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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

सुन्न

जब सुन्न हो जाता है कोई अंग
महसूस नहीं होता कुछ भी
न पीड़ा न उसका अहसास
बस कुछ ऐसी ही स्थिति में
मेरी सोच
मेरे ह्रदय के स्पंदन
सब भावनाओं के ज्वार सुन्न हो गए हैं

अंग सुन्न पड़ जाए तो

उस पर दबाव डालकर
या सहलाकर
या सेंक देकर
रक्त के प्रवाह को दुरुस्त किया जाता है
जिससे अंग चलायमान हो सके
मगर
जहाँ मन और मस्तिष्क
दोनों सुन्न पड़े हों
और उपचार के नाम पर
सिर्फ अपना दम तोड़ता वजूद हो
न खुद में इतनी सामर्थ्य
कि  दे सकें सेंक किसी आत्मीय स्पर्श का
न ऐसा कोई हाथ जो
सहला सके रिश्ते की ऊष्मा को
या आप्लावित कर सके
रिक्तता को स्नेहमयी दबाव से
फिर कैसे संभव है
खुद -ब -खुद बाहर आना
सूने मन के , तंग सोच के
सुन्न पड़े दायरे से ...............

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

बस निर्णय करो ..........किस तरफ से ?



ना लीक पर
और ना लीक से हटकर
कुछ भी तो नहीं रहा पास मेरे
ना कुछ कहना
ना कुछ सुनना
एक अर्धविक्षिप्त सी तन्द्रा में हूँ
किसी स्वर्णिम युग की दरकार नहीं
और ना ही किसी जयघोष की चाह
खुश हूँ अपने पातालों में
फिर भी कशमकश के खेत
कैसे लहलहा रहे हैं ........
आदिम वर्ग कितना खुश है
और मेरी जड़ सोच के समूह कितने कुंठित
फिर भी जिह्वया लपलपा रही है
ज्यों मनचाही पतंग काटी हो
ये सोच पर पड़े पालों पर
ना जाने कैसे इतने सरकंडे उग आये हैं
कि  कितना दुत्कारो
कितना समझाओ
मगर आकाश बेल से बढे जा रहे हैं
अब जड़ों को चाहे कितना खोदो
बीज कब और कहाँ रोपित हुआ था
उसका न कोई अवशेष मिलेगा
जीना होगा तुम्हें ............हाँ ऐसे ही
इसी अधरंग अवस्था में
क्योंकि
ना तुम लीक पर हो
ना लीक से हटकर हो
तुम उस दुधारी तलवार पर हो
जिसके दोनों तरफ तुम्हें ही कटना है
बस निर्णय करो ..........किस तरफ से ?

इतिहास की किताब का महज एक पन्ना भर हो तुम

क्योंकि
संस्कृति और संस्कार तो सभ्यताओं संग ही ज़मींदोज़ हो चुके हैं
अब पुरातत्वविदों के लिए महज शोध का विषय हो तुम ..............

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

प्रेम का अंतिम लक्ष्य क्या ………सैक्स?





प्रेम
एक अनुभूत प्रक्रिया
न रूप न रंग न आकार
फिर भी  भासित होना
शायद यही इसे
सबसे जुदा बनाता है
ढाई अक्षर में सिमटा
सारा संसार
क्या जड़ क्या चेतन
बिना प्रेम के तो
प्रकृति का भी अस्तित्व नहीं
प्रेम का स्पंदन तो
चारों दिशाओं में घनीभूत होता
अपनी दिव्यता से आलोकित करता है
फिर भी प्रेम कलंकित होता है
फिर भी प्रेम पर प्रश्नचिन्ह लगता है
आखिर प्रेम का वास्तविक अर्थ क्या है
क्या हम समझ नहीं पाते प्रेम को
या प्रेम सिर्फ अतिश्योक्ति है
जो सिर्फ देह तक ही सीमित  है
जब बिना प्रेम के प्रकृति संचालित नहीं होती
तो बिना प्रेम के कैसे
आत्मिक मिलन संभव है
जो मानव देह धारण कर
इन्द्रियों के जाल में घिर
हर पल संसारिकता में डूबा हो
उससे कैसे आत्मिक प्रेम की
अपेक्षा की जा सकती है
आम मानव के प्रेम की परिणति तो
सिर्फ 
सैक्स पर ही होती है
या कहिये 
सैक्स ही वो माध्यम होता है
जिसके बाद प्रेम का जन्म होता है
ये आम मानव की व्यथा होती है
जिस निस्वार्थ प्रेम की अभिलाषा में
वो उम्र भर भटकता है
अपने साथी से ही न निस्वार्थ प्रेम कर पाता  है
उसका प्रेम वहां सिर्फ
सैक्स पर ही आकर पूर्ण होता है
ये मानवमन की विडंबना है
या कहो
उसकी चारित्रिक विशेषता है
जो उसका प्रेम
 सैक्स की बुनियाद पर टिका होता है
मगर देखा जाये तो
 
