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शनिवार, 29 दिसंबर 2012

ख़ामोशी की गूँज ऐसी होनी चाहिए

क्या कहूं 
सत्ता बीमार है या मानसिकता 
इंसानियत मर गयी या शर्मसार है 
मौत तो आनी  है इक दिन 
मगर मौत से पहले हुयी मौत से 
कौन कौन शर्मसार है ?


क्योंकि 
न इंसानियत बची न इन्सान 
लगता है आज तो बस बेबसी है शर्मसार………

चेहरा जो ढाँप लिया तुमने
तो क्या जुर्म छुप गया उसमें
क्या करेगा ओ नादान उस दिन
जब तेरा ज़मीर हिसाब करेगा तुझसे

अब पीढियाँ ना हों शर्मसार
यारा करो कोई ऐसा व्यवहार

अब अंगार हाथ में रख
जुबाँ पर इक कटार रख 
देख तस्वीर बदल जायेगी
बस हौसलों की दीवार बुलंद रख 


ख़ामोशी की गूँज ऐसी होनी चाहिए 
सोच के परदे फाड़ने वाली होनी चाहिए 
व्यर्थ न जाये बलिदान उसका 
अब ऐसी क्रांति होनी चाहिए 
यही होगी सच्ची श्रद्धांजलि




जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक सुधार संभव नहीं क्योंकि देखो चाहे मृत्युदंड का प्रावधान है हत्या के विरुद्ध तो क्या हत्यायें होनी बंद हो गयीं नहीं ना तो बेशक कानून सख्त होना चाहिये इस संदर्भ में मगर उसके साथ मानसिकता का बदलना बहुत जरूरी है जब तक हमाiरी सोच नही बदलेगी जब तक हम अपने बच्चों से शुरुआत नहीं करेंगे उन्हें अच्छे संस्कार नहीं देंगे औरत और आदमी मे फ़र्क नहीं होता दोनो के समान अधिकार और कर्तव्य हैं और बराबर का सम्मान जब तक ऐसी सोच को पोषित नहीं करेंगे तब तक बदलाव संभव नहीं ।

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये

 इतनी लाठियाँ एक साथ ……नृशंसता की पराकाष्ठा………दोष सिर्फ़ इतना न्याय के लिये क्यों गुहार लगायी ?


बहुत हो चुका अत्याचार
बहुत हो चुका व्यभिचार
अब बन दुर्गा कर संहार
क्योंकि
बन चुकी बहुत तू सीता
कर चुकी धर्म के नाम पर खुद को होम
सहनशीला के तमगे से
अब खुद को मुक्त कर चल उस ओर
जहाँ ये नपुंसक समाज ना हो
जहाँ तू सिर्फ़ देवी ना हो
जहाँ अबला की परिभाषा ना हो
तेरी कुछ कर गुजरने की
एक अटल अभिलाषा हो
जहाँ तू सिर्फ़ नारी ना हो
समाज का सशक्त हिस्सा हो
जहाँ तू सिर्फ़ भोग्या ना हो
बराबरी का हक रखती हो
खुद को ना कठपुतली बनने देती हो
अब कर ऐसा नव निर्माण
बना एक ऐसा जनाधार
जो तेरी लहुलुहान आत्मा पर
फ़हराये अस्तित्व बोध का परचम
तू भी इंसान है ………स्वीकारा जाये
तेरा अस्तित्व ना नकारा जाये
तेरी रजामंदी शामिल हो
हर फ़ैसले पर तेरी मोहर लगी हो
कर खुद को इस काबिल
फिर देख कैसे ना रुत बदलेगी
खिज़ाँ की हर बदली तब हटेगी
और हर दिल से यही आवाज़ निकलेगी
बहुत हो चुका अत्याचार
अब तो ये पहचान मिलनी चाहिये
जिसमें हौसलों भरी उडान हो
तेरे कुछ कर गुजरने के संस्कार ही तेरी पहचान हों
तेरी योग्यता ही उस संस्कृति की जान हो
तेरी कर्मठता ही उस सभ्यता का मान हो 
ऐसी फिर एक नयी लहर मिलनी चाहिये
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये …………

