कुछ सच्चाइयों से हम रु-ब-रु हो ही नहीं पाते क्योंकि आँखों पर अपनी ज़िन्दगी का ही चश्मा लगा होता है उससे इतर कुछ दिखता ही नहीं ……मगर कुछ सत्य कितने दुरूह होते हैं जिन्हें कोई कैसे शब्दों में बाँध देता है और चुप हो जाता है मगर उसकी चुप्पी उस क्षण बहुत खलती है जो बिना कहे भी बहुत कुछ कहती है ………ऐसे ही एक शख्स हैं मनोहर बाथम जी बी एस एफ़ में इंस्पैक्टर जनरल के पद पर कार्यरत हैं जिन्होने अपना काव्य संग्रह ' सरहद से ' मुझे बडे प्रेम से भेजा है और जिसे जितना पढ रही हूँ बस भीगे जा रही हूँ और मौन हुए जा रही हूँ एक एक कविता दिल पर प्रहार करती है बिल्कुल सहज सरल भाषा मगर कितनी मारक इसका नमूना देखिये :
जुर्म
(कामरेड हमीद के लिए )
ईद के दिन हमारी चौकी पर
पीछे के दरवाज़े से
उसने सेवईयाँ भेजीं चुपचाप
किसी को न बताने की शर्त थी
मेरी दीपावली की मिठाई भी शायद
इसी तरह से जाती
वो हो गया रुखसत दुनिया से
मेरे साथ ईद मनाने के जुर्म में
न जाने किन हालात से गुजरते हैं सीमा पर रहने वाले जहाँ कोई अपना नहीं होता और दुश्मन में भी मिल जाते हैं कभी कभी अपने से या कहो युद्ध तक ही बेगानापन होता है बाकि वक्त तो जैसे हमनिवाला बन जीते हैं ऐसी न जाने कितनी कवितायें हैं जो उस जीवन को तो जीवन्त करती ही हैं बल्कि उन दिलों में उपजी संवेदना और एकाकीपन की तस्वीर को भी उजागर करती हैं क्योंकि जो नहीं कहा गया वो कहीं ज्यादा कचोटता है , ज्यादा तकलीफ़ देता है , ऐसी कवितायें जो आपको मूक कर दें और सोचने पर मजबूर जहाँ आप न रो सकें न हँस सकें सिर्फ़ मौन हो सोचने पर विवश हो जाएं एक ज़िन्दगी ऐसी भी हुआ करती है जिसके बल पर हम हँसी खुशी घरों में रहा करते हैं ………
वैसे ये कवितायें कहाँ ये तो वो दुरूह हकीकतें हैं जिनसे रु-ब-रु होना हर भारतीय के लिए जरूरी है क्योंकि आखिर हैं तो वो भी हमारी ही तरह इंसान , उनके दिल में भी दया , करुणा और संवेदना बसती है बस देश की खातिर देश में रहने वालों की खातिर खुद अपने सीने पर पत्थर रख कैसे मौत और ज़िन्दगी से आँख मिचौनी खेलते हुए जीने के बहाने ढूँढते हैं उन्ही लम्हात का चित्रण इस बारीकी से किया गया है कि पाठक चौंक उठता है तो कहीँ स्तब्ध रह जाता है तो कहीं निशब्द हो जाता है जहाँ एक ओर हम जरा जरा सी बात पर लड मरते हैं एक दूसरे का कत्ल तक कर देते हैं यहाँ तक कि रिश्तों को भी ताक पर रख देते हैं वहाँ एक सैनिक किन किन के साथ न केवल रहता है बल्कि उन्हें अपने परिवार का हिस्सा बना लेता है देखिए उसकी एक बानगी :
मैं और मेरे साथी
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इस दो सौ गज के टुकड़े पर
मैं और मेरे साथी
मेरे घोड़े ऊँट
मेरा कुत्ता कालू
और कुछ घुसपैठिये चूहे
सभी रहते हैं
एक मंदिर है इसी दो सौ गज में
नमाज भी पढ़ी जाती है
क्रिसमत पर केक भी कटता है
वाहे गुरु की आवाज़ें
रोज सुन लेना
रहने का सलीका
सीखना हो अगर
बी ओ पी में चले आना ( सीमा चौकी )
एक सैनिक के भी दिल होता है भारत माँ के बाद होती है कहीं उसकी भी माँ तो समझ सकता है वो माँ के दिल को मगर अपने कर्तव्य से कैसे विमुख हो सकता है , उसे तो देश हित में अपनी ड्यूटी पूरी करनी ही है फिर चाहे वो कोई हो कुछ ऐसे ही जज़्बातों से जब कवि ह्रदय व्याकुल होता है तो फ़ूट पडती है वेदना अक्षरक्ष : उसकी कलम में जो वो वहाँ न दिखा सकता है न कह सकता है किसी से वो व्यक्त तो होनी होती है तो हो जाती है कलम के माध्यम से कुछ इस तरह :
माँ
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आतंकी का मकान
देख लें -- मैने कहा
चप्पा चप्पा छान लो
ऊपर नीचे छान लो
कुछ मत छोडना