सैक्स सिर्फ सांसारिक प्रवाह का
एक आधार होता है
मानव तो उस सृजन में
सिर्फ सहायक होता है
और खुद को सृष्टा मान
 सैक्स का दुरूपयोग
स्व उपभोग के लिए करना जब शुरू करता है
यहीं से ही उसके जीवन में
प्रेम का ह्रास होता है
क्योंकि
प्रेम का अंतिम लक्ष्य 
सैक्स कभी नहीं हो सकता
ये तो जीवन और सृष्टि के संचालन में
मात्र सहायक की भूमिका निभाता है
ये तो वक्ती जरूरत का
एक अवलंबन मात्र होता है
जिसे आम मानव प्रेम की परिणति मान  लेता है
जबकि
प्रेम की परिणति तो सिर्फ प्रेम ही हो सकता है
जहाँ प्रेम में प्रेम हुआ जाता है
प्रेम में किसी का होना नहीं
प्रेम में किसी को अपना बनाना नहीं
बल्कि खुद प्रेमस्वरूप हो जाना
बस यही तो प्रेम का वास्तविक स्वरुप होता है
जिसमे सारी  क्रियाएं घटित होती हैं
और जो होता है आत्मालाप ही लगता है
बस वो ही तो प्रेम में प्रेम का होना होता है
मगर
आम मानव के लिए
विचारबोध ज़िन्दगी के
अंतिम पायदान पर खड़ा होता है
उसके लिए तो
प्रेम सिर्फ प्राप्ति का दूसरा नाम है
जिसमे सिर्फ जिस्मों का आदान प्रदान होता है

लेकिन वो प्रेम नहीं होता
वो होता है ………प्यार 
हाँ ………प्यार 
क्योंकि प्यार में सिर्फ़ 
स्वसुख की प्रक्रिया ही दृष्टिगोचर होती है
जिसमें साथी सिर्फ़ अपना ही सुख चाहता है
जबकि प्रेम सिर्फ़ देना जानता है
और प्यार सिर्फ़ लेना ………सिर्फ़ अपना सुख 
और यही पतली सी लकीर 
प्रेम और प्यार के महत्त्व को
एक दूजे से अलग करती है 
मगर आज का प्राणी
अपने देहजनित प्यार को ही प्रेम समझता है 
और
बेशक उसे ही वो प्रेम की परिणति कहता है
क्योंकि
कुछ अंश तक तो वहां भी प्रेम का
एक अंकुर प्रस्फुटित होता है
तभी कोई दूसरे की तरफ आकर्षित होता है
और अपने जिस्म को दूजे को सौंपा करता है
और उनके लिए तो
यही प्रेम का बीजारोपण होता है
अब इसे कोई किस दृष्टि से देखता है
ये उसका नजरिया होता है
क्योंकि……उसकी नज़र में

सैक्स भी प्रेम के बिना कहाँ होता है
कुछ अंश तो उसमे भी प्रेम का होता है
और ज्यादातर दुनिया में
आम मानव ही ज्यादा मिलता है
और उसके लिए
उस तथाकथित प्रेम का
अन्तिम लक्ष्य तो सिर्फ़ सैक्स ही होता है…………

जबकि सैक्स में 
कहाँ प्रेम निहित होता है
वो तो कोरा रासरंग होता है
वक्ती जरूरत का सामान
आत्मिक प्रेम में सिर्फ़ 
प्रेम हुआ जाता है
वहाँ ना देह का भान होता है  
बस यही फ़र्क होता है 
एक आत्मिक प्रेम के लक्ष्य में
और कोरे  दैहिक प्रेम में
हाँ जिसे दुनिया प्रेम कहती है
वो तो वास्तव में प्यार होता है
और प्यार की परिणति तो सिर्फ़ सैक्स में होती है .........मगर प्रेम की नहीं 
बस सबसे  पहले तो 
इसी दृष्टिकोण को समझना होगा
फिर चयन करना होगा 
वास्तव में खोज क्या है
और मंज़िल क्या …………?

( सृजक पत्रिका के मई से जुलाई अंक में प्रकाशित मेरी कविता )

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

आओ कुछ शब्दों की चहलकदमी की जाये


ज्योतिपर्व प्रकाशन से प्रकाशित "शब्दों की चहलकदमी" काव्य संग्रह का  संपादन सत्यम शिवम के हाथों हुआ जिसमें उन्होने 40 कवियों के भावों को एक माला में पिरोया है और हर मोती इस माला में गुंथकर खास हो गया है । यूं तो ये सारा ब्रह्माण्ड शब्द की ही उपज है , शब्द ही बीज है ब्रह्मनाद का और उस पर शब्दों की चहलकदमी जब होती है तो संगीतमय रिदम अपने आप दिलों पर अपनी झंकार छोड़ जाती है बस वैसा ही इस संग्रह के लिए कहा जा सकता है .

आदर्शिनी श्रीवास्तव की "विनय पत्रिका बन जाऊं , तुम क्यों नहीं ,बंद करो ये मायाजाल , गाँव का गलियारा " कवितायेँ जैसे दिनकर की प्रथम उजास सी चेतना पर छा जाती हैं जहाँ शब्द स्वयं संगीत बन अंतस को भिगो जाती  हैं फिर चाहे प्रकृति हो या प्रेमी या ईश्वर  या शहर और गाँव के रहन सहन का अंतर सबका चित्रण बखूबी किया है .

अंजू चौधरी की हाँ मैं एक आम इंसान हूँ कविता आम इन्सान की जिजीविषा को ही दर्शाती है कैसे आम इन्सान बिना हिसाब किताब लगाये आगे बढ़ता जाता है अपने वक्त की सलीब पर लटका फिर चाहे ज़िन्दगी में कितनी ही दुश्वारियां क्यों न आयें और उन सबको लांघते हुए क्यों न एक लम्बा मौन धारण करना पड़े कभी अपने लिए तो कभी अपनों के लिए फिर चाहे वो नारी ही क्यों न हो और यही है जीवन की रीती , जीवन की गति सुर , लय , ताल कितनी अलग होती जाये मगर संगीत फिर भी रिदम में ही बजता है .

