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सोमवार, 22 सितंबर 2008

कोई हो ऐसा

कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
हमारे रूह कि
अंतरतम गहराइयों में छिपी
हमारे मन कि हर
गहराई को जाने
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
सिर्फ़ हमें चाहे
हमारे अन्दर छीपे
उस अंतर्मन को चाहे
जहाँ किसी कि पैठ न हो
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
हमें जाने हमें पहचाने
हमारे हर दर्द को
हम तक पहुँचने से पहले
उसके हर अहसास से
गुजर जाए
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
बिना कहे हमारी हर बात जाने
हर बात समझे
जहाँ शब्द भी खामोश हो जायें
सिर्फ़ वो सुने और समझे
इस मन के गहरे सागर में
उठती हर हिलोर को
हर तूफ़ान को
और बिना बोले
बिना कुच्छ कहे
वो हमें हम से चुरा ले
हमें हम से ज्यादा जान ले
हमें हम से ज्यादा चाहे
कभी कभी हम चाहते हैं
कोई हो ऐसा.......कोई हो ऐसा

बुधवार, 17 सितंबर 2008

टूटे हुए महल अरमानों का कफ़न ओढे खड़े हैं शायद अब भी किसी के इंतज़ार में । हर पत्थर खंडहर का अपनी कहानी कह रहा है , उसके चेहरे पर आंसुओं के निशान अब भी देखे जा सकते हैं। मगर उन्हें पढने वाली आँखें हैं कहाँ-----यहीं ढूंढ रहे हैं ।
लाश का कोई अरमान नही होता
वो तो सिर्फ़ लाश है
उसे किसी का इंतज़ार नही होता
लाश में प्यार की प्यास नही होती
दर्द का अहसास नही होता
चेतना अवचेतना का ग्यान नही होता
जो अपने हैं उनका भान नही होता
कुच्छ बन गए हैं कुच्छ बन जायेंगे
हम लाश समान
एक सड़ती हुयी लाश को
कोई क्यूँ अपनाएगा
उससे हमदर्दी तो दूर
कोई पास भी न आएगा
इसी तरह इस लाश को ढोते ढोते
अपनों के अहसास से बहुत दूर
चले जायेंगे हम
हमसफ़र साथ होते हुए भी तनहा हूँ मैं
ज़िन्दगी इससे बड़ी और क्या सज़ा देगी हमें

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

मेरे आँगन में न उतरी धूप कभी
तब कैसे जानूं उसकी रौशनी है क्या
न बुन सकी कभी तमन्नाओं के धागे
न जोड़ सकी यादों के तार कभी
न जला सकी प्यार के दिए कभी
इस डर से की अंधेरे और न बढ़ जायें
माना नही ठहरती धूप किसी भी आँगन में
मगर मेरे आँगन में तो धूप की एक
छोटी सी किरण भी न उतर सकी
भला कैसे जानूं मैं किस तरह
खिला करती है धूप आँगन में
एक परछाईं हूँ ,न जाने कब गुम हो जाऊँ,
न करो इससे प्यार,एक छलावा हूँ,सिर्फ़ छलना जानती हूँ,
मुझे पकड़ने की दौड़ में कहीं तुम बहुत आगे न निकल आना
ज़माना साथ न दे सकेगा,तुम्हें ही पीछे जाना पड़ेगा,
एक साया सा हूँ मुझे छूने की कोशिश न कर,
कहीं ऐसा न हो ,तुम्हारा अपना साया ही
तुम्हारा साथ न छोड़ दे ।
आसमान पर लगे हैं हम तारों की तरह
न जाने किस दिन टूट कर गिर जायें






हो चुकी है रहगुजर कठिन
मुश्किल से मिलेंगे नक्शे कदम
वक्त की आंधियां चलीं कुच्छ इस कदर
कि हम झड़ गए ड़ाल से सूखे हुए पत्तों की तरह
हर आँचल हो पाक ये जरूरी तो नही
हर आइना हो साफ़ ये जरूरी तो नही
हर फूल में हो खुशबू ये जरूरी तो नही
हर खुशी हो अपनी ये जरूरी तो नही
हर अपना हो अपना ये जरूरी तो नही
इसलिए
हर चेहरा हो खिला ये जरूरी तो नही

