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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

स्वागत तो आपको करना ही पडेगा

स्वागत तो आपको करना ही पडेगा 
विगत के भय , संशयों और आशंकाओं को त्याग कर 
क्योंकि विगत की कहीं ना कहीं की गयी 
उपेक्षा ही कारण होती है 
आगत के दर्शन का 
आगत के शोक का 
आगत के भय का 
और इस बार त्यागना है उन आशंकाओं की मशालों को 
जिनसे भयभीत हम करते हैं बीजारोपण 
आने वाले कल में उन बीजों का 
जिनकी कोई शक्ल नहीं होती 
मगर हम खींच देते हैं तस्वीर 
और फिर करते हैं स्यापा ये जाने बिना 
निर्माता हैं हम खुद ही उस तस्वीर के 
जनक हैं उस शिशु के जिसका जन्म 
हमारी ही नपुंसकता से हुआ है 
और ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा था और चलता रहेगा 
जब तक नहीं होंगे हम मुक्त 
अपनी ही आशंकाओं के बादलों से 
और नहीं करेंगे स्वागत आगत का 
हर्षमिश्रित मुस्कानों और मीठी ज़ुबानों से 
आओ करें आहवान एक खुशगवार कल का ............


नववर्ष 2014 सभी के लिये मंगलमय हो ,सुखकारी हो , आल्हादकारी हो …………

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है

जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है 
बस लकीर का फ़क़ीर बनना ही मुझे आता है 
बदलाव की बयार भी मुझको चाहिए 
जादू की मानो कोई छड़ी होनी चाहिए 
जो घुमाते ही अलादीन के चिराग सी 
सारे मसले हल करनी चाहिए 
मगर सब्र की कोई ईमारत ना मैं गढ़ना चाहता हूँ 
बस मुँह से निकली बात ही पूरी करना चाहता हूँ 
खुद को आम बताता जाता हूँ 
मगर खास की श्रेणी में आना चाहता हूँ 
आम -ओ- खास की जद्दोजहद से 
ना बाहर आना चाहता हूँ 
जो है जैसा है की आदत से न उबरना चाहता हूँ 
यही मेरी कमजोरी है 
जिसका फायदा भ्रष्ट तंत्र उठाता जाता है 
और मैं आम आदमी यूं ही 
सब्जबागों में पिसा जाता हूँ 
साठ साल से खुद को छलवाने की जो आदत पड़ी 
उससे ना उबर पाता हूँ 
मगर किसी दूजे को छह साल भी 
ना दे पाता हूँ 
जो मेरे लिए लड़ने को तैयार है 
जो मेरे लिए सब करने को तैयार है 
उसे ही साथ की जमीन ना दे पाता हूँ 
फिर क्यों मैं बार बार चिल्लाता हूँ 
फिर क्यों मैं बार बार घबराता हूँ 
फिर क्यों मैं बार बार दोषारोपण करता हूँ 
जब आम होते हुए भी आम का साथ ना देता हूँ 
नयी परिपाटी को ना जन्मने देता हूँ 
ये कैसा आम आदमी का आम आदमी से नाता है 
जो आम को आम बने रहने के काम ना आता है 

इसीलिए सोचता हूँ 
जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है 
बस लकीर का फ़क़ीर बनना ही मुझे आता है

रविवार, 22 दिसंबर 2013

जानते हो मेरे इंतज़ार की इंतेहा

इश्क और इंतज़ार 
इंतज़ार और इश्क 
कौन जाने किसकी इंतेहा हुयी 
बस मेरी मोहब्बत कमली हो गयी 
और मेरे इंतज़ार के पाँव की फटी बिवाइयों में 
अब सिर्फ तेरा नाम ही दिखा करता है 
खुदा का करम इससे ज्यादा और क्या होगा 
देखूँ जब भी अपना चेहरा तेरा दिखा करता है 


जानते हो मेरे इंतज़ार की इंतेहा 
सारा शहर पत्थर हो गया 
हर नदी नाला सूख गया 
हर शाख जो हरी भरी थी 
पाला पड़ी फसल सी 
ज़मींदोज़ हो गयी 
दिल की जमीन ऐसी बंजर हुयी 
बादल कितना ही बरसें 
हरी होती ही नहीं 
शिराओं में जो बहती थी लहू बनकर 
मोहब्बत वहीँ थक्कों सी जम  गयी 
देख तो इंतेहा मोहब्बत की 
अश्क जो बहते थे आँखों से 
वहाँ अब तेरे नाम की इबादतगाह बन गयी 
चप्पे चप्पे पर तेरा नाम लिखा है 
आँख से झरना नहीं तेरा नाम झरा है 
क्या तू भी कभी ताप से नहीं शीत से जला है ……मेरी तरह महबूब मेरे!!! 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

तुम हो तो ………मेरी नज़र में

पाथेय प्रकाशन जबलपुर से प्रकाशित कवयित्री प्रतिमा अखिलेश का प्रथम काव्य संग्र "तुम हो तो " छंदमुक्त और छंदबद्ध कविताओं का एक खूबसूरत संकलन है जिसमे प्रेम की प्रधानता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अपने प्रियतम को ही " तुम हो तो " नाम देकर संकलन को समर्पित कर दिया गया है।  संग्रह की विशेषता है कि इसमें जीवन के प्रत्येक पहलू को संकलित करने की कोशिश की गयी है फिर चाहे प्रकृति हो , ईश्वर हो , दलित विमर्श हो या स्त्री विमर्श , सामजिक चेतना हो या राजनितिक विडंबनाएँ सभी विषयों को समाहित करता संकलन वैविध्य की दृष्टि से खुद को विशिष्ठ बनाता है।  

प्रेम को परिपूर्णता देना कोई कवयित्री से सीखे जिसने अपने जीवनसाथी में ही सारा प्रेम का ब्रह्माण्ड खोज लिया तभी तो वो कहती हैं 

"जीवनसाथी /तुम हो तो/ ईंगुर/ कुमकुम/ कजरे की धार/ श्रृंगार/ महावर/ पायल / बाजूबन्द हैं /तुम हो तो / प्रकृति/ सृष्टि/ ईश्वर/किस्मत / सौभाग्य / समय / सब मेरे संग हैं /तुम्हीं से मेरे जीवन का /धर्म कर्म / अनुबंध है "

इसी तरह जीवन यात्रा को साहित्यिक रूप बहुत ही खूबसूरती से दे दिया जहाँ चंद शब्दों में पूरे जीवन की यात्रा को चित्रित कर दिया :

"जीवन / एक साहित्यिक यात्रा रहा / काव्यानुभूति से शुरू हुआ बचपन/ यौवन की / पद्यात्मक अनुभूति पार करता / प्रौढ़ हो चला है / गद्यात्मक एवं व्यंग्यात्मक शैली में / और अब कहानी बन / प्रतीक्षारत है / उपसंहार की और "

तो दूसरी तरफ एक गरीब लाचार माँ की पीड़ा से पीड़ित मन ईश्वर के अस्तित्व को भी झंझोड़ देता है और एक प्रश्न उसकी तरफ भी उछाल देता है जिसमे एक माँ की वेदना अपने चरम पर होती है :

