब्द का प्रयोग किया जाना उनके कार्य में सहायक सिद्ध होता है क्योंकि बचपन से यही शब्द उनकी सोच की हांडी को पकाता रहा था कि आखिर इस आग शब्द का वास्तविक अर्थ है क्या लेकिन जब पत्रिका के दृश्यों से अवगत हो जाते हैं और चीनू के लिए उन्ही शब्दों को सुनते हैं तो उन्हें उसे असलियत तक ले जाने की इच्छा होती है और उसी को अंजाम देने के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं और जब उसका लाइव प्रसारण देखते हैं तो नीली फिल्म हो या सचित्र पत्रिका दोनों सम्मुख उपस्थित हो जाते हैं लेकिन हाथ कुछ नहीं आता वो खाली ही रह जाते हैं क्योंकि खीर तो कौआ खा जाता है .

 मुख्य कहानी तो सिर्फ यही है लेकिन एक बार फिर लेखक ने मानव मनोविज्ञान को पकड़ा है , उसकी जिज्ञासा को उकेरा है और साथ ही एक सन्देश भी दिया है कि जो युवा होते बच्चों को सही मार्गदर्शन न मिले या सेक्स का ज्ञान न हो तो कैसे अधकचरी जानकारी से प्रेरित हो वो किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं . कहानी पढ़ते हुए पाठक को पात्रों से सहानुभूति भी होती है और तरस भी आता है कि हमारे समाज में सेक्स को वर्जित विषय बनाकर पेश किया जाता है जिस कारण युवा गलत संगत में पड़कर भटक भी सकता है . यूं कहानी का कथ्य रोचक है उस पर विषय ऐसा हो तो जिज्ञासा चरम पर पहुंचकर स्खलित हो जाती है . एक एक पात्र , उसकी मनोदशा , गाँव का ठेठ मिजाज़ सब मिलकर कहानी को रोचकता के चरम पर ले जाते हैं जहाँ अश्लील कुछ नहीं है क्योंकि संकेतात्मक ध्वनि ही काफी है रोचकता को बनाए रखने को और उस कार्य को अंजाम देने में लेखक पूरी तरफ सफल रहा है .

कैसे बचपन से युवावस्था तक पहुँचने की प्रक्रिया में कहानी आकार लेती है और पात्रों की जिज्ञासा आकार पाती है एक बेहद महीन दृश्य खींचा गया है जो पाठक को अपने साथ बहा ले जाएगा . मज़े की चीज कहानी उस युग में आकार ले रही है जब ऐसी बातें करना वर्जित माना जाता था मानो लेखक अपनी कहानी खुद कह रहा हो ऐसा प्रतीत होता है पाठक को , मानो लेखक खुद गुजरा है उस अनुभव से , इतनी बारीकी से एक एक दृश्य ,  एक एक संवाद प्रस्तुत किया गया है . आज से कम से कम ३०-३५ साल पुराना माहौल बना कहानी को आकार दिया  जब सिर्फ दूरदर्शन जैसा माध्यम भी वक्त से बंधा होता था और हफ्ते के कुछ ही दिन कुछ ही समय प्रसारण होता था तो जानकारी के लिए आज की तरह इन्टरनेट या टी वी जैसा पुख्ता माध्यम उपस्थित नहीं था लेकिन ये जिज्ञासा तो आदिम जिज्ञासा है तो फिर युग कोई हो , जानकारियों के स्त्रोत स्वयं उपस्थित हो जाते हैं तो कैसे संभव है युवावस्था में प्रवेश करते युवा का उससे बचे रहना या जानकारी के अभाव में माध्यम का न मिलना . एक पढ़ी जाने योग्य कहानी लेखक के लेखन कौशल का चरम है .