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

ओ देश के कर्णधारों ……अब तो जागो

कुम्भकर्णी नींद में सोने वालों अब तो जागो
ओ देश के कर्णधारों ……अब तो जागो
क्या देश की आधी आबादी से तुम्हें सरोकार नहीं
क्या तुम्हारे घर में भी उनकी जगह नहीं
क्या तुम्हारा ज़मीर इतना सो गया है
जो तुम्हें दिखता ये जुल्म नहीं
क्या जरूरी है घटना का घटित होना
तुम्हारे घर में ही
क्या तभी जागेगी तुम्हारी अन्तरात्मा भी
क्या तभी संसद के गलियारों में
ये गूँज उठेगी
क्या उससे पहले ना किसी
बहन, बेटी या माँ की ना
कोई पुकार सुनेगी
अरे छोडो अब तो सारे बहानों को
अरे छोडो अब तो कानून बनाने के मुद्दों को
अरे छोडो अब तो मानवाधिकार आदि के ढकोसलों को
क्या जिस की इज़्ज़त तार तार हुई
जो मौत से दो चार हुयी
क्या वो मानवाधिकार के दायरे मे नही आती है
तो छोडो हर उस बहाने को
आज दिखा दो सारे देश को
हर अपराधी को
और आधी आबादी को
तुम में अभी कुछ संवेदना बाकी है
और करो उसे संगसार सरेआम
करो उन पर पत्थरों से वार सरेआम
हर आने जाने वाला एक पत्थर उठा सके
और अपनी बहन बेटी के नाम पर
उन दरिंदों को लहुलुहान कर सके
दो इस बार जनता को ये अधिकार
बस एक बार ये कदम तुम उठा लो
बस एक बार तुम अपने खोल से बाहर तो आ सको
फिर देखो दुनिया नतमस्तक हो जायेगी
तुम्हारे सिर्फ़ एक कदम से
आधी आबादी को ससम्मान जीने की
मोहलत मिल जायेगी …………
गर है सच्ची सहानुभूति तभी ज़ुबान खोलना
वरना झूठे दिखावे के लिये ना मूँह खोलना
क्योंकि
अब जनता सब जानती है ………बस इतना याद रखना
गर इस बार तुम चूक गये
बस इतना याद रखना
कहीं ऐसा ना हो अगला निशाना घर तुम्हारा ही हो ……………

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

क्योंकि........ हूँ बलात्कारियों के साथ तब तक

हम थोथे चने हैं
सिर्फ शोर मचाना जानते हैं
एक घटना का घटित होना
और हमारी कलमों का उठना
दो शब्द कहकर इतिश्री कर लेना
भला इससे ज्यादा कुछ करते हैं कभी
संवेदनहीन  हैं हम
मौके का फायदा उठाते हम
सिर्फ बहती गंगा में हाथ धोना जानते हैं
नहीं निकलते हम अपने घरों से
नहीं करते कोई आह्वान
नहीं देते साथ आंदोलनों में
क्योंकि नहीं हुआ घटित कुछ ऐसा हमारे साथ
तो कैसी संवेदनाएं
और कैसा ढोंग
छोड़ना होगा अब हमें .......आइनों पर पर्दा डाल कर देखना
शुरू करना होगा खुद से ही
एक नया आन्दोलन
हकीकत से नज़र मिलाने का
खुद को उस धरातल पर रखने का
और खुद से ही लड़ने का
शायद तब हम उस अंतहीन पीड़ा
के करीब से गुजरें
और समझ सकें
कि  दो शब्द कह देने भर से
कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं होती
क्योंकि .........आज जरूरी है
बाहरी आन्दोलनों से पहले
आतंरिक दुविधाओं के पटाक्षेप का
केवल एक हाथ तक नहीं
अपने दोनों हाथों को आगे बढाने का
जिस दिन हम बदल देंगे अपने मापदंड
उस दिन स्वयं हो जायेंगे आन्दोलन
बदल जायेगी तस्वीर
मगर तब तक
कायरों , नपुंसकों की तरह
सिर्फ कह देने भर से
नहीं हो जाती इतिश्री हमारे कर्तव्यों की
और मैं ..........अभी कायर हूँ
क्योंकि........ हूँ बलात्कारियों के साथ तब तक
जब तक  नहीं मिला पाती खुद से नज़र
नहीं कर पाती खुद से बगावत
नहीं चल पाती एक आन्दोलन का सक्रिय पाँव बनकर
इसलिए
शामिल हूँ अभी उसी बिरादरी में
अपनी जद्दोजहद के साथ ................




 इस अभियान मे शामिल होने के लिये सबको प्रेरित कीजिए
http://www.change.org/petitions/union-home-ministry-delhi-government-set-up-fast-track-courts-to-hear-rape-gangrape-cases#

कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं.........

रविवार, 16 दिसंबर 2012

सब जानती हूँ ...........दिवास्वप्न है ये

इंतजार की हद पर ठहरा 
धूप का टुकड़ा 
देख कुम्हलाने लगा है
नमी का ना कोई बायस रहा है 
हवाओं में भी तेज़ाब घुला है 
ओट दी थी मैंने 
अपनी मोहब्बत के टीके की 
पर मोहब्बत ने भी अब 
करवट बदल ली 
ना सुबह का फेन बचा है
ना सांझ की कटोरी में 
कोई रेशा रुका है
कब तक आटे की गोलियां बनाती रहूँ
मछलियों को दाना डालती रहूँ 
सूखे तालाबों में मछलियों का होना
उनका दाना चुगना 
सब जानती हूँ ...........दिवास्वप्न है ये 
इंतज़ार के भरम सपनों की गोद में ही तो पलते हैं लोरियां सुनते हुए ...........

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

उपन्यास का इससे सुखद अंत और क्या होगा ?