कविता विकास की ज़िन्दगी  ढूंढती है अपना ठिकाना कभी सपाट राहों पर तो कभी भंवर में फंसकर तो कभी ज़ख्म खाती अपने मायने बदल लेती है फिर भी मन का पंछी   अपनी बेचारगी में कैसे फ़डफ़डाता है और नए दिन की आस में सांझ  का भी एक एक पल सार्थकता से जीने को प्रेरित हो जाता है क्योंकि वो जानता है सत्य हमेशा अटल रहता है फिर चाहे सत्य की खोज में भटका प्राणी कितना जूझे आ ही जाता है एक दिन पुकार सुनकर सत्य का प्रणेता क्योंकि वह सर्वज्ञ है .

अभिषेक सिन्हा की मतवाले पथिक की तलाश नीम भी सार्थक कर गया यदि स्वाधीनता के रंग में रंगकर कलम कागज़ और स्याही ने प्रेम और सौहार्द का  नामाबर लिख दिया ।

देवेन्द्र शर्मा प्रेम पर अधिकार माँग रहे हैं तेरे बारे में प्रेयसी सोचते सो्चते तो दूसरी तरफ़ व्यंग्यात्मक लहजे में भ्रष्टाचार की मूल जड पर प्रहार करते दिखते हैं । समझ गये हैं इंसान के होने का महत्व तभी तो आज मैने ठान ली है के माध्यम से कब यथार्थ अमरत्व उपदेश देते कर्म का महत्व समझ गये हैं पता नहीं चलता क्योंकि दुनिया हम हों ना हों चलती ही रहेगी।

दिनेश गुप्ता एक सिपाही की शहादत के अंतिम क्षणों का चित्रण दीया अंतिम आस का के माध्यम से कर रहे हैं कि सिपाही के दिल में देश के लिये कैसा जज़्बा होना चाहिये कि वो बार बार उसी मिट्टी में जन्म लेकर फिर वतन के लिये मिटने को तैयार रहता है । तो दूसरी तरफ़ मोहब्बत का सागर ठाठें मार रहा है उनकी इन कविताओं में …कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ …सच तो है कैसे लिखा जा सकता है अपरिमित बहते दरिया की बूँद बूँद को तो दूसरी ओर तुमको देखे ज़माना बीत गया और मेरी आँखों में मोहब्बत के जो मंज़र हैं  वो खुद हाल-ए-दिल बयाँ कर रहे हैं।

गरिमा पाण्डेय विश्वास से लबरेज़ हौसलों को उडान भरने को कहती हैं साथ प्रेम जो एक विश्वास है, फ़ूल है, राधा है , मीरा है क्योंकि प्रेम से बढकर जग में कुछ नही । साथ ही नारी के प्रति संवेदनायें व्यक्त करती उनकी कलम पिता की स्नेहमयी धारा में डूब कर प्रश्न करती है पिता के ममत्व के प्रति जो विचारणीय है।

मनमोहन कसाना किसान और बरसात के संबंध पर दृष्टिपात करते हुये उनके हर्ष और शोक को व्यक्त कर रहे है कैसे किन परिस्थितियों से वो जूझा करता है तब निवाला उसके मूँह मे डलता है। बोहनी का महत्त्व इतनी संजीदगी से समझा रहे हैं कि पाठक रुक जाता है कुछ देर और सोचता है उस दर्द के बारे में तो दूसरी तरफ़ देश के हालात , अबलाओं पर अत्याचार , रिश्वतखोरी आदि के कारण नाउम्मीद हो रहे हैं ये कहते हुये उम्मीद अब कहाँ ? । सभी रचनायें दर्द को उँडेलती सोचने को विवश करती हैं।आज फिर से के माध्यम से एक सच्चाई की कालिख को समेटती रचना दिल में उतर जाती है।


मुकेश कुमार सिन्हा ने मैया के माध्यम से एक ज़िन्दगी को जी लिया तो दूसरी तरफ़ अखबार की सुर्खियाँ कैसे एक इंसान को व्यथित करती हैं उसका चित्रण किया है । फिर प्रेम गीत गाते हुये कैसे एक मकान के माध्यम से संवेदनाओं के ताबूत पर आखिरी कील जडी है वह पठनीय है जो अन्तस को भिगो जाती है।

नीलिमा शर्मा ने एक ज़माना था के माध्यम से एक स्त्री जो माँ भी है उसके जीवन को दर्शाया है कि समय बदलने से उसके जीवन या दिनचर्या पर कोई फ़र्क नहीं पडता । साथ ही भावुक मन प्रभु से भक्ति का दान लेने के लिये प्रार्थना करता है तो दूसरी तरफ़ बिस्तर की सिलवटें भी एक कहानी कह्ती हैं को अपने संवेदी भावों से संजोया है और रविवार का कहो या प्रियतम का जीवन मे क्या महत्त्व है इसे दर्शाया है इस कविता के माध्यम से अरे, आज रविवार है।