‘आषाढ़ का फिर वही एक दिन ‘ शीर्षक आकर्षित करता है और पाठक उस तिलिस्म में घुसता है कुछ ढूँढने मगर खुद को खाली हाथ ही पाता है क्योंकि सिर्फ शीर्षक ही कहानी खींच ले जाए संभव ही नहीं . भार्गव बाबू नाम के भ्रष्टाचारी किरदार की जीवन चर्या को दर्शाना भर रहा है इसमें लेखक का मंतव्य . शायद पूरे संग्रह की सबसे कमजोर कहानी यही होगी . बेशक कैसे भ्रष्टाचार व्याप्त होता है उसका चित्रांकन है , ऐसे लोग कैसा जीवन जीते हैं वो ही दर्शाया है और कितने खडूस होते हैं लेकिन कुछ नयापन यदि पाठक खोजे तो ऐसा कुछ नहीं है , एक आम ज़िन्दगी की दिनचर्या भर के  प्रस्तुतीकरण भर को कहानी का आकार दे दिया गया है जिसमे कहानी के नाम पर तो कुछ नहीं है लेकिन लेखक के लेखन का तिलिस्म उसे आखिर तक पढवा ले जाता है क्योंकि जो मुख्य उद्देश्य है भ्रष्टाचार तो उससे आज हर इंसान वाकिफ है , कैसे सरकारी कार्यालयों में काम होता है और कैसे लटकाया जाता है वो आज सब जानते हैं इसलिए नया कुछ नहीं है .

‘ हर एक फ्रेंड कमीना होता है ‘ एक संवेदनशील कहानी है . कैसे गलतफहमियों का शिकार हो एक दोस्त अपने दोस्तों की ज़िन्दगी में ज़हर घोल देता है और उनकी दोस्ती टूट जाती है .  उस उम्र का आकर्षण कैसे सिर्फ एक खास चेहरे की चाह में झूठे सच्चे बयां देता है और सोचता है शायद वो जीत जाएगा लेकिन ऐसा नहीं होता तब उसे अपनी गलती का अहसास होता है और एक उम्र के बाद जब वो अपने गिल्ट से उबर नहीं पाता तो अपनी गलती को ईमेल के माध्यम से पत्र भेज स्वीकारता है जबकि जानता है ये सत्य कि इसके बाद उसका अपने सभी दोस्तों से रिश्ता हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा . वैसे नया कुछ नहीं है ऐसा अक्सर होता है लेकिन नया है तो लेखक का प्रस्तुतीकरण , घटनाओं को केमिस्ट्री से जोड़ प्रस्तुत करना . फासिल्स को आधार बना पूरी कहानी रच देना और उसके इर्द गिर्द ही घुमा कर ले आना ही कहानी का तिलिस्म है .

इस सबके साथ कहानी के शीर्षक को जस्टिफाई करता है लेखक मानो कहना चाहता हो अंधविश्वास किसी पर नहीं करना चाहिए क्योंकि कब कौन आपकी सारी जानकारियां जुटाकर आपको धोखा दे जाए आप सोच भी नहीं सकते और यही है कहानी का मुख्य उद्देश्य . बेशक कभी कहा जाता था जो मुसीबत के वक्त काम आये वो ही सच्चा दोस्त होता है लेकिन आज परिभाषाएं बदल चुकी हैं . ये तो जब उसका जमीर उसे परेशान करता है , धिक्कारता है तब जाकर वो खुद से शर्मिंदा हो अपना गुनाह स्वीकारता है लेकिन उस गुनाह की सजा पूरा ग्रुप पाता है जो गुनाह उन्होंने किया ही नहीं होता क्योंकि एक बार यदि रिश्ते दरक जाएँ तो दरार आ ही जाती है फिर कितना चाहो पहले सी बात रहती ही नहीं बेशक उबर जायें उससे लेकिन मन के किसी कोने को वो दंश सालता ही रहता है बीस साल के अंतराल के बाद इंसान की सोच इतनी बदल चुकी होती है कि उस वक्त तक ऐसी स्वीकारोक्तियां शायद कोई मायने ही न रखती हों उनके लिए या फिर अब विश्वास करना वो छोड़ ही चुके हों क्योंकि एक बार यदि किसी का विश्वास टूट जाए तो फिर जुड़ता नहीं है .