" हे बाल गोपाल / क्षमाप्रार्थी हूँ कि / मैं उखाड़ फेंका तुम्हारे चित्र को / दीवार से / खूँटी से क्योंकि मेरी ममता तार तार हो रही थी / मैं नहीं सह पा रही थी / मेरे बच्चों का / चूल्हे के पास बैठकर / रूखी सूखी खाना / और लालायित आँखों से / तुम्हारी मटकी से बहता / दूध दही / मुख पर लिप्त / मक्खन देखना / मेरा ह्रदय दो भागों में बाँट जाता है / जब नन्हा कहता है / बड़े मनुहार से / माँ तू कब मक्खन देगी/ सूखी रोटी गले में अटकती है " 

वेदना की पराकाष्ठा को छूती पंक्तियाँ यूँ प्रतीत होती हैं मानो निकट से गुजरीं हों उस तकलीफ से 


" कोई तो रोक ले " कविता में बाल मजदूरी के प्रति कवयित्री का मन समाज के असंवेदनशील होते मन से एक प्रश्न कर रहा है अगर ऐसा होता रहा तो कल देश का भविष्य कैसा होगा ?

"ईश्वर" कविता में समाज में फैली दरिंदगी के लिए कवयित्री ईश्वर को भी कटघरे में खड़ा कर देती है कि अगर तुम हो तो निसहाय बच्चियों के साथ अमानवीय अत्याचार बलात्कार के रूप में क्यों हो रहा है तुम्हें सिद्ध करना होगा अपने अस्तित्व को नहीं तो नकारती है कवयित्री की संवेदना ईश्वर के अस्तित्व को जो दर्शाता है व्यथा जब हद से पार हो जाती है तो किस चरम पर पहुँच जाती है। 

जो हमारे लिए बेकार है , जो टूट चुका  है , जो फट चुका  है , जो रद्दी है और फेंक दिया जाता है कूड़े के ढेर में वो भी किसी के जीवन को खुशियां दे सकता है , वो भी किसी का खिलौना बन सकता है , वो भी किसी के लिए काम का बायस बन सकता है इस भाव को दर्शाया है "खिलौने " कविता में कवयित्री ने कैसे कूड़े के ढेर से बीने गए टूटे फूटे खिलौने , पन्नियां, नेल पोलिश की शीशियां , साईकिल की  चेन ,काले नीली आड़े तिरछे पत्थर बन जाते हैं उनके खिलौने जिसमे पा लेते हैं वो सारे जहाँ की खुशियां मानो कारूँ का खज़ाना मिल गया हो और इस बीच उनकी माएं निपटा लेती हैं घर के सारे काम ……… एक दूरदृष्टि को दर्शाती कवयित्री की सोच कितना गहरे उतर जाती है इसको दर्शाती रचना  पाठक को भावुक कर जाती है। 

"माँ/ मैं कैसे बन पाऊंगी / वीरांगना / तू तो लड़ने ही नही देती / नुराइयों से / बेड़ियों से / अत्याचारियों से / अन्यायियों से / आवाज़ नहीं उठाने देती / पापियों / नरसंहारों / दुष्टों के विरुद्ध / बस चुप कराके दुबका देती है बिछौने में "

"वीरांगना "कविता में एक बच्ची का अपने जन्म से लेकर शुरू हुए संघर्ष को एक दिशा देती बेटी की पुकार है जहाँ वो पुरुष प्रधान समाज की कमजोरियों को इंगित करती है और माँ के माध्यम से एक सन्देश देती है कि अब नारी को खुद उठना होगा और उसकी हुंकार से ना केवल दिशाएं विचलित होंगी बल्कि सोच में भी बदलाव करना होगा। 

" अछूत " कविता किसी जाति , धर्म या व्यक्ति पर नहीं बल्कि इंसानी मानसिकता पर एक प्रहार है कि छोटी सोच के कारण ही ये समाज बीमार है क्योंकि कर्मों की उच्चता ही श्रेष्ठता को सिद्ध करती है ना कि जाति या धर्म की दीवार। 

"अंतर " एक करारा प्रहार मानव की मानसिकता पर।  कैसी छोटी सोच के साथ हम जीते हैं जहाँ हमें नहीं दिखता उम्र का अंतर और वो होती है हमारी असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा जब एक ही उम्र के दो बच्चों में हम भेदभाव करते हैं क्योंकि एक अपना बेटा है और दूसरा कामवाली बाई का बेटा …… छोटी छोटी घटनाओं या रोजमर्रा की ज़िन्दगी में घटित होती आम ज़िन्दगी में गुजरती विसंगतियों -की ओर कवयित्री ईशारा करती है और सोचने को विवश कि आखिर कैसे हम फर्क कर जाते हैं अपने और पराये में और यही तो दूरदृष्टि है। 

सफलता , ज़िन्दगी और वक्त को "हम चाहते थे " कविता के माध्यम से बखूबी दर्शाया है।  और सफलता , ज़िन्दगी और वक्त तीनो चीजें ऐसी हैं जिन्हे हर इंसान चाहता है और ज़िन्दगी के एक बार पाना उसका मकसद होता है मगर सबको मिलती कहाँ हैं गागर में सागर भरती रचना दिल को तो छूती ही है साथ में हर दिल की आवाज़ सी भी लगती है 

"लिखना चाहते थे / एक कविता उसके रूप सौंदर्य पर / परन्तु उसने नहीं उठाया पर्दा / अपने चेहरे से / नहीं  कभी सामने /' वह सफलता थी ' "


"सुनो मेरी करूँ पुकार " एक छंदबद्ध कविता अजन्मी बच्ची की पुकार है तो "बचपन सतरंगी संसारों का " बचपन की मिठास को दर्शाता है कैसे उन्मुक्त जीवन होता है सभी व्यवधानों , पीड़ाओं से दूर।  
"चाह तेरी पूरी हो " , नन्ही काली आई रे , मेरी बेटियां बेटी को समर्पित कवितायेँ सभी छंदबद्ध होने के साथ साथ मन को छूती हैं। 

 कवयित्री की पूरी पकड़ है छंदबद्ध और छंदमुक्त कविताओं में जिसमे उसने अपने भावों का सुनहरा संसार बसाया है , जहाँ वो जो भी विसंगति देखती है तो कलमबद्ध करने मो मचल उठती है।  सरल सहज भाषा प्रवाहमयी होने के कारण आत्मसात होती हैं और खुद से भी कभी कभी प्रश्न करती हैं आखिर मुझे क्यों नहीं दिखा वो अंधकार जो समाज में व्याप्त है।  सामाजिक सरोकारों पर कलम बखूबी चलती है तो प्रेम , समर्पण और विश्वास से भरपूर कवितायेँ अपनी जीवंतता को भी दर्शाती हैं।  यथार्थ के चित्रों को उकेरती कलम कभी व्यंग्य के माध्यम से तो कभी प्रभावी और सशक्त शब्दों के माध्यम से अपनी बात रखती है जो पाठक को संतुष्ट करती है।  छोटी छोटी रचनाएँ सटीक शब्दों में अपनी बात कहने में सक्षम हैं जो एक बड़ी बात है , शब्दों का दुरूपयोग ना करके सदुपयोग करते हुए अपनी बात कह देना ही लेखन की कसौटी है जिसमे कवयित्री पूर्णतया सक्षम है।  कवयित्री को पहले संग्रह के लिए हार्दिक शुभकामनाओं के साथ उसके उज्जवल भविष्य की कामना करती हूँ।  