नीरज द्विवेदी ने अपने रचना संसार में एक बेटी के मन के भावों को माँ , इसमें मेरा दोष ना देख के माध्यम से व्यक्त किया है देशभक्ति से ओत-प्रोत रचना मै अगस्त बनना चाहता हूँ , रात भर जलता रहा चाँद गज़ल दिल को छूती है। राष्ट्र की जिजीविषा एक प्रश्न करती है।


प्रदीप तिवारी ने आम आदमी के माध्यम से आज के हालात पर कटाक्ष किया है तो दूसरी तरफ़ बिटिया के माध्यम से बेटी का ज़िन्दगी में क्या औचित्य है उसे उकेरा है साथ में एक मुलाकात के माध्यम से इंसानी सोच को दर्शाया है और साथ में ज़िन्दगी कैसे जीनी चाहिये ये बताया है।

डाक्टर प्रीत अरोडा माँ -एक मधुर अहसास के माध्यम से माँ के महत्त्व को दर्शा रही हैं तो दूसरी तरफ़ बचपन से पोषित संस्कारों की जीत कैसे नियति को सहने को मजबूर करती है , बता रही हैं । मिलजुल कर रहने का संदेश देती नव चेतना और आशा और कर्म की शिक्षा देती सफ़लता का मंत्र कवितायें पढने योग्य हैं।

पुरुषोत्तम वाजपेयी ने जीवन साथी के जाने की पीडा को उकेरा है तू चली गयी के माध्यम से । कौन से मजहब से ,गीत मेरे आज तक और इश्क के गाँव अलग अलग स्वाद से सराबोर रचनायें मन को छूती हैं।

घुमक्कड आगन्तुक ने ज़िन्दगी के उतार चढावों के साथ जीने की जिजीविषा को बयान किया है यूँ तन्हा कब तक घूमोगे बंजारा में । तो दूसरी तरफ़ मोहब्बत के बाज़ार मे खडा मैं दीवाना दीवानगी बेचता हूँ एक शानदार रचना है साथ ही सज़दे आवारा हो गये गज़ल भी मन को मोहती है।ज़िन्दगी का तमाशा हो गया सभी रचनायें पठनीय हैं।


रविन्द्र सिंह की कल रात …मन का कोना एक भीगे दर्द का अहसास कराती रचना दिल मे उतर सी जाती है।मोहब्बत के भीने अहसास से लबरेज़ कविता पहली बारिश सच में अपने साथ भिगो जाती है मन की वादियों को । ज़िन्दगी तन्हा है और कतआत रचनायें भी पठनीय हैं ।

रेखा किरोन तो बचपन के झूले में पींगें भरने लगीं और सोच में डूब गयीं कि बचपन हमेशा यादों की वादियों में वैसा ही तरोताज़ा रहता है। नारी की वेदना को महसूसती हैं आँसुओं की वेदना से तो दूसरी तरफ़ एक अजन्मी बेटी के दर्द को पिरोया है नन्ही सी प्यारी सी में साथ ही रात थी ऐसी एक अन्दर की खोज को उकेरती रचना है।

रोशी अग्रवाल की दशानन का वध एक प्रश्नचिन्ह लगाती रचना है जो आज के हालात पर दृष्टिपात करते हुये हल भी सुझाती है ।इंसानी रिश्ते में रिश्तों के बखिये उधेडती दिखती हैं तो दूसरी तरफ़ स्त्री की पीडा में उस दर्द को बेहद संजीदगी से सहेजा है । कपट के बहुरंग अपने नाम को सार्थक कर रही है कि कैसे इंसान कभी रिश्तों के तो कभी दूसरों के कपट में घिरकर तबाह हो जाता है।

सरस दरबारी बता रही हैं अपने चाहे कितने टुकडे हो जायें फिर भी जीने के लिये अपना सहारा आप ही बनना पडता है । मौन भी बोलता है विस्तार पाता जाता है चाहे कितने ही मोडों से गुजरे । इंसान आम आदमी है कैसे लेखा जोखा रख सकता है अपने आप ही किसी के  गुनाहों का इसलिये छोड देता है अपने आप को उसके न्याय पर । माँ के प्रति संवेदना व्यक्त करती रचना माँ की महिमा का गुणगान करती है।

सतीश मापतपुरी की रचनायें ज़िन्दगी थक गयी ऐसे हालात से और ह्रदय की कोमलता मत खो देना दोनों ही आम आदमी की जद्दोजहद भरी ज़िन्दगी से शिकायत करती तो कहीं खुद को समेटती रचनायें हैं । आँख कविता में आँखो के महत्त्व को दर्शाया है तो जाने क्यों तेरी याद आती एक प्रेमी मन की मनोदशा को उकेरती रचना है। 

शैल सिंह की मर्मस्पर्शी गीत एक सिपाही की पत्नी रचना एक ऐसी पत्नी की वेदना को व्यक्त कर रही है जिसकी अभी शादी हुयी है और सुहाग की सेज़ छोड पति देश को समर्पित हो गया है तो दूसरी तरफ़ एक प्रेमी का प्रथा पर प्रहार कविता में प्रेमिका का दूसरे की हो जाने पर भी मन के तारों से ना दूर होने का खूबसूरत चित्रण है । मैं सीपी के मोती जैसी और मीत रचनायें मन को लुभाती हैं।