‘ कितने घायल हैं , कितने बिस्मिल हैं .......’ लिव इन पर आधारित कहानी है जहाँ आपगा और  अजिंक्य दो पात्र हैं जो सिर्फ शरीर तक ही सीमित हैं , जिनमे और कोई एक दूसरे के लिए भावनाएं हैं ही नहीं खास तौर से आपगा में . उसके लिए देह सिर्फ देह है और देह की जरूरत देह से ही पूरी हो सकती है वहां भावनाओं का कोई काम नहीं होता वहीँ अजिंक्य इससे सहमत नहीं है लेकिन इस बात पर वो बहस भी नहीं कर सकते . बस दो लोग साथ रह रहे हैं जब जो भूख लगी बुझा ली बस इससे ज्यादा कोई महत्त्व नहीं है अजिंक्य का आपगा की ज़िन्दगी में . दोनों का अपना स्पेस है , अपनी प्राइवेसी है , अपना जीवन है जिसमे दोनों में से किसी को भी हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है लेकिन जब दोनों का प्यार के बारे में नजरिया सामने आता है तो उसमे भी आपगा के लिए कुछ नया नहीं है क्योंकि उसके लिए प्रेम वगैरह सिर्फ ख्याल हैं जबकि वास्तव में तो सारा खेल हारमोंस  testastrone , एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन का है , जिसमे जो ज्यादा होता है वो उसकी तरफ आकर्षित होता है . सब हारमोंस का खेल होता है और इंसान उसे प्रेम नाम दे देता है जबकि ये विशुद्ध रासायनिक प्रक्रिया होती है कहना है आपगा का लेकिन अजिंक्य नहीं मानता उसके लिए प्रेम एक अनुभूति है और जब उन अनुभूतियों के साथ सेक्स किया जाता है तब सम्पूर्ण तृप्ति होती है लेकिन आपगा को ऐसा नहीं लगता लेकिन कहीं न कहीं अजिंक्य की बात उसे कचोटती है क्योंकि वो अपनी तुलना अपनी कामवाली से जब करती है तो पाती है वो हमेशा खुश रहती है , असंतोष का उसके जीवन में कोई काम ही नहीं होता लेकिन उसे अहसास होता है जैसे कोई कमी सी है और उस कमी को उसने दूर करना है लेकिन वो कमी क्या है वो समझ नहीं पाती तब अजिंक्य उसे प्रेम का महत्त्व बताता है लेकिन वो ऐसी लड़की है जो कुछ भी बिना आजमाए मानने वालों में से नहीं है और फिर एक गंभीर निर्णय दोनों मिलकर लेते हैं और मेड के पति से वो सम्बन्ध बनाकर जानना चाहती है कि आखिर वो इतनी संतुष्ट कैसे रहती है और उस तरफ कदम बढ़ा भी देती है जिसका हल उसे अजिंक्य की बाहों में आकर मिलता है और प्रेम और सिर्फ देह के उत्सव का फर्क उसे समझ आ पार्टनर की  भी उतनी ही खुली सोच है जहाँ एक प्रयोग के माध्यम से देह और प्रेम के अंतर को स्पष्ट किया गया है , यहाँ कोई दैहिक शुचिता का प्रश्न नहीं है क्योंकि जब आप देह को देह की तरह ही समझोगे तो सम्बन्ध पर रिश्ता हावी नहीं होता , वहां गिव एंड टेक का समीकरण ही व्याप्त होता है तो कोई अपराधबोध जैसी मानसिकता जन्म नहीं लेती तो ऐसे प्रयोग आसानी से अमल में लाये जा सकते हैं लेकिन अभी क्योंकि ये समाज में कम स्वीकार्य है इसलिए प्रश्न उठने भी लाजिमी हैं . आपगा की सोच का एक दृश्य इस कविता में भी दिखता है जो एक हद तक जायज ही लगता है :