यदि आप ये किताब पढ़ना चाहते हैं तो निम्न पतों पर संपर्क कर सकते हैं :

प्रतिमा अखिलेश 
संपर्क सूत्र सिवनी 
द्वारा , दादू निवेन्द्र नाथ सिंह 
वल्लब भाई पटेल वार्ड 
दादू मोहल्ला 
सिवनी ( मध्य प्रदेश ) 
फ़ोन : 07692-220105

संपर्क सूत्र जबलपुर 
द्वारा , श्री एम् के श्रीवास्तव 
एन - २ १ , कचनार क्लब के पास 
कचनार सिटी , विजयनगर 
जबलपुर ( मध्य प्रदेश )
मो : 94251-75861

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

पानी का भी कोई आकार होता है क्या ?

कुछ तस्व्वुर सिर्फ़ ख्यालों की धरोहर ही होते हैं

आकार पाते ही नहीं......
............
लफ़्ज़ भी बेमानी हो जाते हैं वहाँ 

और तुम परे हो इन सबसे 

ना लफ़्ज़ , ना आकार , ना रूप , ना रंग

मगर फिर भी हो तुम यहीं कहीं 

मेरे हर पल मे, हर सांस मे, हर धडकन मे 

बताओ तो ज़रा बिना तस्व्वुर की मोहब्बत का हश्र 

पानी का भी कोई आकार होता है क्या ?

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

कौन कहता है हँसते हुए चेहरे ग़मज़दा नहीं होते

ज़िन्दगी सिर्फ सीधी सरल पगडण्डी नहीं होती 
वृक्ष की कौन सी ऐसी शाख है जो टेढ़ी नहीं होती 

हर बचपन के हाथ में सिर्फ खिलौने नहीं होते 
कौन कहता है हँसते हुए चेहरे ग़मज़दा नहीं होते 

सिर्फ बड़े होने पर ही कोई बड़ा नहीं होता 
हर शख्स यहाँ हँसता हुआ पैदा नहीं होता 

हर खुरदुरे चेहरे में छुपी सिर्फ इक तलाश नहीं होती 
वक्त की तपिश में कौन सी शय है जो खाक नहीं होती 

हर उड़ती सोन चिरैया में सिर्फ परवाज़ नहीं होती 
कौन सा ऐसा चूल्हा है जिसमे आग नहीं होती 

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

फ़सल लहलहाने को तैयार है



अरुण शर्मा  अनंत ने बड़े प्यार और मान सम्मान से जब सन्निधि में एक गुलमोहर का फूल मेरे हाथ में दिया तो उसकी खुश्बू में सराबोर हुए  बिना कैसे रहा जा सकता था और मैं भी भीग गयी उस की खुश्बू में और जब बाहर निकली तो ये प्रतिक्रिया उभरी :

"गुलमोहर" नाम ही काफी है ना महकाने को मन का कोना कोना और फिर जब पुष्प गुच्छ सिर्फ गुलमोहर का ही बना हो तो खुश्बू का चहूँ ओर फैलना लाज़िमी है।  ३० कवि और सभी के अहसासों को एक सूत्र में पिरो  कर इस तरह पेश करना कि लगे वो मुक्त भी है और साथ भी।  गहरी संवेदनाओं का पानी जब हिलोर भरता है तभी वहाँ कहीं न कहीं कोई गुलमोहर खिलता है , महकता है , सुवासित करता है।  सभी कवियों का अपना आकाश है , अपने पंख हैं , अपनी उड़ान है।  सभी स्पंदित हैं भावों की झंकार से तभी तो कहीं प्रेम तो कहीं पीड़ा दृष्टिगोचर हो रही है।  कहीं आस की भोर है तो कहीं विषाद की सांझ , कहीं उम्र की सिमटती लकीर है तो कहीं एक मुट्ठी में सारा आसमान। जिनकी महक, पीड़ा और संवेदना आपको इन पंक्तियों में देखने को मिलेंगी : 

"ये हव्वा की बतियाना हैं 
बुनती रहती हैं एक श्रृंखला अनंत 
"वंश" तो एक "पुल्लिंग" शब्द है 
मैं नहीं मानती !मैं नहीं मानती !मैं नहीं मानती "

चंद पंक्तियाँ और पीढियों की वेदना का स्वर प्रस्फ़ुटित कर देना ही तो कवि के काव्य की विद्वता है ।

"क्या मन का मेटाबोलिज्म इतना कमज़ोर है ?"

ज़िन्दगी में सारी पीडा सिर्फ़ मन की तो होती है और उसे बहुत ही संजीदगी से पेश किया गया है इस कविता में 

"कानून और पुलिस पर आस्था ! / कैसा मज़ाक करते हैं ? / दरिंदगी का यह नंगा नाच / डर / क्या यही नियति रह जायेगी ? "

इस सत्य को कैसे नकार सकते हैं जिससे रोज दो चार होते हैं ।


"दिए नारी को दर्द इतने / हिसाब नहीं / या खुदाया तेरा जवाब नहीं "

कितना दर्द से लबरेज़ हुयी होगी तभी तो ये आह दिल से निकली होगी जो खुदा को भी कटघरे में खडा करना पडा होगा ।

"अभिभावक कर्जे की किश्तों  में पीस रहा / पर उनके लख्ते जिगर बेखबर हैं / यौवन के नशे में डूबे हुए को / क्या मैं " ईदगाह " पढ़वाऊँ मुंशी जी "

ओह! सत्य के जैसे किसी ने कपडे उतार दिये हों और भरे बाज़ार वस्त्रहीन कर दिया हो , समाजिक स्थिति , विडंबनाओं का सम्पूर्ण चित्रण है ये कविता 

"बुजुर्ग ऐसा सोना , जो अपनी अहमियत / वक्त पड़ने पर बताता है / पर कितना निर्मम है ना ? "

हम जानते भी हैं पर जाने क्यों मानना नहीं चाहते जाने कैसी और किस भागदौड में उलझे हैं उसी पर कुठाराघात करती है ये कविता 
"श्वेत आत्मा सा श्वेत दुपट्टा / और / उस पर पक्का रंग "

सोच के उच्च स्तर को प्रमाणित करती पंक्तियाँ साथ ही ज़िन्दगी को परिभाषित कर देना ही काव्य की पहली शर्त होती है जिसमें कवि सफ़ल हुये हैं 

"लगे न नज़र ज़माने की तुमको / घूंघट को थोडा सा सरकाए रखना "

"प्यार का दर्द है मीठा मीठा प्यारा प्यारा" जैसा अहसास समाया है जहाँ मोहब्बत तो झलक ही रही है साथ ही एक परंपरा को भी स्थान मिला है 