श्यामल सुमन अपनी गज़लों से अपने आप पहचाने वाली शख्सियत हैं जिनकी चारों गज़लें अलग ही समाँ बनाती हैं …बात कहने की धुन में सब कुछ कह देना ,पूछो तो भगवान है क्या में असलियत पर प्रहार कर रहे हैं , खार में भी प्यार है में बता रहे हैं कि ये तो देखने वाले की नज़र पर है वो क्या देखता है और राम तुम्हें बनवास मिलेगा के माध्यम से बता दिया कि आज यदि तुम इस धरती पर आ गये तो कुछ भी वैसा ना मिलेगा और तुम्हारा उपहास ही उडेगा अगर अपनी उन परिपाटियों पर चले तो क्योंकि बहुत बदल चुका है आज आदमी, उसका चरित्र , उसकी सोच्……हालात पर कडा प्रहार करती सशक्त रचना है। 

सोनल रस्तोगी ने मिथ्या देव में आज के मानव के चरित्र का सटीक चित्रण किया है तो दूसरी तरफ़ देश के हालात का जिक्र किया है गूंगे बहरे लोग के माध्यम से जिनके ज़मीर तक बिक चुके हैं पता नहीं ज़िन्दा भी हैं या ज़िन्दा लाश ही चल फिर रही है। फिर आये रूठते मनाते दिन और मै आ रही हूँ प्रेम रस से सराबोर रचनायें मन को मोहती हैं 


सुमन मिश्रा प्रेम की धूप छांव में ज़िन्दगी के रंगों को गुन रही है और निशा निमन्त्रण पर चाँद को चाहने की इच्छा कर बैठीं मैने चाँद को चाहा था में मगर स्वप्न सरीखी ज़िन्दगी में स्वप्न को आवाज़ मत दो कह रही हैं क्योंकि जरूरी तो नहीं ना स्वप्नों का साकार होना कुछ हकीकतों को कर्म की रेख से ही बुनना पडता हैं।

क्या बताएं क्या मज़ा है आलस की ज़िन्दगी में बता रहे है सुमित तिवारी और चाहते हैं वैसे ही चलने दो चाहे बिखरे हों या संवरे ज़िन्दगी जैसी है वैसी ही चलने दो नयनों में प्रेम भर कर स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए , मानवता के लिए , अत्याचार के विरोध के लिए हे वीर तुझे जगाने आया हूँ का आहवान कर रहे हैं . प्रेम के साथ कर्तव्य को भी बखूबी  निबाह रहे हैं .

सुषमा वर्मा आज ख्वाब लिख रही हैं खुली आँखों के ख्वाब और साथ में प्रेमी का हर पल दीदार हो रहा हो जिसे हर शय में वो ही दीखता हो जिसे तभी तो कह रही  हैं कहीं होऊं मैं मगर  तुम्ही को ढूंढती हूँ मैं क्योंकि तुम पर विश्वास करती हूँ प्रेम और समर्पण के भावों से सराबोर एक स्त्री मन के भावों को यूँ बयां करती हैं और अपने ख्वाब औरख्वाहिशें रख दी हैं जो एक किताब में बंद हैं कहीं तब तक जब तक कोई पढने वाला ,उन पंक्तियों को गुनने वाला न मिल जाए . 

शुभम त्रिपाठी की ग़ज़ल जीत की दहलीज से चलती है तो जानती है आगाज़ तो हुआ मगर अंजाम खाली था मगर फिर  भी दिल के किसी कोने में मेरी इतनी सी हसरत है जो यादों को किसी कब्र में दफ़न कर दिया जाए क्योंकि अब डंसने लगी तन्हाइयां जब से किसी की यादों ने बेइंतेहा घेरा  है और सिर्फ एक ही चाह में प्रेमी मन उलझा है इक बार मुझे अपना कह दे उफ़ प्रेम जो न कराये कम ही है .

डॉ प्रियंका जैन यादों के पन्ने पलट रही हैं और प्रीत की लड़ियाँ बुन रही हैं जहाँ प्रेमी से रु-ब-रु हो रही हैं .

अर्चना नायडू की माँ का आँचल महादेवी वर्मा को समर्पित है उस नीर भरी दुःख की बदरी को भिगोना चाहती हैं ममत्व से क्योंकि जानती हैं मैं तेरी सर्जनिका  हूँ तू मान न मान . अप्रतिम सौन्दर्य की मल्लिका हूँ न केवल बाहरी बल्कि आंतरिक सौंदर्य से लबालब भरी हूँ क्योंकि मैं हूँ स्वयं नारायणी एक ऐसी स्त्री जिसमे तू चाहे तो हर रूप देख सकता है सिर्फ अबला के स्वरुप को छोड़कर  . एक सृष्टि को जन्म देने वाली कैसे न अप्रितम सौन्दर्य की मल्लिका होगी . 

गौरव सुमन ने तो आँखों में तेरी सूरत बसा रखी है जब इतना प्रेम हो तो आँखों में ही रात गुजर जाती है फिर चाहे विरह वेदना कितना सताती है क्योंकि सब्र की न इन्तहा ली जाए जीने का मौका तो दे ज़िन्दगी फिर जीकर भी दिखा देंगे और फूल को शाख पर सजा देंगे . प्रेम का जज्बा तो जो न कराये कभी पागल तो कभी आशिक बनाये .

हेमंत कुमार दुबे उसे कहाँ ढूँढें जो अंतर में हो प्रगट , अव्यक्त को व्यक्त करने की कोशिश में उसी में समाना चाहते हैं क्योंकि अनामिका के प्यार की कोई जुबान नहीं होती फिर चाहे खोज में वर्षों गुजरें या युगों खोज जारी रहती है और आस का दीप टिमटिमाता रहता है मौन के गह्वर में फिर चाहे शब्दों की चहलकदमी हो या नहीं वैसे भी प्रेम कब शब्दों का मोहताज हुआ है .