स्त्री मुझमें / पुरुष मुझमें
*******************
तुम्हारे अंदर का पुरुष 
और मेरे अंदर की स्त्री 
जब अपने अपने तटबंध तोड़ 
एक दूसरे के क्षेत्र में 
प्रवेश करने को आतुर होते हैं 
जिज्ञासावश ही सही 
आकलन जरूरी हो जाता है 
कि आखिर कैसे 
वर्जित क्षेत्रों में प्रवेश करने का 
विचार उत्पन्न हुआ 
कौन सी रासायनिक क्रिया ने  
ये बदलाव किया 
कि 
स्वयं को भुला 
दूजे की भावनाओं , सोच और मनः स्थिति से 
विचलित हमारा मन हुआ 
और जानने को हो उठे आतुर 
दूसरे सैक्स की भावनाओं को 
उसके अंदर उठती हिलोरों को 
उसमे उठते तूफानों को 
उसके मन की कश्मकश को 
ताकि महसूस सकें उसके जैसा 
ताकि जान सकें उसमे होते परिवर्तनों को 
ताकि तोल  सकें हम वक्त के तराजू पर 
भावों की समिधा को 


शायद विपरीत सैक्स को जानने की जिज्ञासा 
उसके जैसे महसूसने की इच्छा का 
जागृत होना 
कोई आश्चर्य नहीं 
क्योंकि 
कहीं न कहीं दोनों ही सैक्स में 
एक वक्त के बाद 
बदलाव की प्रक्रिया शुरू होना लाज़िमी है 
शायद जब खुद से मोहभंग होता है 
तभी दूसरी तरफ रुख होता है 
ऐसा ही स्त्री पुरुष संरचना का संघर्ष होता है 
जहाँ दोनों एक दूजे बिन अधूरे होते हैं
और साथ रहने पर भी 
कुछ क्रियाएँ स्वयमेव घटित होती हैं 
उसी का परिणाम ये होता है 
खुद से परे  दूजे सैक्स पर ध्यान केंद्रित होता है 


और 
मानव मन  हमेशा खोजी रहा है 
सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचना को 
जब तक न समझ पाया 
खोज का सिरा न छोड़ पाया 
मानव मन की सहज क्रिया है ये 
जो भी अदृश्य है 
जो भी उसकी समझ से बाहर है 
उसकी खोज निरंतर जारी रखता है 
तो फिर ये तो जैसे 
उसके अंदर घटित होती 
एक खगोलीय घटना होती है 
जिससे भला कैसे मुंह मोड़ सकता है 
और लेने लगता है आकार उसमे 
विपरीत सैक्स में होते उत्खनन की प्रक्रिया 
को जानने की इच्छा 


ये यूं ही नहीं होता 
क्योंकि 
दोनों में ही छुपे हैं भेद इक दूजे के 
दोनों में ही हैं छुपे चिन्ह सभ्यताओं के 
क्योंकि 
कहीं न कहीं 
दोनों की संरचना होती 
एक ही आकार से है 
एक ही परमाणु से 
तभी होते हैं आकर्षित 
एक दूजे को जानने की प्रक्रिया में 
एक दूजे के जटिल  भेदों को सुलझाने में 


आखिर दोनों ही संरचनाओं का निर्माण 
होता तो दोनों ही तरह के हार्मोन से है 
बस फर्क रहता है तो सिर्फ इतना 
मादा में एस्ट्रोजन ज्यादा होते हैं 
और नर में टेस्टोस्टेरोन 
यूं ही नहीं परिवर्तन की बयार बहा करती है 
ये तो हार्मोनल बदलाव की लहर होती है 
जो विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षित किया करती है 
एक उम्र के बाद ही जन्म लेती है 
एक दूजे जैसे दिखने की चाहत 
एक दूजे की भावनाओं के गणित को समझने की चाहत 
और हो जाती है खोज खुद में 
विपरीत सैक्स की 


वर्ना 
कब स्त्री पुरुष होना चाहती है 
और 
पुरुष स्त्री की तरह सोचना समझना और रहना 
वर्ना 
कौन अपने अपने अहम की परतों को भेद पाया है 
कौन अपने खोल से बाहर निकल पाया है 

ये तो महज रासायनिक परिवर्तन होता है 
और कह उठते हैं दोनों ही 
स्त्री मुझमे / पुरुष मुझमे 