 दर्द शापित होता है तभी तो अदृश्य होता है फिर भी भासित होता है ...........नींद की गोलियां भी बेअसर ..........उम्र की कडाही में खौलता रेशा रेशा तड़पने को मजबूर ..........कोई ऊँगली डालने को भी राजी नहीं वहां दर्द की तासीर बड़ी मीठी हो जाती है अपनी कडवाहट से ...........आखिर दर्द भी तो पनाह चाहता है न कसकने के आगोश में .........चिंदी चिंदी कर बिखरना आसान होता है मगर ठोस बनना मुश्किल फिर सीने के लिए कहाँ मिलता है कोई दरजी जो दर्द की एक- एक पोर को सीं दे और जोड़ दे उसमे कुछ रेशे अपनी पैरवी के ............नहीं मिलता कोई रंगरेजा जो उँडेल दे रंगों का इन्द्रधनुष और मिटा दे दर्द की ताबीर ...........मिटटी को कब मिला आसमान , कुटना, पिसना और मिटना ही तो नियति है फिर क्यों  न दर्द को ही सखी बनाया जाये और कुछ पल उसके आगोश में सिमटा जाए ............यूँ भी घूँट घूँट कर पीने से राहत मिलती है रेशमी दुल्हनों को ..............कोई जरूरी तो नहीं न दूल्हे  ने हर बार सेहरा ही लगाया हो ............बेनकाब आतिशों पर सायों की परछाईयाँ कब हमसफ़र बन कर साथ चलती हैं ...........यूँ भी दर्द की दुल्हन तो हमेशा ही सिन्दूर को तरसती है ..............कुछ दुल्हन बिन श्रृंगार के ही डोलियों में विदा होती हैं ............आखिर अंतिम विदाई के भी तो कुछ दस्तूर होते हैं निभाने के लिए ..........रेशम के कफ़न तो सबको नसीब होते हैं फिर विदाई की अंतिम बेला में कुछ तो दस्तूर बदलने चाहिए ............दर्द की किताब हो और आखिरी पन्ना फटा हुआ हो ...............उपन्यास का इससे सुखद अंत और क्या होगा ?

रविवार, 9 दिसंबर 2012

यादों की महकती शाम …………फ़र्गुदिया के नाम

अनुगूँज की गूँज बहुत देर तक सुनाई देती रहेगी ………सबने मिलना जो था 

फ़र्गुदिया के कार्यक्रम अनुगूँज मे अनामिका जी, वन्दना ग्रोवर, मुकेश मानस, अंजू शर्मा, असद ज़ैदी, अरुण कुमार शुक्ल, डाक्टर सुनीता कविता जी का कविता पाठ था जिसमें हम सबने शिरकत की और एक खुशनुमा शाम का आनन्द उठाया

 सरिता दास के साथ 


 संजू तनेजा अपने स्टाइल में :)


राजीव तनेजा जी 

कार्यक्रम की संचालिका और आयोजन कर्ता शोभा मिश्रा जी के साथ
संचालिका के पद को गरिमा देती शोभा जी का संचालन बेहद खूबसूरत रहा 
 वन्दना ग्रोवर जी का कविता पाठ शाम को महका गया 
क्षणिकाओं से शुरु होकर हास्य से भी मिलवा गया
पंजाबी कुडी ने रंग खू्ब जमा दिया 
जो पंजाबी कविता का तडका लगा दिया

 सीमांत सोहे्ल जी के साथ यादो भरी शाम


 दर्शकों बीच राजीव तनेजा

 वन्दना ग्रोवर का फूलों से स्वागत करते


असद ज़ैदी जी की कविताओं ने सोच को भी आईना दिखा दिया 

 पलों को सहेजते पल चेहरे से बयाँ हो रहे हैं 


 अनामिका …बस नाम ही काफ़ी है
कवितायें तो जैसे दू्सरे जहान से आयी हैं 
गहनता भी शरमा जाती है जब मौन मुखर होता है 

 ये हँसते मुस्कुराते लम्हे………हैं ना सहेजने योग्य

मज़ा तो यहाँ आया जब जो रोज़ बतियाते थे 
ना इक दूजे को पहचान पाये 
निशा कुलश्रेष्ठ , मृणाल के साथ 

 मुकेश मानस जी का स्वागत करते

 बलजीत जी के साथ राजीव तनेजा








 अंजू शर्मा कविता पाठ करते हुये 
जूते के जो गुणगान किये
सभी के चेहरे खिल गये




 आनन्द कुमार शुक्ल कविता पाठ करते हुये

 डाक्टर सुनीता कविता का स्वागत

  डाक्टर सुनीता कविता कविता पाठ करते हुये
स्त्री के अनेकों रूप का गुणगान कुछ ऐसे किया
हर स्त्री का चेहरा जैसे बयाँ हो गया 


 उपस्थित कविगण 

 एक शाम को कैमरे मे कैद करते राजीव तनेजा 







 सईद अयूब कार्यक्रम के आयोजक
 सरिता दास के साथ संजू तनेजा


 रविन्द्र के दास अपनी पत्नी के साथ 



चुलबुली  इंदु अनामिका जी का स्वागत करती


 इंदु, वन्दना ग्रोवर, सरिता दास, संजू तनेजा



 ओये होये किधर खो गये :)

 निशा के साथ 








 
 आखिर मे सईद अयूब जी ने समापन भाषण दे सबका आभार व्यक्त किया 


तो दोस्तों ये था कल की शाम का यादगार नज़ारा जहाँ काफ़ी नये चेहरों से परिचय हुआ तो साथ ही जिनसे रोज बतियाते हैं उनसे मिलने का भी लुत्फ़ उठाया ।
अंत मे राजीव तनेजा जी का आभार इन सुन्दर सुन्दर फ़ोटोग्राफ़्स के लिये अगर उन्होने ना लिये होते तो आज हम यहाँ आनन्द ना ले रहे होते :)

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

गर बच सके तो "कुछ" बचा लो

मिट रही है इंसानियत
बढ़ रही है हैवानियत
इंसानियत के नीलाम
 होने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