लक्ष्मी नारायण लहरे फुर्सत के क्षणों में कुछ खट्टी मीठी यादों के साथ नए सवेरे के इंतज़ार में आशाएं संजो रहे हैं मगर ज़िन्दगी की तल्खियाँ , सच्चाइयां अपना कहने वालों के प्रति दुःख से चूर हो रहा है कवि मन क्योंकि उम्र भर जिनके लिए खटता रहा आज उनके पास दो पल नहीं देने को आखिर वो भी इंसान है उसकी भी कोई चाह है उम्र भर की जिसे संजोये वो जी रहा है मगर ये बात वो कैसे बताये की कुछ आशाएं उसने भी संजोयी हैं और किसे ?

नीरज विजय सोच के संसार में विचरते   तन्हा ज़िन्दगी के लम्हों से रु-ब -रु होते आज़ादी का अनुभव करना चाहते हैं उनकी यादो से जो एक टीस उत्पन्न कर रही हैं .


डॉ रागिनी मिश्र पुकार रही हैं आज के हालात से व्यथित होकर राम अब आ ही जाओ एक नहीं अनेक अहिल्याओं का उद्धार करने हेतु . आज के हालत में  हर घर में चाहिए एक विभीषण ताकि जो सही सलाह दे जन कल्याण के लिए क्योंकि हर और ज़िन्दगी में आज विद्यमान हैं अनेकों रावण . फिर भी प्रेम रस से भीगा मन कह ही देता है सिर्फ तुम हो मेरे फिर चाहे ए ज़िन्दगी तुझे कितना संभाला मैंने चाहे उसमे फूल रहे या खार .

रेखा श्रीवास्तव जान गयी हैं दोहरा सत्य ज़िन्दगी का जहाँ रोने वाले के ग़मों में कोई उसका साथी नहीं होता फिर भी ज़िन्दगी के दोराहे पर समझ नहीं पा रही क्या भूलूँ क्या करूँ क्योंकि इंसान का आखिरी मुकाम तो एक ही जगह जाकर ख़त्म होता है और शमशान तक का ही साथ होता है फिर चाहे कोई आपकी प्रशंसा करे या बुराई उसे निराश मत कीजिये .

संध्या जैन एक अलग अन्दाज़ मे अपने भावों को पिरो रही हैं जहाँ शीर्षक की जरूरत ही नहीं लगती …………बस एक कसक है प्रियतम के लिये , एक भाव है , एक मौसम है जो गुनगुना रहा है अपने रेशमी अन्दाज़ में , एक सहर है जो बैठी है उदय होने के ख्याल में , एक मोहब्बत है जो प्यास को भी चुल्लू भर पीना चाहती है और प्यास है कि और बलवती हुयी जाती है । 

संजय भास्कर ज़िन्दगी के चौराहे  पर अनाम रिश्ते बना रहे हैं जहाँ पता नहीं कौन कहाँ कब और कैसे मिल और बिछड़ रहा है और ज़िन्दगी का कारवां चल रहा है क्योंकि खुद को बांधा है शब्दों के दायरे में तब जाना कुछ खो जाने की चुभन का अहसास .

विभोर गुप्ता शिक्षा का दलालीकरण कैसे हो रहा है उस पर अपने दिल का दर्द बयां कर रहे हैं . आज तो वो कहते हैं देख बापू देख तेरे देश में क्या हो रहा है , क्या हाल बना दिया है जहाँ कुछ भी असली नहीं रहा और जब ऐसे हालात होंगे तो वो जानते है इन हालातों में दशरथ नंदन अवतार नहीं धरता इसलिए आह्वान कर रहे हैं दानवों का संहार करने के लिए और पुकार रहे हैं क्योंकि और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा  माँ भवानी अवतार धरो और दुष्टों का संहार करो .

विश्वजीत सपन रोटी के माध्यम से बेटी की दशा पर चिंतित होने के साथ सन्देश भी दे रहे हैं तो दूसरी तरफ ईश्वर और सरकार में क्या सामंजस्य है वो बता रहे हैं एक बेहद उम्दा व्यंग्य बाण के साथ प्रेम गीत भी गुनगुना रहे हैं साथ ही भाई के फ़र्ज़ को भी निभा रहे हैं रक्षा बंधन का गीत गाकर और उसकी अहमियत बताकर .

और अंत में मेरी रचनायें भी इसमें शामिल हैं 

ऊष्ण कटिबंधीय प्रदेशों मे मौसम नही बदला करते 
कौन से सितारे मे लपेटूँ बिखरे अस्तित्व को ? 
 फिर लाशों का तर्पण कौन करे ? 
क्या ढूँढ सकोगे मुझे ? 