"शायद प्यार।/ अँधा नहीं , मौन होता है "

प्यार की इससे बेहतर और क्या परिभाषा होगी एक नया अर्थ दे दिया कवि ने प्रेम को यही तो प्रेम की ऊँचाइयाँ हैं जो सत्य है जब आप प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुँचते हो तो मौन हो जाते हो और प्रेम रस मे छके होने पर सिर्फ़ मौन के सागर में हिलोरे लेते हो मगर वाणी शब्दहीन हो जाती है ……आहा! ये है आल्हादिक प्रेम जिसके लिये कवि प्रशंसा के पात्र हैं ।

"एक लड़की के लिए प्रेम पत्र / किसी देवता से कम नहीं होता "

कहीं से भी नहीं लगता कि कवितायें परिपक्व नहीं , हर कवि की अपनी सोच और अपने विचार जब ह्रदय के चूल्हे पर पके तो देखिये कितनी खूबसूरती से उभरे कि पाठक को अपने साथ बहा ले गये । 

"कब्रिस्तान में / सबसे अलग तरह की कब्र / हिजड़ों की होती है "

ये है दूरदृष्टि , एक परिपक्व सोच की सशक्त पहचान , जिसे हम देखकर भी अनदेखा करते हैं ,जहाँ अंत है वहीं से शुरुआत की है कविता ने और ये है कवि के भावों का रेला जो बहा ले जाता है अपने साथ और सोचने को मजबूर कर दे तो समझिये लेखन सफ़ल हुआ जिसमें कवि सफ़ल हुये हैं ।

"भाई की बिटिया के मुताबिक़ / चौराहा अब बड़ा हो गया है / कहती है , मैं भी बड़ी हो गयी हूँ "

चौराहे से बेटी के बडे होने का बिम्ब अपने आप में बेजोड है जो गहरी सोच को इंगित करता है।

"एक और नारी / एक और अपना / एक और रेप / वहशी यह समाज / कौन बचाये "

 रिश्तों की दहलीज पर कडा प्रहार करती कविता एक कटु सत्य को उजागर करती है और प्रश्नचिन्ह भी खडा करती है कि क्या अब पुनर्मूल्यांकन का समय आ गया है ?



"और मेरा दर्द, मेरे भीतर / हाथ पाँव मरने को बाध्य है "

दर्द की इंतेहा का इससे सटीक चित्रण और क्या होगा भला जहाँ शब्द सब चुकता हो जायें और सोच वहीं उसी चौखट पर बैठ जाये कि अब किधर जाऊँ अन्दर या बाहर ।

और अब अरुण की रचनाओं पर एक नज़र :

छंदबद्ध रचनायें लिखना अरुण के लेखन का सौंदर्य है जो उसकी सभी रचनाओं में छलकता है फिर चाहे शायरी हो , दोहे , गीत या ग़ज़ल।  चंद शब्दों में मारक शब्दों का समावेश उसकी विशेषता है।  गहन भाव गहन अर्थ समेटे रचनायें मन को छू जाती हैं  जिसकी बानगी देखते ही बनती है कुछ इस तरह :

माँ तेरी महिमा अगम , कैसे करूँ बखान 
सम्भव परिभाषा नहीं , सम्भव नहीं विधान 

कोमलता भीतर नहीं , नहीं जिगर में पीर 
बहुत दुश्शासन हैं यहाँ , इक नहीं अर्जुन वीर 

ठग बैठा पोषक में , बना महात्मा संत 
अपनी झोली भर रहा , कर दूजे का अंत 

कभी सच्ची मोहब्बत को, दीवाने दिल नहीं पाते 
यहाँ पत्थर बहुत रोया , वहाँ आंसू नहीं आते 

तालियों की गड़गड़ाहट , संग बजीं सीटियां 
देश का नेता हमारा , यूं शहर बदल गया 


दोस्तों मेरी भी एक सीमा है इसलिये सबकी सब रचनायें तो उद्धृत कर नहीं सकती थी बस कुछ रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ लेकर अपने भावों को समन्वित किया है लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि बाकी रचनाओं में कोई  कमी है । सभी रचनाकार एक से बढकर एक हैं जिनकी रचनायें ह्रदय को छूती हैं ।


हिन्द युग्म से प्रकाशित इस काव्य संग्रह को संपादक द्वय अंजू चौधरी और मुकेश कुमार सिन्हा ने अपने संपादन में निकाला  है जिसमे ३० कवियों को सम्मिलित किया गया है।  सभी की रचनायें ज़िन्दगी के अनुभवों , पीड़ा और वेदना का सम्मिश्रण हैं।  गुलमोहर के सभी कवियों को मेरी शुभकामनाएँ कि गुलमोहर सा उनका लेखन महकता रहे और अपनी सुरभि से सभी को सुवासित करता रहे।  

नवोदितों को लेकर संग्रह निकालना साथ ही उनकी प्रतिभा का सही आकलन कर उन्हें एक जमीन प्रदान करना एक सराहनीय कदम है जिसमें संपादक द्वय सफ़ल रहे हैं । गुलमोहर के विमोचन पर जब नवोदितों की खुशी से दमकता चेहरा देखा तो उस प्रसन्नता का आकलन शब्दों में करना संभव ही नहीं इसलिये बस यही कह सकती हूँ " संभावनाओं की जमीन पर फ़सल लहलहाने को तैयार है बस जरूरत है तो सिर्फ़ उनके प्रयास को सराहने और बढावा देने की ।" जो भी ये पुस्तक पढने के इच्छुक हों तो यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं :



गुरुवार, 28 नवंबर 2013

हवाओं ने रुख बदलना शुरु कर दिया है

तडपती नहीं
घिघियाती नहीं
मिमियाती नहीं
कसमसाती नहीं
तुम्हारे अहम को अब 
पो्षित करती नहीं
जान गयी हूँ अपने होने का औचित्य
अच्छा हो ……ये भेद तुम भी 
जल्द ही समझ लो 
क्योंकि
हवाओं ने रुख बदलना शुरु कर दिया है


रविवार, 24 नवंबर 2013

" तेरे नाम के पीले फूल " ………मेरी नज़र से



 " तेरे नाम के पीले फूल " मोहब्बत से सराबोर इश्क की दास्ताँ है जहाँ सिर्फ और सिर्फ प्रेम ही प्रेम समाहित है।  ढूंढने निकलो तो खुद को ही भूल जाओ , प्रेम की तासीर में बह जाओ और अपना पता ही भूल जाओ।  और क्या चाहिए भला एक पाठक को , अपने दिल की आवाज़ जब कहीं   उसे सुनाई देती है तब कहाँ भान रहता है दीन और दुनिया का।  एक प्रेम के नगर में प्रवेश करने के बाद बस प्रेम रस में प्रेमी बन बह जाता है।  बस यही तो आकर्षण है जो "तेरे नाम के पीले फूल "काव्य संग्रह में नीलम मेदीरत्ता ने संजोया है ।सभी कवितायेँ अपनी ओर आकर्षित करती हैं इस तरह कि बरबस दिल की खूंटियों पर टंगे अरमान मचलने लगते हैं , कुछ अपनी सी कहानी कहती लगती हैं कवितायेँ तो अनायास एक तारतम्य सा बन जाता है और यही किसी लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है जब उसके पाठक को उसकी रचनाओं में अपना अक्स, अपने पीड़ा , अपनी ज़िन्दगी नज़र आती है .