बिक चुका  है जो जमीर

लालच हुआ अधीर
जमीर को बिकने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

ये रगों मे लहू बन

रेंगते बेशर्मी के कीड़े
दरिंदगी की लाज शर्म भी
न जिन्हें रास आती
उन हैवानों की हैवानियत के
चंगुल में फंसने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

चाहे मलाला हो

चाहे सोनाली हो
कट्टरपंथियों की नाक ना नीची हो
इस चरमपंथियों की गिरह से
बेबस मासूमों की
बलि चढ़ने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

जो आधुनिकता की

भेंट चढ़ गयी हैं
संस्कारों की दौलत
उसे वस्त्रहीन होने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

संस्कृति, संस्कार और सभ्यता 

एक सिक्के के दो पहलू
आज टके भाव भी न बिकते हैं
फिर भी आने वाली पीढ़ी के लिए
ईमान के इस खजाने को
नेस्तनाबूद होने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो


बस अपने हाथों में

इक ईमान की
इक सच्चाई की
इक इंसानियत की
इक इबादत की
कोई लकीर बना सको तो बना लो
खाली  हाथ आए
खाली ही जाना है
इस उक्ति को सार्थक
करने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो
यारा ............
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो ..............

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

3 दिसम्बर ……ना भूली जा सकने वाली तारीख

नही भूल सकती आज का दिन
मेरी अबूझी पीडा में लगी एक फ़ांस
जो उम्र भर अब सिर्फ़ चुभती रहेगी
मगर पीडा को ना आकार दे पायेगी


जिसकी छाँव में जीवन गुजरा

पल पल कुसुम सा महका
और फिर एक दिन छीन लिया तुमने
आँखों से वो हर इक सपना
जो लहराता था एक बेटी के मनआँगन में
नेह का दरिया बनकर
जो था उसके जीवन का सम्बल
जहाँ जाकर भूल जाती थी वो
अपने जीवन की हर एक उलझन
जिसकी पनाह मे पाती थी
तुम्हारी गोद सा परम दुलार
कैसे कर देते हो तुम
जीवन का जीवन से बिछोह
जो तुम्हारा ही प्रतिरूप होता है
हर बेटी के जीवन की स्नेहमयी गुनगुनी धूप होता है
जिसकी छाँव तले वो निर्भय घूमा करती है
क्यों इतने निष्ठुर हो जाते हो 

जो उम्र भर का दर्द दे जाते हो
हे जीवनदाता ……क्यों आता है वो वक्त ज़िन्दगी में
जब छीन लेते हो तुम निज स्वरूप जीवनदाता को ……बेटियों से

जब तक स्वंय उस पीडा से ना गुजरो पीडा का आकलन नहीं कर सकते ।

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

मुझे ऐसा प्यार करना कभी आया ही नहीं

सुनो
जानते हो
मुझे प्रेम करना कभी आया ही नहीं
बस चाहतों ने सिर्फ़ तुम्हें चाहा
क्योंकि
तुम धुरी थे और मैं
तुम्हारे चारों तरफ़ घूमता वृतचित्र
कभी जो तुम्हें दिखा ही नहीं
तुमने महसूसा ही नहीं
बस वो ही त्याग किया मैने
क्या प्यार वहीं स्वीकृत है
जहाँ जताकर कुछ छोडा जाये
जहाँ बताकर अपने त्याग को
छोटा किया जाये
जहाँ जेठ की तपती धरती
अपने सेंक से तुम्हें भी तपा दे
जहाँ शून्य से भी सौ डिग्री नीचा तापमान हो
और तुम्हें अपनी कडकडाती हड्डियों
जकडी हुयी साँसों
पथरायी आँखों
का अहसास कराया जाये
तो क्या तभी प्यार होता है
सच जानम …………
मुझे ऐसा प्यार करना कभी आया ही नहीं

प्यार की खन्दकों में तेज़ाब भी खौलते हैं

फिर चाहे ऊपरी सतहें खामोश दिखती हों
इसलिये
सतही प्यार के फ़ूल खिलाने के लिये मैने वो आशियाना बनाया ही नहीं
लेकिन ये सच है ………जैसा तुमने चाहा
वैसा प्यार करना मुझे आया ही नहीं …………