कहीं भी हो सकता है वो
सब अस्त व्यस्त करने के बावजूद
न मिला कुछ
सफ़ेद बाल मोटा चश्मा
पेट में कांगडी फ़िरन के अन्दर
साठ साल में ऐसी विनम्रता '
बेटा अब बँद कर लूँ दरवाज़ा' '
माँ माफ़ करना ' मैने कहा
' हमने सब सामान बिखेर दिया है '
'माफ़ी किस बात की बेटा '
' वो अपना काम कर रहा है '
गलत या सही मैं नहीं जानती --
तुम अपना काम कर रहे हो
गलत या सही मैं नहीं जानती
मैं तो तुम दोनो को ही
नहीं कोस सकती
मैं माँ हूँ
वहीं दूसरी तरफ़ एक दूसरी माँ की वेदना और आतंकवादी हमलों के कहर का जीवन्त दृश्य उकेरना यूँ ही संभव नहीं होता जो गुजरा होता है उन परिस्थितियों से वो ही व्यक्त कर सकता है त्रासदी की भयावहता :
गूँगा
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हर चौथे रोज़ ही दीखती थी
दो - तीन बरस के बच्चे के साथ
डॉक्टर से गिडगिडाती
बच्चे के बोलने के इलाज के लिए
' गूँगा' लग्ज़ उसे अच्छा नहीं लगता
माँ की तरह डॉक्टर भी
उम्मीदों के साथ
कि कभी तोतली आवाज़ से सही
निकलेगा ' अम्मी '
कल की ही तो बात है
उस जालिम के बम से
चीखों से सारी बस्ती गूँजी
कहते हैं पहली और आखिरी बार
गूँग़ा भी ' अम्मी' पुकारते
चीखा
आखिर सैनिक होता तो एक इंसान ही है तो मरने के बाद कहाँ रह जाती है कोई दुश्मनी बचता है तो एक इंसान वहीं दूसरी तरफ़ इस तरह मरने और मारने से आतंक कम नहीं होता बल्कि और बढ जाता है उस वेदना को बिना शब्दों की बर्बादी के कवि ने इस तरह उकेरा है कि आँख के आगे चलचित्र सा चलने लगता है :
क्षणिक खुशी
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मेरे हाथ से जब
पहला आतंकी मरा
वो खुशी का पल
क्षणिक था
उसके मरने का बिल्कुल नहीं
मारने पे ज्यादा दुख
पता नहीं क्यों?
इस मर जाने से
मरा नहीं आतंक
नहीं मिला चैन
गरीबों और बेसहारों को
कुछ और बढ गए
इस फ़ेहरिस्त में नाम
ऐसी जाने कितनी कवितायें हैं जो कम शब्दों में मारक वार करती हैं , हर कविता एक सच्चाई को बयाँ करती है फिर वो कच्छ में रन का रेगिस्तान हो या वहाँ के जीवन और उसकी कठिनाइयाँ , या फिर फ़्लेमिंगो के प्रवास से जुडे कवि के सैन्य जीवन के अनुभव या फिर कश्मीर की वादियों में पडे लहू के छीँटे हर घटना को सलीके से कवि ने न केवल उकेरा है बल्कि कहीं कोई शोर शराबा नहीं एक वीभत्स सन्नाटा जो शनै: शनै: दस्तक देता हो और अन्तस मे चिकोटी भरता हो इस तरह आत्मा में उतरती कवितायें किसी भी ह्रदय में उथल पुथल मचाने में कामयाब होती हैं । सरल सहज और सुलझी भाषा में कम शब्दों मे गहरी बात कह देना कवि के लेखन की विशेषता है । यूँ तो दो संग्रह आ चुके हैं कवि के और 5 हजार प्रतियाँ बिक चुकी हैं मगर देखिए विशेषता वो ही सैन्य जीवन का अनुशासन काबिज़ है कहीं कोई शोर नहीं , कहीं आत्म प्रचार नहीं शायद सब जानते भी नहीं कि कोई सरहद पर रहने वाले ने ऐसा कुछ लिखा है जबकि आज यदि किसी की 500 प्रतियाँ भी बिक जाएं तो खुद को जाने क्या समझने लगता है , प्रचार के लिए व्याकुल हो उठता है वहीं मनोहर बाथम जी में वो ही अनुशासन कायम है जो एक सैनिक के जीवन में हमेशा होता है जो कभी अपने नाम के प्रचार प्रसार के लिए काम नहीं करता बल्कि देश हित में अपने प्राणों का बलिदान दे देता है । जल्द ही हमारे हाथों में उनका तीसरा काव्य संकलन होगा जिसकी मुझे बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी ………शुभकामनाओं के साथ उस सैनिक को नमन करती हूँ जिसने हमें अपने कवि रूप से अवगत तो कराया ही बल्कि उन परिस्थितियों से भी रु-ब-रु करवाया । कोई यदि पढना चाहता हो तो संकलन शिल्पायन प्रकाशन से मंगवा सकता है ।
शिल्पायन फोन : 011-22821174