"प्रेम पिंजरा " प्रेम का पिंजरा होता ही ऐसा है जिसमे एक बार कैद हो जाओ तो उम्र  निकल सकता और फिर उसमे जब स्त्री प्रेम करती है तो पूरी शिद्दत से करती है ये पुरुष जनता है तभी तो जब वो खुद को आज़ाद करने को कहती है तो वो कह उठता है ----
मूर्ख !! अगर तुझे आज़ाद ही करना था /तो मैं प्रेम क्यों सिखाता / खोल देता हूँ पींजरा।/ अगर उड़ सकती है तो उड़ जा। ............. 
इसके बाद कहने को क्या बचा भला ?

"प्रेम का प्याला "जिसने प्रेम का प्याला पिया या जिसने ये गर्ल पिया उसे भला पीने को क्या बाकि रहा और प्रेम दीवाने तो सबको अपना सा बन्ने कि ही इच्छा रखते हैं फिर चाहे किसी विश्वामित्र कि तपस्या भंग हो या मीरा बन प्रेम का प्याला पिया हो।  


नीलम की कवितायेँ प्रेम का ताजमहल बनाती हैं जहाँ उनकी कविता अधूरी है गर मुकम्मल न हो पाये ज़िन्दगी की आरज़ू कुछ ऐसा ही भाव संजोया है "अधूरी कविता "मे तो "खुद से प्यार " कविता में खुद को चाहने के भाव इतनी सहजता से उतरे हैं कि किसी को भी खुद से प्यार हो जाये। 


अब जहाँ प्रेम होगा तो वहाँ दर्द भला कैसे पीछे रहेगा वो तो उसका जन्म जन्म का संगी साथी है।  कैसे हिल मिल आँख मिचौली खेल करते हैं दोनों क्या किसी से छुपा है तभी तो "रुदाली" में स्त्री के जीवन की पीड़ा रात के चौबारे पर कैसे मातमपुर्सी करती है और सुबह के मुहाने पर कैसे ओस सी खिलती है इसका बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है। 

"तेरी तस्वीर " , "तेरा नाम " , " पीले फूल " " द्वार नहीं खटखटाती हूँ " सभी कवितायेँ प्रेम के विभिन्न आयामों से गुजरती एक प्रेमिका के समर्पण और प्रेम का आख्यान है जहाँ वो खुद को हर पल जी रही है प्रेम के घूँट भर भर पी रही है मगर फिर भी ना तृप्त हो रही है। 

आगे में पकाते पकाते मुझे /उसके हाथ भी जले /मैं तपी पर सोना न बन सकी / रख बन गयी / एक चिंगारी आज भी सुलगा करती है मुझ में कहीं / और वक्त का खेल देखो / आज कोई मुझे कुम्हार / और खुद को कच्ची मिटटी कह गया / और मैंने झट रख में अपने हाथों कि हड्डियां छुपा ली……………… "कच्ची मिटटी " कविता जैसा चाहे ढाल लो के भाव को पुख्ता करती है तो साथ में कहती है अपना बना लो या मुझे मुझसे जुदा  कर दो , हूँ तुम्हारा ही हिस्सा बस तुम एक नेक दुआ तो करो। 

"नागराज " कविता प्रेम का डंक जिसे लगा बस वो ही तो जी उठा के भाव को मुखरित करती प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाती है तो " क़त्ल " में तो जैसे रूह के कत्लेआम पर रूह भी कसमसाती है।  

संवेदनशील मन प्रहार करता है "सुनो ! लड़कों " कविता के माध्यम से आज दिए जाने वाले संस्कारों पर जो उसी तरह बोने जरूरी हैं जैसे एक लड़की में रोपित किये जाते हैं।  
कुछ कड़वी लगी न / हाँ ऐसी ही हूँ मैं / ज्यादा  कड़वी /ज्यादा सच्ची /ज्यादा नशीली /
वैधानिक चेतावनी : सिगरेट पीना स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है 
"सिगरेट सी हूँ मैं " कविता में स्त्री के मनोभावों को प्रस्तुत करती कवयित्री ज़िन्दगी की तल्खियों को भी उतार देती हैं। 

बोधि प्रकाशन से प्रकाशित कविता संग्रह प्रेम की दुनिया का भ्रमण तो कराता ही है साथ में मन को भी भ्रमर सा  बहा ले जाता है जो हर  कविता पर पीहू पीहू सा पुकार लगाता है।  मन के तारों पर प्रेम की सरगम जब गुनगुनाती है तब मधुर संगीत उपजता है जिसमे डूबे रहने को जी चाहता है।  बस यही तो हैं " तेरे नाम के पीले फूल " जो सहेजे हैं कवयित्री ने जाने किन किन गलियों से गुजरते हुए , किन किन पड़ावों पर ठहरते हुए क्योंकि मोहब्बत के शाहकार यूं ही नहीं बना करते जब तक इश्क के चिनार नहीं खिला करते।  

नीलम और बोधि प्रकाशन को बधाई और शुभकामनाएं देते हुए यही कहूँगी कि ७० रूपये बेशक किताब की कीमत हो मगर कवयित्री के भाव अनमोल हैं जिन्हे जब पाठक पढ़ेगा और उनसे गुजरेगा तभी समझेगा और ऐसे भावों को पढ़ने और उसमे डूबने के लिए ये कीमत कोई ज्यादा नहीं। 

तो दोस्तों यदि आप इस संग्रह को पढ़ने की इच्छा रखते हों तो बोधि प्रकाशन या नीलम मेंदीरत्ता से संपर्क कर सकते हैं :

ईमेल :neelammadiratta@gmail.com

बोधि प्रकाशन 
दूरभाष : ०१४१-२५०३९८९।  ९८२९०-१८०८७ 

ईमेल: bodhiprakashan@gmail.com 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