बुधवार, 28 नवंबर 2012

लेखन के संक्रमण काल में

लेखन के संक्रमण काल में
मैं और मेरा लेखन
क्या चिरस्थायी रह पायेगा
क्या अपना वजूद बचा पायेगा
क्या एक इतिहास रच पायेगा
प्रश्नों के अथाह सागर में
डूबता उतराता
कभी भंवर में
तो कभी किनारे पर
कभी लक्ष्यहीन तो
कभी मंज़िल की तरफ़
आगे बढता हिचकोले खाता
एक अजब
कशमकश की उथल पुथल में फ़ंसे
मुसाफ़िर सा
आकाश की ओर निहारता है
तो कभी अथाह जलराशि में
अपने निशाँ ढूँढता है
जबकि मुकाम की सरहद पर
खुद से ही जंग जारी है
नहीं ………ये तो नहीं है वो देश
नहीं ………ये तो नहीं है वो दरवेश
जहाँ सज़दा करने को सिर झुकाया था
और फिर आगे बढने लगती है नौका
ना जाने कहाँ है सीमा
कौन सी है मंज़िल
अवरोधों के बीच डगमगाती
कश्ती जूझती है
अपनी बनायी हर लक्ष्मणरेखा से
पार करते करते
खुद से लडते लडते
फिर भी नही पाती कोई आधार
सोच के किनारे पर खडी
देखती है
सागर में मछलियों की बाढ को
और सोचती है
क्या लेखन के संक्रमण काल से
खुद को बचाकर
रच पायेगी एक इतिहास
जिसके झरोखों पर कोई पर्दा नहीं होगा
कोई बदसलूकी का धब्बा नहीं होगा
जहाँ ना कोई रहीम ना कोई खुदा होगा
बस होगा तो सिर्फ़ और सिर्फ़
ऐतिहासिक दस्तावेज़ अपनी मौजूदगी का
मगर ………क्या ये संभव होगा?
संक्रमण काल में फ़ैलती संक्रामकता से खुद को बचाकर रखना
भविष्य अनिश्चित है
और आशा की सूंई पर
चाहतों की कसीदाकारी पूरी ही हो ………जरूरी तो नहीं
यूँ भी भरी सर्दी में
अलाव कितने जला लो
अन्दर की आग का होना जरूरी है ………शीत के प्रकोप से बचने के लिये
तो क्या …………यही है प्रासंगिकता
भीतरी और बाहरी खोल पर फ़ैली संक्रामकता की ??????

सोमवार, 26 नवंबर 2012

"कुछ" बचा लो ………

यूँ  तो सब मिट चुका है
हर पन्ने से
स्याही से लिखे हर्फ़ों को
कब तक सहेजे कोई
एक बूँद और सब स्वाहा
मगर जानते हो
उस बूँद में लिखे हर्फ़ों को
पढने की कूवत सबमे नही होती
सुना है …………
तुमने सीखा है
अदृश्य तरंगों को पढना
फिर बूँद में छिपी लिखावट
का अपना कायदा होता है
क्या पढा है कभी उस कायदे को
किया है रियाज़ कभी तुमने
रात के अंधेरों में
तन्हाई के आलम में
सर्द हवा के झोंकों मे सिहरते हुये
या अलाव में जलते हुये
गर किया हो तो करना कोशिश पढने की
शायद तब बाँच सको
अलिखित खत की अबूझ भाषा को
और
"कुछ" बचा लो ………उम्र के दरकने से पहले



बुधवार, 21 नवंबर 2012

कसाब को अचानक फ़ांसी दे दी गयी ………आखिर क्यों?

कसाब को अचानक फ़ांसी दे दी गयी ………आखिर क्यों?
अफ़ज़ल गुरु …………2014 तक

सब राजनीति है ……सरकार जानती है चारों तरफ़ से वो घिरी हुयी है भ्रष्टाचार , मंहगाई आदि के मामलों में और बचने का कोई उपाय दिख नहीं रहा था और इधर गुजरात , हिमाचल आदि के चुनाव सिर पर हैं तो आखिरी हथियार के तौर पर कसाब भुनाया गया …………मुख्य कारण तो फ़िलहाल आनन फ़ानन मे यही दिखता है वरना जिसे जँवाई बनाकर इतने दिनों से संभाल कर रखा था, अरबों रुपया जिसकी सुरक्षा पर खर्च किया गया था उसे ऐसे कैसे जाने देते ………बस हलाल करने के मौके का ही तो इंतज़ार था।


आखिर ओबामा के पदचिन्हों  पर चलकर कुछ तो सीखा ……अचानक इसलिये घटित हुआ क्योंकि समय कम था और काम बडा ………जैसे ओबामा ने किया वैसा ही अब ये सरकार कर रही है गुपचुप तरीके से देश के दुश्मन का खात्मा करो और जनता का रुख अपनी तरफ़ मोड लो फिर चाहे पाँच साल तक जनता का दोहन करो । अब ये जनता पर है कि वो अपनी कुम्भकर्णी नींद से जागती है या नहीं और सरकार की कारगुजारियों को समझती है या नहीं ।


दूसरी बारी अफ़ज़ल गुरु की ……बस इंतज़ार करिये 2014 का ………कारण सिर्फ़ एक होगा………सत्ता पर काबिज़ रहना ……येन केन प्रकारेण ………

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

भावों का रेला

 1)

शब्दों की बयार पर दौडी चली आती थी 
घन घन मेघ सी छा जाती थी 
ये सोच पर कैसा पडा पाला है 
उमंगो पर भी लगा भावों का ताला है 
वक्त की जो ना बन पायी थाती है 
ये कैसी ज़िन्दगी की परिपाटी है 
चिकनी सपाट सडकों पर भी 
ज़िन्दगी क्यों उलझ उलझ जाती है

यूँ ही नही हर मोड पर अंधी ,खामोश और गहरी खाई है



2)
शब्दों की बारात कहाँ से लाऊँ 
वो सुनहरा साथ कहाँ से लाऊँ 
जो उमड पडता था भीतर से 
वो जज़्बात कहाँ से लाऊँ 

शायद तभी उजडे दयारों मे महफ़िलें नही जमा करतीं………
 

3)

मै इक पहर सी गुजर जाती 
जो तेरी चाहत मे बंध जाती
यूँ तो मोहब्बत का कोई पहर नही होता 
फिर भी हर पहर के लम्हों मे याद बन सिमट जाती