एक ऐसा काव्य संग्रह जिसमें जीवन के प्रत्येक पहलू पर शब्दों एक माध्यम से कवियों ने चहलकदमी की है कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा चाहे जीवन के उतार चढाव हों , खुशी या गम हो या ईश्वर और इंसान हो सभी को सभी ने अपने अपने विचारों और भावों की माला में इस तरह गूँथा है कि माला का कोई भी पुष्प अलग नहीं लगता । यदि आप इस संग्रह को प्राप्त करना चाहते हैं तो सत्यम या ज्योतिपर्व प्रकाशन से सम्पर्क कर सकते हैं  

ज्योतिपर्व प्रकाशन 
m: 9811721147


SATYAM SHIVAM 
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m: 9031197811, 9934405997

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

कविता जो पुरस्कृत हुयी

दोस्तों 
 नेता जी सुभाष इंस्टीटयूट (NSIT)  KE IEEE BRANCH  में आयोजित "WOMEN EMPOWERMENT AND WOMEN SECURITY "प्रतियोगिता में मेरी कविता "शतरंज के खेल में शाह और मात देना अब मैंने भी सिख लिया है " को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ और एक टी शर्ट ,२ ० ० रूपये का चैक , एक पैन और सर्टिफिकेट प्राप्त हुआ ।







मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

तुम्हारे होने ना होने के अंतराल में

सुनो 
तुम्हारे होने ना होने के अंतराल में 
ज़िन्दगी , लम्हे , पल 
यदि बसर हो जाते 
सच कहती हूँ 
तुम इतनी शिद्दत से 
ना फिर याद आते 
क्या मिला तुम्हें 
मुझसे मेरी ज़िन्दगी, लम्हे , पल चुराकर 
मैं तो उनमे भी नहीं होती 
जानते हो ना 
अपनी चाहत की आखिरी किश्त चुकता करने को 
बटोर रही हूँ ख्वाबों की आखिरी दस्तकें 
क्योंकि 
सिर्फ तुम ही तुम तो हो 
मेरे ह्रदय की पंखुड़ी पर 
टप टप करती बूँद का मधुर संगीत 
उसमे "मैं" कहाँ ?
फिर क्यों चुराया तुमने मुझसे 
मेरी चाहतों की बरखा की बूंदों को 
उससे झरते संगीत को ?
और अब मैं खड़ी  हूँ 
मन के पनघट पर 
रीती गगरिया लेकर 
तुम्हारे होने न होने के अंतराल के बीच का शून्य बनकर 

गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

ना जाने क्यों मेरी आस की दुल्हन अब भी शर्माती ही नहीं .............

कहाँ जा रही हो
बोलो ना बाबा
अगर कुछ है तो.........
ये तीन पंक्तियाँ
गूँज रही हैं आज भी
मेरे कानों में
तुम्हारी आवाज़ बनकर
देती हैं सदायें
भेजती हैं ना जाने
कितना अनकहे पैगाम
मगर मैंने अब सुनना छोड़ दिया है
जिस दिन से मुड कर आई हूँ
पीछे नहीं देखा.............
जानते हो क्यों?
उस दिन आयी थी मैं
 किसी कारण से
अपनी पीड़ा लेकर
रुकी थी तेरी चौखट पर
आवाज़ दी तुझे
मेरे दर्द ने बिलबिलाकर
खामोश आँखों में ठहरे तूफ़ान ने कसमसाकर
क्योंकि
जरूरत थी मुझे तुम्हारी
तुम्हारे साथ की
तुम्हारे काँधे की
और तुम मशगूल थे
अपनी खुशफहमियों में
नहीं था तुम्हें इल्म
मेरी रुसवाई का
तभी तो रुक गए तुम वहीँ
वो तीन पंक्तियाँ कहकर
नहीं की कोशिश जानने की
दर्द के अलाव की
क्यों आवा इतना पका हुआ है
अब इसे तुम्हारी कहूं या अपनी
थी तो बदनसीबी ही
ना तुम जान पाए
ना मैं कह पायी
और दुनिया दो पाटों में बँट गयी
जिसके उस पार तुम
आज भी मुस्कुरा रहे हो
और जिसके इस पार मैं
आज भी अपनी सलीब
आप उठाये यूँ खडी हूँ
गोया रेगिस्तान का सूखा ठूंठ हो कोई
जिस पर कभी कोई मौसम ठहरता ही नहीं
ये दर्द के पिंजर इतने बड़े क्यों होते हैं
जिसमे लाश को खुद ढोना पड़ता है बिना उफ़ किये

कभी देखा वक्त की नज़ाकतों को कहर ढाते हुए .........

लो आज देख लो मेरी बर्बादी की मुंडेर पर कैसे गीत गुनगुना रही हैं
खडी हूँ उस जगह जहाँ से कोई रास्ता निकलता ही नहीं
चारों तरफ सिर्फ दीवारें ही दीवारें हैं
बिना दरवाज़े की
बिना गली के खड़ा मकान
जिसमे कोई खिड़की अब खुलती ही नहीं
ना अन्दर ना बाहर
है तो सिर्फ एक ज़िन्दा आदमकद आईना
जो रोज मुझमे जान फूंकता है
जीने के कलमे पढता है
बिना तोते की गर्दन मरोड़े
सांस लेने को मजबूर करता है
यूँ देखा है कभी तुमने जादूगर को मरते हुए
किसी मुर्दा अनारकली को चिनते हुए
एक श्राप को उम्र कैद की सजा भोगते हुए .............

अब नहीं होकर भी हूँ

और होकर भी नहीं हूँ
ना जाने कौन हूँ
क्या वजूद है
कुछ नहीं पता
कभी तुम तक पहुंचे कोई हवा
तो पूछ लेना मेरा पता
क्योंकि
बिना पते के लिफाफों की हवाओं का अब कोई तलबगार नहीं होता

ना जाने क्यों मेरी आस की दुल्हन अब भी शर्माती ही नहीं .............