जबकि सत्य एक के पलड़े में दोनों तराजुओं पर जरूरी है बैलेंस बनाने को प्रेम का अनिवार्य अंग की तरह होना . ये तो अति आधुनिकता की चादर ओढ़ देखने वालों का नजरिया होता है , वैज्ञानिक सोच है लेकिन प्रकृति का धरातल तो प्रेम ही है तभी तो कहा गया है ‘सबसे ऊंची प्रेम सगाई ‘ वहां अन्य सब गौण हो जाता है शरीर और उसकी जरूरतें भी जाने किस आकाश में खो जाती हैं और जब कोई इसका अनुभव कर लेता है तब प्रेम की महत्ता को समझता है और स्वीकारता है , क्योंकि प्रेम ही जीवन का आधार है वैसे ही जैसे जीवन के लिए सांस लेना ........सुगम हो जाता है जीना लेकिन जब तक ऐसी सोच रखने वाले समझ नहीं पाते तब तक भटकते रहते हैं और जैसे ही जानते हैं सारे भटकाव सारे प्रश्न ख़त्म हो जाते हैं और वो ही तो कहानी की पात्र के साथ होता है जिसे समझने के लिए वो इस हद तक जाती है , कभी कभी मौखिक इंसान नहीं समझ पाता जब तक कि असलियत में उससे न गुजरे या उस का प्रयोग करके न देखे . प्रयोग ही तो किसी भी खोज को अंतिम निष्कर्ष दिया करते हैं .


लेखक का प्रयोगवादी नजरिया कहानी को अलग दिशा देते हुए प्रेम की उपयोगिता को उच्च पायदान पर स्थापित करता है जो प्रेम की जीत है , रिश्तों की जीत है जहाँ दैहिक सुख से जरूरी होता है आत्मिक सुख और  आत्मिक सुख अपनत्व और लगाव से ही उत्पन्न होता है फिर वहां देह गौण हो जाती हैं और प्रेम अपनी उच्चता को प्राप्त कर लेता है . 



‘ नक्कारखाने में पुरुष विमर्श ‘ वास्तव में पुरुष विमर्श का जीवंत सबूत है . मनेजर साहब मुख्य किरदार है जहाँ वो अपनी पत्नी से पीड़ित हैं . एक गाँव जहाँ कोई पढ़ा लिखा नहीं , उस पर सौतेले भाई लेकिन आपसी सम्बन्ध सगों से भी ज्यादा सगे , एक खुशहाल सा जीवन होते हुए भी पत्नी के आने के बाद मनेजर साहब का जीना दुश्वार हो जाता है क्योंकि पत्नी भी थोड़ी बहुत पढ़ी लिखी है और मनेजर साहब बैंक में मेनेजर हैं साथ में कवि ह्रदय रखते हैं . अपना जीवन तो जीते ही हैं साथ में भाइयों और उनके बच्चों के लिए भी बहुत कुछ करना चाहते हैं लेकिन पत्नी के होते चाहकर भी ज्यादा नहीं कर पाते . वहीँ पत्नी दिन पर दिन उद्दंड होती जाती है जिसे किसी की परवाह ही नहीं , न रिश्तों की न पति की बस अपने हिसाब से जीना ही उसका मुख्य लक्ष्य है , कहीं न कहीं वो उन्हें दोषी समझती है क्योंकि वो माँ नहीं बन सकती जबकि है उल्टा वास्तव में वो माँ नहीं बन सकती लेकिन मनेजर साहब सारा दोष अपने सिर ही लेते हैं क्योंकि वो उनकी पसंद की थीं यदि बता दिया तो उनकी दूसरी शादी की बात शुरू हो जाती इसलिए सारा सच छुपा कर रखते हैं और शिव की तरह गरल पीते रहते हैं , समयनुसार भाइयों का शहर चले जाना , पत्नी का उन्हें उपेक्षित करना और यहाँ तक उनके संग्रह या उनके शौक का भी उपहास उडाना उसका नियम है , सब सहते हैं , आपसी सम्बन्ध तो जाने कब से हैं ही नहीं , खाने तक के लिए उनके लिए कुछ नहीं होता ऐसा जीवन जीते हैं और जब छोटे भाई के बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं तो भी पत्नी द्वारा कोहराम मचाना उन्हें इतना विचलित करता है कि वो एक निर्णायक कदम उठा लेते हैं . पहले सब कुछ अपनी मर्ज़ी का करते हैं इना उसकी परवाह किये और अंत में उससे परेशान हो खुद को ख़त्म कर देते हैं . मौत से डरने वाला इंसान मौत को जब गले लगा ले तो सोचने वाली बात है कि वो कितना परेशान होगा लेकिन ऐसी मौतों पर विमर्श नहीं हुआ करते , छानबीन नहीं हुआ करतीं क्योंकि आज का ज़माना स्त्री विमर्श का है ऐसे वक्त में यदि कोई इक्का दुक्का पत्नी के व्यवहार से परेशान हो ऐसा कोई कदम उठता भी है तो उसकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ साबित होती है तो फिर कैसा पुरुष विमर्श .