भूले से भी ना छूना उन तहरीरों को 
जिन पर अक्स चस्पाँ होते हैं
बेशक नज़र नही आते मगर
हर हर्फ़ मे आईने गुमाँ होते हैं


4)

कभी कभी खामोशियाँ भी दस्तक नही देतीं 
लम्हों की इससे बडी सज़ा क्या होगी


5)
काश! ज़िन्दगी जवाब दे पाती 
जीने का कोई तरीका बतला पाती 
शायद उसकी भी कोई हसरत निकल आती 

बेजुबान ज़िन्दगी का खामोश सच्……है ना



6)

प्रीत जब कस्तूरी हुई मेरी 
दीवानगी की ना कोई हद रही 
सांवरिया……
अब बिगडी बनाओ या संवारो तुम्हारी मर्ज़ी 
मैने तो जीवन नौका तेरे हवाले कर दी


7)

भावशून्यता शब्दहीनता इकट्ठे हो जायें 
वो पल कहो फिर कैसे कट पायें..........

जैसे रसहीन गंधहीन रंगहीन गुलाब कोई अपने वजूद पर हँस रहा हो……
 

8)

दिल की कडियों के बीच खालीपन यूँ ही नही पसरा होगा 
कोई लम्हा जरूर सुलगती हवा- सा बीच से गुजरा होगा


9)
दर्द यूँ ही नही उतरता लफ़्ज़ों मे
दर्द भी कसक जाता है तब शब्द बन कर ढलता है 
मगर दर्द कभी भी ना पूरा बयान होता है 
इक अधूरा अबूझा आख्यान होता है

10)

दिल की तपिश पर इक अंगार रख चला गया कोई
ये उजडे दयार मे फिर सुलगती चिता छोड गया कोई
अब और क्या बचा जुनून मरने का ओ मेरे मौला
मेरी कब्र पर मुझसे ही गुलाब चढवा गया कोई


11)

फिर कोई नाखुदा मुझे खुदा से मिला दे
रात और दिन का हर फ़र्क मिटा दे
सिलवटों की सिहरनों से आज़ाद करा दे
ओ मौला मेरे, जिस्म को जाँ से मिला दे



12)

कोई एक आह होती तो
सिसकती भी .......निकलती भी
यहाँ तो आहों का बाज़ार लगा है
किस किस का हिसाब रखे कोई
सुकून मिलता है साए में इनके ही
अब किसी ख़ुशी की कोई चाह नहीं
दर्द का कोई नक्शा नहीं होता ना
शायद इसीलिए बिन नक़्शे वाली
दर्द की इबारतों पर मकान नहीं बनते ......



13)
अफ़साने अफ़साने रहे
जिसमे ना "मै" "तुम" रहे

आक के पत्तों का अर्क भी कभी पिया जाता है





रविवार, 11 नवंबर 2012

क्या है दिवाली का औचित्य?


सृजक पत्रिका के प्रथम संस्करण में प्रकाशित मेरा ये आलेख


यूँ   तो हर साल हम दिवाली  का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं और खुश होते हैं जैसे कितना बड़ा किला फतह कर लिया हो . जैसे सच में हमने रावण  का अंत कर दिया हो , जैसे सच में अँधेरे पर रौशनी की जीत हो गयी हो मगर क्या सच में ऐसा होता है ? क्या हम इस सच से अन्जान  हैं कि  आज भी अँधेरे का साम्राज्य चहूँ ओर  छाया हुआ है , आज भी रावण का राज्य उसी तरह विस्तार पा  रहा है जैसे तब था , आज भी सीता का हरण हो रहा है , आज भी  ईमानदार  और सत्यवादी का ही शोषण हो  रहा है , वो आज भी सत्य की कसौटी पर खरा उतने की कोशिश में बार बार मूंह की खा रहा है सिर्फ इसी कारण  कि  हम में ही कहीं न कहीं वो रावण  छुपा है जो आज भी राम की विश्वास रुपी सीता का हरण कर रहा है तभी तो ये देश , ये समाज कैसे गर्त में जा रहा है जिससे लगता है रावन राज्य  का कभी अंत हुआ ही नहीं .

सिर्फ फूलझड़ियाँ जला लेना , पटाखे चला लेना , दिए जला लेना ,घर आँगन बुहार लेना और पकवान बना लेना ही दिवाली मनाना  नहीं होता .अपने घर की सुख शांति के लिए लक्ष्मी गणेश की पूजा कर लेना , उनसे वैभव रिद्दी सिद्धि मांग लेना ही दिवाली मनाना नहीं होता .