तब तक मेरी भावनाओं से खेलना तुम्हारा अपराध नहीं

आओ खेलो मेरी भावनाओं से 
ठगो मेरे विश्वास को 
करो मेरी आस्था का क़त्ल 
खूं करना कितना आसाँ जो है 
क्या हुआ जो मेरा भरोसा टूटा 
क्या हुआ जो मेरी संवेदनायें सूखीं 
क्या हुआ जो मेरा मन अब बंजर हुआ 
तुम तो कुकुरमुत्तों से उगते रहोगे 
तुम तो मेरी भावनाओं का बलात्कार करते रहोगे 
क्योंकि 
नपुंसक हो गया है समाज 
नपुंसक हो गयी है मानवीयता की जमीन 
तभी तो 
नहीं दिखती तुम्हें आज 
हर स्त्री में माँ , बहन और बेटी 
तभी तो 
करते हो तुम बलात्कार 
कभी बाबा बनकर 
कभी नेता बनकर 
कभी कलम का सिपाही बनकर 
तो कभी गली चौराहे पर घूमता 
हवस का पुजारी बनकर 
कैसे और कहाँ और कब तक मैं सुरक्षित हूँ 
कानून की धज्जियाँ तुम उड़ाते हो 
मुझे किसी ना किसी तरह 
अपने चंगुल में फंसाते हो 
कभी हमदर्द बनकर 
कभी मसीहा बनकर 
तो कभी शिकारी बनकर 
आह ! मेरे विश्वास की नींव को 
दीमक बन खोखला कर दिया तुमने 
अब सोचती हूँ तो पाती हूँ 
स्त्री विमर्श के नारों में भी मेरा 
महज उपयोग भर किया तुमने 
मानो बच्चे को मन बहलाने को 
बस झुनझुना दिया तुमने 
जबकि पाशविक मानसिकता पर अपनी 
नकेल ना कसा तुमने 
फिर कैसे सुरक्षित रह सकती हूँ 
ये ना सोचा मैंने 
इसलिए 
जब तक मैं खुद के लिए खुद ही 
कोई पुख्ता ज़मीन नहीं बनाती 
जब तक मैं खुद अपने लिए खुद ही 
अपनी आवाज़ नहीं उठाती 
तब तक 
मेरी भावनाओं से खेलना तुम्हारा अपराध नहीं 
सिद्ध कर दिया तुमने ……………… 

इंसानियत की तहजीबों के नकाब उघाड़ना कोई तुमसे सीखे ……… क्या कहूँ तुम्हें 
इंसान कह नहीं सकती 
तो कह दूं तुम्हें क्या हैवान …………ओ पुरुष रूप में छुपे आदम के छद्म रूप !!!

सोमवार, 18 नवंबर 2013

ओ मेरे काल्पनिक प्रेम

ओ मेरे काल्पनिक प्रेम 
प्रेम ही नाम दिया है तुम्हें 
काल्पनिक तो हो ही 
वो भी तब से 
जब जाना भी न था प्रेम का अर्थ 
जब जाना भी न था प्रेम क्या होता है 
फिर भी सहेजती रही तुम्हें 
ख्यालों की  तहों में 
और लपेट कर रख लिया 
दिल के रुमाल में 
खुशबू आज भी सराबोर कर जाती है 
जब कभी उस पीले पड़े 
तह लगे दिल के रुमाल 
की तहें खोलती हूँ 
भीग जाती हूँ सच अपने काल्पनिक प्रेम में 
और जी लेती हूँ एक जीवन 
काल्पनिक प्रेमी के प्रेम में सराबोर हो 
तरोताजा हो जाता है यथार्थ 
जरूरी तो नहीं न तरोताजा होने के लिए कल्पना का साकार होना 

यूं भी काल्पनिक प्रेम कब वैवाहिक रस्मों के मोहताज होते हैं 
ज़िन्दगी जीने के ये भी कुछ हसीन तरीके होते हैं 

सोमवार, 11 नवंबर 2013

सकारात्मक सोच की रौशनी

बालों में छाई सफेदी कोई कहानी कहे ना कहे मगर चेहरे की लकीरें उम्र के तजुर्बे में कब तब्दील हो जाती हैं सब को पता हो या ना हो मगर खुद के अन्दर एक क्रांतिकारी आन्दोलन आड़ोलित होने लगता है और अम्मा ने तो कभी खुद से भी बात नहीं की थी तो कैसे किसी को उसके अन्दर घटित होती घटनाएं तजुर्बे की दीवारों पर कहानी लिख पातीं।  चार बेटों की माँ बन अम्मा अपनी ज़िन्दगी के हर फ़र्ज़ को बखूबी निभा चुकी थीं।  सब अच्छी तरह अपनी गृहस्थी में सुखी थे बस अम्मा ही थी जो पति के जाने के बाद भी अपने को संभाल सबको एकत्र किये थी एक ही छत के नीचे।  बहुओं से भी कभी कोई उम्मीद नहीं करतीं।  सबको कार्य इस तरह बाँट देती कि  किसी को शिकायत न हो।  किसी को कहीं जाना हो तो पहले दिन बताये ताकि अगले दिन उसके बदले के काम बांटे जा सकें यदि कोई बहू भूल जाती थी तो अगले दिन बिना किसी बहू को कुछ कहे अम्मा खुद वो काम करने लगती तो बहू को खुद अपनी गलती का अहसास हो जाता और अगली बार वो ऐसी कोई गलती करने की कल्पना भी नहीं करती।  यही एक परिपक्व सोच की पहचान होती है जिस वजह से कभी घर में कलह न होती सब एक दूसरे  को पूरा प्यार और सम्मान देते।  जब छोटे बेटे की शादी भी हो गयी तो अम्मा ने सारी जमीन जायदाद को सारे  बच्चों में बाँटने का निर्णय लिया और दुकान  और मकान के बराबर चार हिस्से कर दिए बड़े बेटे  के हिस्से पुराना मकान आया तो उसने जब आवाज़ उठाई तो अम्मा ने कहा कि बेटा दुकान  तुम्हें चलती हुयी मिली है यदि ये नहीं लेना तो जो छोटे को दे रही हूँ उससे बदल लो वहां मकान नया होगा मगर दुकान तुम्हें खुद नए सिरे से चलानी होगी तब बड़े बेटे को अहसास हुआ कि हमारी माँ कितनी दूरदर्शी है अब इस उम्र में यदि नयी दुकान चलाऊंगा तो बच्चे बड़े हो गए हैं कैसे उनकी पढाई और शादी की जिम्मेदारी उठाऊंगा दूसरी तरफ छोटे पर अभी जिम्मेदारी नहीं है तो नए सिरे से कारोबार शुरू करेगा तो २-४ साल में व्यवसाय जम जाएगा।  अम्मा की इसी दूरदर्शिता और काबिलयत की वजह से सारे  बहू बेटे दिल से अम्मा का आदर किया करते थे और अम्मा के होते किसी को किसी भी बात की चिंता नहीं होती थी अम्मा जिस भी बेटे के घर बैठी होतीं वहीँ खाना खा लेतीं यहाँ तक कि  कोई भी भाई किसी के भी घर बैठे उठे वही खाना खा लेना , रुक जाना, एक दूसरे के काम आना उनके लिए आम बात थी।  आज अम्मा उनके बीच नहीं रहीं मगर वो अपने पीछे एकता और सहनशीलता में कितनी शक्ति होती है उसके  महत्त्व को  बच्चों में छोड़ गयी थीं।  किसी के बेटे बेटी उसे याद करें उसके जाने के बाद बड़ी बात नहीं मगर यदि उसके जाने के बाद उसकी बहुएँ उसे अपनी माँ से भी ज्यादा याद करें और उनके बताये रास्ते का अनुसरण करें इससे बेहतर और क्या होगा।  आज अम्मा की सकारात्मक सोच की रौशनी उनके परिवार के प्रत्येक बच्चे में ऐसे जज़्ब हो गयी थी जैसे शिराओं में लहू।  
ये किस्सा जब उसकी बहू ने अपनी सहेलियों को सुनाया तो सभी नतमस्तक तो हुयीं ही साथ में सबने अम्मा को सोच की एक एक किरण अपने जीवन में भी आत्मसात करने का निर्णय लिया ………… इस तरह अम्मा समाज में चेतना की नयी रौशनी बिखेर गयी थीं। 