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

मेरी मुस्कराहट तो एक ऐसा दर्द है
जो छुपाये बनता न दिखाए बनता





हर तरफ़ ये तूफ़ान सा क्यूँ है
हर इन्सान परेशां सा क्यूँ है
हर जगह ये सन्नाटा सा क्यूँ है
ये शहर भी वीरान सा क्यूँ है
क्या फिर किसी का दिल टूटा है
क्या फिर कोई बाग़ उजड़ा है
क्या फिर किसी का प्यार रूठा है
क्या फिर कोई नया हादसा हुआ है
शायद फिर से खंडहर बन गया है कोई
या ग़मों के हर दौर से गुजर गया है कोई
हर सितम सहूंगी उसके ये इकरार करती हूँ
इसे बेबसी कहूं या क्या कहूं,क्यूंकि
मैं उससे प्यार करती हूँ
जो गम दिए हैं मेरे देवता ने
मैं उनका आदर करती हूँ
उस सौगात का अनादर नही कर सकती,क्यूंकि
मैं उनकी पूजा करती हूँ
पुजारिन हूँ तुम्हारी में
बस इतना चाहती हूँ
मेरे मन मन्दिर में मेरे देवता
हर पल हर दिन बसे रहना
नही मांगती तुमसे कुछ मैं
मुझसे पूजा का अधिकार न लेना
दुनिया के कोलाहल से दूर
चरों तरफ़ फैली है शांती ही शांती
वीरान होकर भी आबाद है जो
अपने कहलाने वालों के अहसास से दूर है जो
नीरसता ही नीरसता है उस ओर
फिर भी मिलता है सुकून उस ओर
ले चल ऐ खुदा मुझे वहां
दुनिया के लिए कहलाता है जो शमशान यहाँ
उदास नज़र आता है हर मंज़र
नज़र आता नही कहीं गुलशन
हर तरफ़ क्यूँ उदासी छाई है
या फिर मेरे दिल में ही तन्हाई है
हर शय ज़माने की नज़र आती है तनहा
समझ आता नही ज़माने की उदासी का सबब
वीरान सा नज़र आता है हर चमन
या फिर मेरी नज़र में ही वीरानी छाई है
उड़न ज़िन्दगी की है कहाँ तक
प्यार ज़िन्दगी में है कहाँ तक
शायद
ज़िन्दगी है जहाँ तक
लेकिन
ज़िन्दगी है कहाँ तक
नफरत की सीमा शुरू हो
शायद वहां तक
प्यार की सीमा ख़त्म हो
शायद वहां तक

सोमवार, 8 सितंबर 2008

हम तो ता-उम्र तुझ में ख़ुद को ढूंढते रहे
सुना था
प्यार करने वाले तो दो जिस्म एक जान होते हैं
क्या पता था
ये सिर्फ़ कुच्छ लफ्ज़ हैं

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

लोग न जाने कैसे किसी के दिल में घर बना लेते हैं
हमें तो आज तलक वो दर -ओ-दीवार न मिली
लोग न जाने कैसे किसी के प्यार में जान गँवा देते हैं
हमें तो आज तलक उस प्यार का दीदार न मिला
लोग न जाने कैसे काँटों से दोस्ती कर लेते हैं
हमें तो आज तलक दर्द के सिवा कुच्छ भी न मिला
लोग न जाने कैसे जानकर भी अनजान बन जाते हैं
हमें तो आज तलक कोई अनजान भी न मिला
ज़ख्म कितने दोगे और यह तो बता दो
अब तो दिल का कोई कोना खाली न बचा
हाल-ऐ-दिल तो क्या तुम समझोगे मेरा
जब तेरे दिल के किसी कोने में जगह ही नही
किसी की चाहत में ख़ुद को मिटा देना बड़ी बात नही
गज़ब तो तब है जब उसे पता भी न हो
वो आज तक कुच्छ सुन नही पाया
जो हम उससे कभी कह न पाये
दिल के कुच्छ अरमान
शब्दों के मोहताज़ नही होते
कुच्छ वाकये तो नज़रों से बयां होते हैं
कोसी ने कर दिया
अपनों को अपनों से
कोसो दूर
अब के बिछडे
फिर न मिलेंगे कभी
ज़ख्म रूह के
फिर न भरेंगे कभी
हालत पर दो आंसू गिराकर
सियासत्दार फिर न
मुड़कर देखेंगे कभी
उजडे आशियाँ
फिर भी बन जायेंगे
पर मन के आँगन
फिर न भरेंगे कभी

बुधवार, 3 सितंबर 2008

जिस्मों से बंधे जिस्मों के रिश्ते
रूह का सफर कभी तय कर नही पाते
जो रिश्ते रूह में समां जाते हैं
वो जिस्मों की बंदिशों से आजाद होते हैं

सोमवार, 1 सितंबर 2008

ज्वार भाते ज़िन्दगी को कहाँ ले जायें पता नही
ज़िन्दगी भी कब डूबे या तर जाए पता नही
बस ज्वार भाते आते रहते हैं और आते रहेंगे
न पूनम की रात का इंतज़ार करेंगे
न अमावस्या की रात का
बस ज़िन्दगी इन्ही ज्वार भाटों के बीच
कब डूबती या समभ्लती जायेगी पता नही