लेखक ने आज की सोच पर प्रहार किया है मानो कहना चाहता हो कि जरूरी नहीं हमेशा जो स्त्री हमेशा रोती बिलखती रहे वो ही सही हो , कभी कभी सच बहुत कड़वा होता है लेकिन क्योंकि आज स्त्री को सहानुभूति जल्दी मिल जाती है तो वो उसका फायदा भी उठाती है और कोई भी निर्णय लेने से पहले दोनों पक्षों का सच जानना जरूरी होता है . आज जाने कितने पुरुष किन हालात में जी रहे हैं कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता लेकिन क्योंकि सदियों से स्त्री ही दबी कुचली सहमी रही है तो पलड़ा उसका भारी हो जाता है .बात सिर्फ इस कहानी की नहीं है क्योंकि ऐसे चरित्र आस पास मिल जाते हैं बल्कि कहानी के माध्यम से पुरुषों की व्यथा को कहने की कोशिश की गयी है . कहानी पुरुष विमर्श का सशक्त चित्र प्रस्तुत करती है .


‘ चुकारा ‘ अपने आप में एक अलग ही चित्र प्रस्तुत करती है . मेजर रविकांत और उनकी पत्नी अपने पैतृक शहर में अपने मकान में रहते हैं जो रिटायर हो चुके हैं बच्चे बाहर सेटल हैं इसलिए दोनों पति पत्नी अपना बंधा बढाया अनुशासित जीवन जी रहे हैं कि अचानक राहुल वर्मा नाम के शख्स का आना उनकी ज़िन्दगी में उथल पुथल मचाता है , जो उनसे अपनी दुकानका उद्घाटन करवाना चाहता है और उनसे करवाता भी है भावनाओं में बहाकर लेकिन एक पहेली बना रहता है जो उन्हें सोचने पर विवश करता है कि आखिर ये हमारे पीछे क्यों पड़ा है ? कहीं संपत्ति हथियाने का उद्देश्य तो नहीं ? जबरदस्ती उन्हें गिफ्ट देता है मेरा इस संसार में कोई नहीं कहकर तो ये बात भी उन्हें संशय में डालती है कि कल को उलटे सीधे ढंग से पैसे कमाकर लाये और उन्हें रखने को देने लगे और एक दिन ऐसा ही होता है तो उनके सब्र का बाँध टूट जाता है और वो उसे डांटते हैं और चले जाने को कहते हैं तब वो अपने जीवन का सत्य बताता है कि उसका कोई नहीं है , एक दोस्त के साथ बिज़नस शुरू करने को कुछ पैसोंकी जरूरत थी और रास्ता कोई था नहीं लेकिन फिर इंतजाम हो गया और बिज़नस चल निकला तो यहाँ भी खोल लिया मगर मुख्य बात नहीं बतायी कि पैसों का इंतजाम आखिर हुआ कहाँ से ? और उसको कहानी की अंतिम पंक्ति में नाटकीयता से लेखक ने खोला कि दस बरस पहले उनके हाथ से ढाई लाख रूपये छिनकर भागने वाला और कोई नहीं वो ही था .