बुधवार, 6 नवंबर 2013

ए --------कभी तो कुछ कहा भी करो

जब भी मिठास कम हुई चाय में
जान जाता हूँ
फिर कुछ टूटा है तुम्हारे अन्तस में
वरना
बिना अपने लबों को छुआये
प्याला दिया है क्या तुमने


जब भी नमक ज्यादा मिला दाल में
जान जाता हूँ
फिर अंधेरों ने शोर किया है तुम्हारे बियाबान में
वरना
तुम्हारी आँखों का नमक ही काफ़ी रहता है मेरे स्वाद के लिये


जब भी तुलसी पर दीया जलता नहीं मिला मुझे
जान जाता हूँ
तुम्हारी कुँवारी वेदना की मुस्कुराती तडप को
वरना
बिना दीया बाती किये साँझ की बत्ती नहीं जलाई तुमने


और ये होता है
तुम्हारी दिनचर्या का 
आखिरी पडाव


जब भी बिस्तर पर सिलवट मिली मुझे
जान जाता हूँ
कितनी कोशिश की होगी तुमने प्रैस से छुपाने की
वरना
यूँ रूह की सिलवटों की खामोशी ना उतरती तुममें


जानाँ -----अरसा हुआ सीख गया हूँ मैं भी अब
तुम्हारे अबोले शब्दों की गूढ भाषा
ए --------कभी तो कुछ कहा भी करो
एक मुद्दत हुयी
आवाज़ सुनने को तरस गया हूँ …………


रविवार, 27 अक्टूबर 2013

अब कभी मत कहना ………सब कुछ है

किसने कहा नहीं हूँ 
मैं तो वहीं हूँ हर पल 
जब जब तुमने 
अपने पुरज़ोर ख्यालों में 
मेरा आलिंगन किया , 
मुझे पुकारा और 
समय के सीने पर 
एक बोसा लिया 
कब और कहाँ दूर हूँ तुमसे 
सिर्फ़ शरीरों का होना ही तो होना नहीं होता जानाँ ………

जब ख्यालों की सरजमीं पर 
यादों की कोंपलें खिलखिलाती हों ,
हर लम्हे में एक तस्वीर मुस्काती हो, 
हर ज़र्रे ज़र्रे में महबूब की झलक नज़र आती हो 
वहाँ कौन किससे कब जुदा हुआ है 
ये तो बस अक्सों का परावर्तन हुआ है 

तुममें समायी मैं 
तुम्हारी आँखों से देखती हूँ कायनात के रंगों को , 
तुममें समायी मैं 
साँस लेती हूँ तुम्हारे ख्यालों के आवागमन से , 
तुममें समायी मैं 
धडकती हूँ बिना दिल के भी तुम्हारे रोम रोम में 
तो कहो भला कहाँ हूँ मैं जुदा ………तुमसे ! 

अब कभी मत कहना ………सब कुछ है …बस तुम ही नही हो कहीं 
क्योंकि 
तुम्हारा होना गवाह है मेरे होने का ……………. 

मोहब्बत में विरह की वेदी पर आस पास गिरी समिधा को कभी देखना गौर से……. 

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

प्रियतमे !

प्रियतमे !






इतना कह कर 
सोच में पड़ा हूँ 
अब तुम्हें 
और क्या संबोधन दूं 
अब तुमसे 
और क्या कहूं 
मेरा तो मुझमे 
जो कुछ था 
सब इसी में समाहित हो गया 
मेरी जमीं 
मेरा आकाश 
मेरा जिस्म 
मेरी जाँ 
मेरी धूप 
मेरी छाँव 
मेरा जीवन 
मेरे प्राण 
मेरे ख्वाब 
मेरे अहसास 
मेरा स्वार्थ 
मेरा प्यार 
कुछ भी तो अब मेरा ना रहा 

जैसे सब कुछ समाहित है 
सिर्फ एक प्रणव में 
बस कुछ वैसे ही 
मेरा प्रणव हो तुम 

प्रियतमे !
कहो , अब और क्या संबोधन दूँ  तुम्हें 

रविवार, 20 अक्टूबर 2013

खनखनाहट की पाजेब

तुम्हारी हँसी में 
सुर है 
लय है 
ताल है 
रिदम है 
एक संगीत है 
मानो 
मंदिर में घंटियाँ बज उठी हों 
और 
आराधना पूरी हो गयी हो 
जब कहा उसने 
हँसी की खिलखिलाहट में 
हँसी के चौबारों पर सैंकडों गुलाब खिल उठे 
ये उसके सुनने की नफ़ासत थी 
या कोई ख्वाब सुनहरा परोसा था उसने 

खनखनाहट की पाजेब उम्र की बाराहदरी में दूर तक घुँघरू छनकाती  रही ……… 




बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

इस कदर भी कोई तन्हा ना हो कभी खुद से भी …

बूँद बूँद का रिसना 
रिसते ही जाना बस 
मगर आगमन का 
ना कोई स्रोत होना 
फिर एक दिन घड़े का 
खाली होना लाजिमी है 
सभी जानते हैं 
मगर नहीं पता किसी को 
वो घडा मैं हूँ 


हरा भरा वृक्ष 
छाया , फूल , फल देता 
किसे नहीं भाता 
मगर जब झरने लगती हैं 
पीली पत्तियां 
कुम्हलाने लगती है 
हर शाख 
नहीं देता 
फूल और फल 
ना ही देता छाँव किसी को 
तब ठूँठ से कैसा सरोकार 
बस कुछ ऐसा ही 
देखती हूँ रोज खुद को आईने में 

भावों के सारे पात झर गए हैं 
मन के पीपर से 
ख्यालों के स्रोते सब सूख गए हैं 
और बच रहा है तो सिर्फ 
अर्थहीन ठूंठ 
जिस पर फिर बहार आने की उम्मीद 
के बादल अब लहराते ही नहीं 
तो कैसे कहूँ 
खिलेगा भावों का मोगरा फिर से दिल के गुलशन में 