सदियों से हम दिवाली को प्रतीक  के रूप में मनाते  आये मगर कभी  उसके महत्त्व को अपने जीवन में उतरना नहीं चाहा , कभी उसका महत्त्व समझना नहीं चाहा  तभी हमारा ये हाल है . चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार, घोटालों, बेईमानी ,हिंसा , यौन उत्पीडन , बलात्कार आदि का ही बोलबाला है और हम मूकदर्शक बने खड़े हैं ये सोच ऐसा हमारे साथ तो नहीं हुआ इसलिए हम क्यों आगे बढें , क्यों दूसरे  के फटे में टाँग  अडायें , अरे भाई हमें तो अपनी गृहस्थी संभालनी है और हम मूँह  फेर लेते हैं ऐसी विभीषिकाओं से जो एक दिन हमें अपने चंगुल में लपेट लेती हैं और उसके बाद कोई रास्ता खुला नहीं दिखता  तो हम बिलबिलाते हैं , कसमसाते हैं मगर तब भी ये नहीं समझ पाते हैं कि  हमने ही तो ये फसल बोई थी तो आज  काटनी  भी पड़ेगी . जबकि हम सभी जानते हैं कि  राम ने कभी असत्य , हिंसा , , झूठ कपट का रास्ता नहीं अपनाया उन्होंने हमेशा मर्यादित जीवन जिया मगर हम सिर्फ उनके जीवन को एक खेल तमाशा बनाकर मनोरंजन करते हैं , 10 दिन रामलीला की छुट्टियां मनाते हैं और फिर अपने काम पर लग जाते हैं मगर उनके जीवन के एक भी आदर्श को जीवन में नहीं उतारते तो भला ऐसे दिवाली का त्यौहार मनाने का क्या औचित्य ?

क्या हम खुद को धोखा नहीं दे रहे ? क्या हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को आँख मूंदने वाले संस्कार नहीं दे रहे? और हमारे  ऐसे कृत्यों से किसका भला होगा ? क्या देश का, क्या समाज का , क्या हमारे बच्चों का ? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर समय रहते नहीं खोजा गया तो आने वाली पीढियां गूंगी , बहरी और अंधी  होंगी और उसके जिम्मेदार हम होंगे जो उनमे संस्कारों और मर्यादाओं के बीज न रोप सके और हमारे इस देश का नाम जो आज भी गौरव की बात है , सम्मान से लिया जाता है उसमे हमारी नपुंसकता का एक काला  अध्याय और जुड़ जायेगा जिसे किसी भी स्याही से न मिटाया जा सकेगा इसलिए जरूरी है वो वक्त आने से पहले हम चेत जायें और दिवाली के महत्त्व को समझें और समझायें और उसे जीवन में उतारें न केवल अपने बल्कि हर इंसान के दिल में एक दिवाली का दीया जलायें  तभी उसके  प्रकाश से हम , हमारा समाज और हमारा देश आलोकित होंगे  और यही तो दिवाली मनाने का  वास्तविक सन्देश है ..........हर घर आँगन आलोकित हो सत्य, अहिंसा,  ईमानदारी  और सदाचार के आलोक से .

बुधवार, 7 नवंबर 2012

क्रांति के बीज यूँ ही नहीं पोषित होते हैं

जिसने भी लीक से हटकर लिखा

परम्पराओं मान्यताओं को तोडा

पहले तो उसका दोहन ही हुआ

हर पग पर वो तिरस्कृत ही हुआ

उसके दृष्टिकोण को ना कभी समझा गया

नहीं जानना चाहा क्यूँ वो ऐसा करता है

क्यूँ नहीं मानता वो किसी अनदेखे वजूद को

क्यूँ करता है वो विद्रोह

परम्पराओं का

धार्मिक ग्रंथों का

या सामाजिक मान्यताओं का

कौन सा कीड़ा कुलबुला रहा है

उसके ज़ेहन में

किस बिच्छू के दंश से

वो पीड़ित है

कौन सी सामाजिक कुरीति

से वो त्रस्त है

किस आडम्बर ने उसका

व्यक्तित्व बदला

किस ढोंग ने उसे

प्रतिकार को विवश किया

यूँ ही कोई नहीं उठाता

तलवार हाथ में

यूँ नहीं करता कोई वार

किसी पर

यूँ ही नहीं चलती कलम

किसी के विरोध में

यूँ ही प्रतिशोध नहीं

सुलगता किसी भी ह्रदय में

ये समाज  में

रीतियों के नाम पर

होते ढकोसलों ने ही

उसे बनाया विद्रोही

आखिर कब तक

मूक दर्शक बन

भावनाओं का बलात्कार होने दे

आखिर कब तक नहीं वो

खोखली वर्जनाओं को तोड़े

जिसे देखा नहीं

जिसे जाना नहीं

कैसे उसके अस्तित्व को स्वीकारे

और यदि स्वीकार भी ले

तो क्या जरूरी है जैसा कहा गया है

वैसा मान भी ले

उसे अपने विवेक की तराजू पर ना तोले

कैसे रूढ़िवादी कुरीतियों के नाम पर

समाज को , उसके अंगों को

होम होने दे

किसी को तो जागना होगा

किसी को तो विष पीना होगा

यूँ ही कोई शंकर नहीं बनता

किसी को तो कलम उठानी होगी

फिर चाहे वार तलवार से भी गहरा क्यूँ ना हो

समय की मांग बनना होगा

हर वर्जना को बदलना होगा

आज के परिवेश को समझना होगा

चाहे इसके लिए उसे

खुद को ही क्यूँ ना भस्मीभूत करना पड़े

क्यूँ ना विद्रोह की आग लगानी पड़े

क्यूँ ना एक बीज बोना पड़े

जन चेतना , जन जाग्रति का

ताकि आने वाली पीढियां ना

रूढ़ियों का शिकार बने

बेशक आज उसके शब्दों को

कोई ना समझे

बेशक आज ना उसे कोई

मान मिले

क्यूँकि जानता है वो

जाने के बाद ही दुनिया याद करती है

और उसके लिखे के

अपने अपने अर्थ गढ़ती है

नयी नयी समीक्षाएं होती हैं

नए दृष्टिकोण उभरते हैं

क्रांति के बीज यूँ ही नहीं पोषित होते हैं

मिटकर ही इतिहास बना करते हैं

सोमवार, 5 नवंबर 2012

क्षणिका………एक दृष्टिकोण



क्षण क्षण भावों का रेला
कैसे रूप बदलता है
तभी तो प्रतिपल
क्षणिका का ढांचा बनता है