कहानी तो इतनी भर है लेकिन जी नाटकीयता से कहानी आगे बढती है तो कई जगह जो प्रश्न और संशय उठाते हैं वो पाठक के दिल में कहानी पढ़ते पढ़ते स्वयमेव उठने लगते हैं , दूसरी बात जिस नाटकीयता से वो कहानी सुनाता है तब भी पाठक के दिल में ऐसे ही ख्याल उठाते हैं कि कहीं उसने उनके यहाँ से ही तो किसी वक्त नहीं चुराए या ऐसा ही कोई ख्याल उठता है जिसका पटाक्षेप उसकी सोच के अनुसार ही होता है . दूसरी बात कहानी का शीर्षक भी बहुत कुछ कह देता है और पाठक अनुमान लगाने लगता है कि हो सकता है किसी की मेजर ने हेल्प की हो और वो अब इस तरह चूका रहा हो , ऐसे बहुत से ख्याल जन्म लेने लगते हैं और वो उसकी सोच के अनुसार ही आकार लेते हैं साथ ही मानो एक सन्देश भी दे रहा है कि आज भी इंसानियत जिंदा है और जो इस जज्बे के साथ जीता है कामयाबी कदम चूमती है फिर भी प्रश्न दिमाग में उधेड़बुन मचाता है इस तरह तो हर लूट खसोट करने वाला ऐसा करना अपना धर्म समझेगा और इसी तरह सोचेगा कि जब मैं भी उसकी तरह पैसा कमा लूँगा तो ब्याज सहित चूका दूंगा तो क्या ये सही विकल्प हुआ या उचित निर्णय हुआ या सही दिशा हुई ? एक अनुत्तरित प्रश्न छोड़ जाती है कहानी .

कहानी साधारण है लेकिन उसमे रोचकता कैसे कायम करनी है ये लेखक को पता है , कैसे पाठक को पढवा ले जाना है ये भी उसे पता है क्योंकि लेखक मानव मनोविज्ञान का ज्ञाता है और लेखनी में वो दम रखता है जो पाठक को अंत तक बांधे रखे .

अंत में दो छोटी कहानियाँ खिड़की और सुनो मांडव दोनों ही प्रेम की तलाश करती रूहों का एकालाप है जहाँ प्रेम की चाह में दोनों  खुद को मिटा देती है और इंतज़ार की शम्मा जलती रहती है कायनात के अंत तक . भटकती रूहें और प्रेम जो इंतज़ार बन उनसे उन्हें ही छीन चूका है लेकिन जिंदा है .

अब समग्रता से देखा जाए तो लेखक के पास सोच है , आस पास की घटनाएं हैं , ज़िन्दगी से जुडी यादें हैं , कथ्य है, शिल्प है  और सबसे बड़ी चीज ज़िन्दगी का अनुभव है जो चिंतन को दिशा देता हुआ कहानी लिखवा ले जाता है . लेखक किसी एक विषय पर नहीं लिख रहा , समाज के अलग अलग पहलुओं का समावेश कर अपने समय को रेखांकित कर रहा है जो जरूरी है . वास्तव में लेखन वही है जो अपने समय को प्रस्तुत कर सके और लेखक वो ही कर रहा है . लेखक की कहानियों में जीवन है , समाज है , राजनीति है , दर्शन है , प्रेम है सब कुछ है सबसे बड़ी चीज उसको कहने का ढंग है , प्रस्तुतीकरण की विधा में लेखक माहिर है तभी एक सीधी सी बात हो या घटना हो उसको कलात्मक रुख के साथ प्रस्तुत करने की कला में लेखक सिद्धहस्त हैं लेकिन सब कुछ होते हुए भी यदि लेखक एक बात पर और ध्यान दे तो कहानी कालजयी बन सकती हैं , पाठक को लम्बे समय तक याद रह सकती हैं वर्ना तो कहानियों में आजकल दृश्यांकन इतना किया जाता है कि पाठक उसी के तिलिस्म में घूमता रह जाता है मगर कहानी के नाम पर हाथ खाली होते हैं तो यही एक सलाह है यदि लेखक अपने तिलिस्म से बाहर आ जाए और बेवजह या अनावश्यक दृश्यावली को छोड़ मुख्य रूप से कहानी पर ही केन्द्रित रहे तो कहानी और ज्यादा असरदार होगी . बाकी ये कोई बुराई नहीं है क्योंकि आज की आधुनिक कहानी लेखन में यही हो रहा है , पात्र के अंग प्रत्यंगों के साथ आस पास के वातावरण को सूक्ष्म चित्रण करना , पेड़ पत्ते, फूल पौधे , उनकी सुगंध ,उनके प्रभाव आदि  एक एक पहलू बदलने को लिखना शामिल हो गया है जो एक हद तक तो प्रभावित करता है लेकिन कहानी जब उसकी वजह से खिंचने लगती है तो पाठक निराश होने लगता है और वो ऐसे प्रसंगों को छोड़कर कहानी आगे पढने लगता है जबकि जरूरत है पाठक की मानसिकता को समझने की कि आखिर वो चाहता क्या है . पाठक भी रोचकता चाहता है , रोमांच चाहता है , और सबसे बड़ी चीज कहानी का अंत अपनी सोच से परे चाहता है तो जो भी कहानी इन प्रतिमानों पर खरी उतरेगी अपनी सशक्त पहचान बना लेगी .