इस कदर भी कोई तन्हा ना हो कभी खुद से भी … 

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

आइये बकवास करें

आइये बकवास करें 
कुछ यूँ नाम रौशन करें 
बकवास महामन्त्र का जाप करें 
खुद को महान योगी सिद्ध करें 
बकवास बकवास बकवास 
सब बकवास ही तो है 
बकवास के भी अपने अर्थ होते हैं 
बकवास का भी अपना महत्त्व होता है 
बशर्ते कहने में दम हो 
बशर्ते कहने वाला दमखम रखता हो 
फिर बकवास भी अर्थ प्रिय हो जाती है 
फिर बकवास भी तवज्जो पाती है 
गर अपनी बकवास को एक ओहदा देना हो 
गर अपनी बकवास पर प्रस्ताव पारित कराना हो 
गर स्वयं को सबकी नज़रों में चढ़ाना हो 
गर अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना हो 
तो जरूरी है तुम्हें खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करना 
और इसके लिए जरूरी है 
बकवास जैसे लफ़्ज़ों का प्रयोग करना 
फिर क्या कानून और क्या बिल और क्या आदेश 
सब बदल दिए जायेंगे 
सिर्फ एक तुम्हारे बकवास शब्द की भेंट चढ़ जायेंगे 
तो जाना तुमने कितनी गुणकारी है बकवास 
तो करो प्रण खुद से 
आज से करोगे सिर्फ और सिर्फ बकवास 
जो बना देगी तुम्हारे लिए एक सुलभ रास्ता 
जो पहुंचा देगी तुम्हें तुम्हारी मंजिल पर 
गर तुम पंक्ति में पीछे खड़े होंगे 
तो प्रथम स्थान पर पहुँचाना 
और तुम्हारा महत्त्व राष्ट्रीय दृष्टि में बढ़ाना 
बकवास नामक अचूक हथियार कर देगा 
फिर एक दिन ऐसा आएगा 
बकवास भूषण पुरस्कार से नवाज़ा जाएगा 
ये सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार कहलाया जाएगा 
जो बकवास महाराज के बायोडाटा में 
चार चाँद लगाएगा 
ज्यादा कुछ तो नहीं मगर 
इसी बहाने पी एम बनने के सपने पर 
एक मोहर तो जरूर लगाएगा 
तो बोलो 
बकवास महाराज की जय 

रविवार, 4 अगस्त 2013

एक्सीडेंट हो गया

एक्सीडेंट हो गया एक बच्चे ने स्कूटी से ऐसी ट्क्कर मारी कि किसी के घर की सीढियों पर गिरी और उस सीढी का कोना रिब्स में लग गया ………॥अब रिब्स मे,न तो प्लास्टर लग नहीं सकता इसलिए कम्पलीट बेड रैस्ट ही करना पडेगा ………ना उठ पा रही हूँ और ना बैठ पा रही हूँ बडी मुश्किल हो रही है ……बेहद पेन है ………अभी कुछ दिन अब सक्रियता कम रहेगी।

बुधवार, 31 जुलाई 2013

नज़र में अपनी ही गिर जाती




जो दुआ को उठा देती हाथ 
नज़र में अपनी ही गिर जाती 
ए खुदा तेरी नेमत हैं ये हाथ ...जानती हूँ
इसलिये कर्म के बीज बोती हूँ
कर्म की फ़सल उगाती हूँ
हाथ की रेखाओं को आज मैं खुद बनाती हूँ

स्त्री हूँ ना
जान गयी हूँ
मान गयी हूँ
पहचान गयी हूँ
अपने होने को
इसलिये
अब किसी खुदा के आगे ना सिर झुकाती हूँ
कर्मठ बन स्वंय अपना मार्ग प्रशस्त किये जाती हूँ
और अपनी उपलब्धियों का तेज़
अपने मुखकमल पर स्वंय खिलाती हूँ
यूँ जीवन में आगे बढती जाती हूँ
मगर हाथ अब दुआ के लिये भी ना उठा उठाती हूँ

क्योंकि ………जानती हूँ
ना जाने कितनी फ़रियादें तेरे दरबार में अलख जगाती होंगी
कितने हाथ तेरी चौखट को छूते होंगे
कितने बेबस रोज तुझे बेबस करते होंगे
और उनके उठे हाथों को देख जब
तेरी रहमत बरसती होगी
दिल में तेरे भी इक खलिश सी उठती होगी
उफ़ ! क्या इसीलिये मैने संसार बनाया
मेरे होकर मुझसे माँग रहे हैं
खुद पर ना विश्वास कर रहे हैं
कैसे खुद्दारी को ताक पर रख रहे हैं
तू भी इक बेबसी जीता होगा
जब सबके गम पीता होगा
इसलिये
आज़ाद किया तुझे अपनी दुआओं से …………ओ खुदा !

(कर्मठता और खुद्दारी के बीज बो दिये हैं फ़सल का लहराना लाज़िमी है )




"कवि....सपनों का सारथी ,सत्य का प्रहरी ...के इस लिंक में मेरी इस

कविता को सर्वश्रेष्ठ चुना गया 
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रविवार, 28 जुलाई 2013

कल शाम डायलाग के नाम

कल शाम डायलाग के नाम ( 27-7-2013 ) 
एकेडमी आफ़ फ़ाइन आर्टस एंड लिटरेचर द्वारा आयोजित कार्यक्रम में लीलाधर मंडलोई जी की अध्यक्षता में अंजुम शर्मा द्वारा संचालित किया गया जिसमें अनिरुद्ध उमट , असंग घोष , सुमन केशरी, मिथिलेश श्रीवास्तव और अनिल जनविजय ने कविता पाठ किया । एक बेहतरीन शाम की कुछ यादें समेट लायी हूँ । एक से बढकर एक कविताओं ने मन मोह लिया। कविता का वृहद आकाश पंछियों को पंख पसारने के लिये उत्साहित करता है जिसकी झलक कल देखने को मिली। कौन सा क्षेत्र ऐसा है जिस पर कवि की कलम ना चली हो फिर चाहे देश हो या समाज , प्रेम हो या स्त्री विमर्श छोटी छोटी चीजों पर कवि की दृष्टि पहुँचती रही फिर चाहे किसी प्रदेश या जनपद की व्यथा हो या कोई दुर्घटना या जीवन और मृत्यु के भेद या फिर पौराणिक गाथा सभी पर कवियों की दूरदृष्टि एक संसार रचा जो हर मन को अन्दर तक छू गया। कौन कहता है कि कविता की माँग नहीं है ………जो ये कहता है उसे कल आकर देखना चाहिये था । भावुक हृदयों की भावमाला के सुमन की खुशबू हर श्रोता अपने मन में बसा कर लाया है।




लीलाधर मंडलोई जी के साथ मैं , अंजू शर्मा , सुमन केशरी और शोभा रस्तोगी 



अंजुम शर्मा मंच का संचालन करते हुये 



श्रोताओं के साथ अलका भारतीय 



शोभा रस्तोगी

ब्यूटी विद ब्रेन इंदु सिंह के साथ अंजू शर्मा 


 कला का उत्कृष्ट नमूना 


अनिरुद्ध उम्मट कविता पाठ करते हुये 



असंग घोष कविता पाठ करते हुये



श्रोतागण कवितासिंधु में गोता लगाते हुये 





सुमन केशरी कविता पाठ करते हुये




मिथिलेश श्रीवास्तव कविता पाठ करते हुये





अनिल जनविजय कविता पाठ करते हुये


लीलाधर मंडलोई जी अपने अध्यक्षीय वक्तव्य के साथ 




उसके बाद विचारों का आदान प्रदान और जलपान कर सबने अपने घर को प्रस्थान किया