क्षणिक अभिव्यक्ति
क्षणिक आवेग
क्षणिक संवेग
क्षणिक है जीवन की प्रतिछाया
तभी तो क्षणिका के क्षण क्षण मे
जीवन का हर रंग समाया




क्षण क्षण मे क्षण घट रहा
नया रूप ले रहा
वंचित भावों का उदगम स्थल
त्वरित विचारों का जाल
क्षणिका का रूप बन रहा


दोस्तों ,


क्षणों का हमारे जीवन मे कितना महत्त्व है ये उस वक्त पता लगा जब सरस्वती सुमन पत्रिका का त्रैमासिक क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर - दिसम्बर 2012)  मिला तो ख़ुशी का पारावार न रहा . इतनी बड़ी पत्रिका में एक नाम हमारा भी जुड़ गया . ह्रदय से आभारी हूँ हरकीरत हीर जी की और जीतेन्द्र जौहर जी की जो उन्होंने हमें इस लायक समझा और इतने वरिष्ठ कवियो और  रचनाकारों के बीच एक स्थान हमें भी दिया .

क्षणिका विशेषांक पढना अपने आप में एक सुखद अनुभूति है . सबसे जरूरी होता है उस विशेषांक का महत्त्व दर्शाना और उसकी विशेषता बताना , उसकी बारीकियों पर रौशनी डालना और ये काम आदरणीय जीतेन्द्र जौहर जी ने बखूबी किया है .पहले तो सबकी क्षणिकाएं आमंत्रित करना उसके बाद 179 रचनाकारों को छांटकर उन की क्षणिकाओं को स्थान देना कोई आसान कार्य नहीं था जिसे हरकीरत जी ने बखूबी निभाया . तक़रीबन एक साल से वो इसके संपादन में जुडी थीं ....नमन है उनकी उर्जा और कटिबद्धता को .

सरस्वती सुमन का क्षणिका विशेषांक यूं लगता है जैसे किसी माली ने  उपवन के एक- एक फूल पर अपना प्यार लुटाया हो . कुछ भी व्यर्थ या अनपेक्षित नहीं ........सब क्रमवार . संयोजित और संतुलित ढंग से सहेजना ही कुशल संपादन का प्रतीक है . शुभदा पाण्डेय जी द्वारा " क्षणिका क्या है " की व्याख्या करना क्षणिका के महत्त्व को द्विगुणित करता है . क्षणिका के शिल्प और संवेदना पर प्रोफेसर सुन्दर लाल कथूरिया जी का आलेख क्षणिका के प्रति गंभीरता का दर्शन कराता है तो दूसरी तरफ डॉक्टर उमेश महादोषी ने क्षणिका के सामर्थ्य पर एक बेहद सारगर्भित आलेख प्रस्तुत किया है जो क्षणिका की बारीकियों के साथ कैसे क्षणिकाएं लिखी जाएँ उस पर रौशनी डालता है और कम से कम नवोदितों को एक बार इस विशेषांक को जरूर पढना चाहिए क्योंकि ये विशेषांक अपने आप में क्षणिकाओं का एक महासागर है जिसमे वो सब कुछ है जो किसी को भी लिखने से पहले पढना जरूरी है . बलराम अग्रवाल जी द्वारा क्षणिका के रचना विधान को समझाया गया है कि  काव्य से क्षणिका किस तरह भिन्न है और उसे कैसे प्रयोग करना चाहिए , कैसे लिखना चाहिए हर विधा को बेहद सरलता और सूक्ष्मता  से समझाया गया है .

पूरा विशेषांक एक उम्दा , बेजोड़ , पठनीय और संग्रहनीय संस्करण है और यदि ये संस्करण किसी के पास नहीं है तो वो एक अनमोल धरोहर से वंचित है . सब रचनाकारों के विषय में कहना तो कठिन है क्योंकि सभी बेजोड़ हैं . हर क्षणिका अपने में एक कहानी समेटे हुए हैं . सोच के दायरे को विस्तार देती अपने होने का अहसास कराती है जो किसी भी पत्रिका का अहम् अंग होता है . क्षणिका विशेषांक निकलना अपने आप में पहला और अनूठा प्रयास है जो पूरी तरह सफल है जिसकी सफलता में सभी संयोजकों और संपादकों की निष्ठा और लगन का हाथ है जिसके लिए सभी रचनाकार कृतज्ञ हैं।

अंत में आनंद सिंह सुमन जी का हार्दिक आभार जो अपनी पत्नी की याद में ये पत्रिका निकालते हैं अगर कोई संपर्क करना चाहे तो इस मेल या पते पर कर सकता है

सारस्वतम
1---छिब्बर मार्ग (आर्यनगर) देहरादून --- 248001

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