इस तरह का लिखने का लेखक का दोष नहीं है क्योंकि आजकल हो ही ऐसा रहा है , हर दूसरा लेखक इसी तरह का लेखन कर रहा है और बाज़ार में टिकना है तो जरूरी है इस विधा में पारंगत होना यही सोच हर कोई इसी तरह का लेखन कर रहा है जबकि ये चीजें गौण होती हैं मुख्य तो कहानी की विषय वस्तु होती है यदि उसमे दम है तो कोई ताकत उसे कालजयी होने से नहीं रोक सकती . शिल्प बिम्ब आदि उसमे चार चाँद बेशक लगाते हैं लेकिन उसके जादू से निकलना भी जरूरी है चमत्कार कहानी करती है सिर्फ शिल्प बिम्ब का कला कौशल ही कहानी को जीवित नहीं रख पाता.


अगर लेखक की दो तीन कहानियों को छोड़ दिया जाए तो भी बाकि कहानियां प्रभावशाली तो हैं ही साथ में पाठक भी मांगती हैं .

कसाब. गाँधी @यरवदा .इन , चिरई चुरमुन और चीनू दीदी , कितने घायल हैं कितने बिस्मिल हैं , नक्कारखाने में पुरुष विमर्श ऐसी कहानियां हैं जिनके जादू में पाठक खुद को बंधा पायेगा . वहीँ हर एक फ्रेंड कमीना होता है एक संदेशपरक कहानी के रूप में खुद को प्रस्तुत करती है तो दूसरी अन्य कहानियां समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को इंगित करती हैं जो एक सफल कथाकार के रूप में लेखक को प्रस्तुत करती हैं .

बाकि जिन कहानियों ने प्रभाव डाला वो खुद ज़ेहन पर अंकित हो जायेंगी . लेखक का चिंतन और कथन दोनों समय की आवश्यकता को समझते हैं और सारे समाज को साथ लेकर चलते हैं जो उन्हें एक अलग पहचान देते हैं . उनकी विशिष्ट शैली उन्हें आज की पीढ़ी के लेखकों से अलग स्थान दिलाती है . उनकी कहानियां समाज को न केवल वर्णित करेंगी उम्मीद है नयी दिशा भी देंगी ऐसी मुझे उम्मीद है . इन्ही शुभकामनाओं के साथ लेखक को बधाई देती हूँ .


सोमवार, 6 जुलाई 2015

डूबोगे तरोगे कौन जाने

आकलनों की चमड़ियों  से 
नहीं उगते शहतूत 
वाकिफ होकर इस तथ्य से रखना पांव 

मुस्कुराहटों की भूमि 
बंजर ही मिलेगी 
भूख भेड़िये सी गुर्राएगी 
हलक में खराश पड़ जायेगी 
शून्य से नीचे होगा तापमान 
शिथिल पड़ जायेंगी शिरायें 
सुन्न हो जाएगा वजूद जब 
तब उतरना भगीरथी में डुबकी लगाने को 

डूबोगे तरोगे 
कौन जाने ............