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

और मैं बड़ी हो गयी …………मेरी नज़र से



जब से सिन्धी भाषा को लिपि का दर्ज़ा मिला सिन्धी लेखकों , कवियों ने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया क्योंकि मानवीय संवेदनाएं किसी भाषा किसी लिपि की मोहताज नहीं होती वो तो सबकी सांझी होती हैं और उसी विरासत को साँझा करने के लिए इक कदम हम सबकी सुपरिचित मुंबई में रहने वाली देवी नागरानी ने उठाया और सिन्धी साहित्य का भाषानुवाद करके एक अमूल्य कृति हम तक पहुंचाई क्योंकि किसी भी सभ्यता की पहचान उसकी भाषा उसकी संस्कृति से परिचित होना है और उससे उसकी संवेदनाओं से परिचित कराकर देवी नागरानी ने अभूतपूर्व योगदान दिया है . यूं तो कहानियां न जाने कितनी लिखी गयीं ,पढ़ी गयी और कभी कभी लगता है जैसे सब में एकरसता सी ही तो है और यदि उस एकरसता में दो बूँद विभिन्नता की पड जाएँ तो स्वाद द्विगुणित हो जाता है और उसी को रूप देती ये कहानियां मन के किसी छोर पर कहीं चोट करती हैं तो कहीं सवाल खड़े करती हैं तो कहीं मन की मिटटी को भिगोती है. 

"वो जहाँ -ये मन"कहानी एक गाँठ को अंतस में बाँधकर पूरा जीवन जीने वाली एक ऐसी गृहिणी का चित्रण है जिसे सबक एक अनपढ़ पढ़ा जाती है कि ज़िन्दगी को कैसे जीना चाहिए . एक दिशा देती कहानी मन की गुत्थियों की उलझन और साथ में सहज प्रवाह मन को बाँधता है और लेखक की भावनाओं से जोड़ता भी है . एक ग्रंथि कैसे पूरे जीवन पर हावी रहती है और अंत में जब टूटती है तो बेशक आकाश से बादल तो छंट जाते हैं मगर हाथ खाली ही रह जाते है .

मासूम यादें कहानी जात पांत, उंच नीच की दीवार को भेदती हुई , कैसे जात पांत के बीज जो संस्कारों के साथ लहू में भी पैबस्त होते हैं वो अन्दर तक कचोटते हैं मगर मानवीय संवेदनाएं और ममता का आँचल कब इन दीवारों को मानता है और ढहा देता है हर कुसंस्कारी रीति को मगर तब भी हासिल क्या होता है --------ये प्रश्न उठती कहानी अपने पीछे न जाने कितने सवाल छोड़ जाती है .

देवी नागरानी द्वारा लिखित और मैं बड़ी हो गयी नारी जीवन की दशा को दर्शाती एक कहानी क्या घ-र घर की हकीकत है ऐसी हकीकत जिसे नकारा नहीं जा सकता . कैसे एक लड़की जिसने जाना ही नहीं होता कि क्या जीवन है , क्या जीवन के सन्दर्भ हैं . जिसने सिर्फ आज़ाद परिंदों सा आकाश में उड़ना ही सी्खा होता है जिसमें एक क्रांतिकारी बीज भी दफ़न होता है जो समय- समय पर सर उठाता अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी जानता है  और कुरीतियों को तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध भी होता है .एक ऐसी लड़की जो सब देखती है , सब जानती है और समझती भी है और ज़िन्दगी की कडवी सच्चाइयों से नज़र भी मिलाती है मगर मासूमियत के खोल में अपनी आज़ादी के साथ जीना चाहती है . वो जानती है कि पितृ सत्तात्मक समाज की हकीकतें ,माँ होने की मजबूरी , दूसरी स्त्री से सम्बन्ध के अर्थ और बचपन में ही स्वयं का दोहन बता जाता है कैसे ऐसे माहौल में लड़कियाँ जल्दी बड़ी हो जाती हैं या कहो कब किस क्षण बड़ी हो जाती हैं पता ही नहीं चलता या कौन सी घटना उनसे उनकी मसूमियत छीन लेती है और एक स्त्री बना देती है पता ही नहीं चलता .उनका वो बचपन, वो मासूमियत , वो चंचलता कब खो जाती है और वो एक लड़की से गंभीर सोच वाली स्त्री बन जाती है सिर्फ एक घटना के घटित होने से शायद यही त्रासदी है . मुस्कान और ममता , निष्काम प्रेम और ममता की जीती जगती मिसाल है कैसे एक पल की ख़ुशी पर एक माँ अपना सब कुछ कुर्बान कर देती है. 

"पीड़ा मेरी ज़िन्दगी" प्रेम के अपूर्ण रहने के अहसास में ही पूर्णता पाने की एक मिसाल है एक नयी लकीर खींचने का प्रयास है जहाँ प्रेमी और प्रेमिका अपूर्णता में पूर्णता चाहते हुए भी प्रेमिका के आगे नतमस्तक होकर खुद अपूर्ण रह जाता है और ज़िन्दगी का एक नया अध्याय शुरू हो जाता है .

"कहानी और किरदार" ज़िन्दगी और कहानी की हकीकत को दर्शाती एक ऐसी कहानी है जिसमे असफल प्रेम को सामने देख सही निर्णय लेना कितना दूभर होता है उसका काफी जहीनता से चित्रण किया गया है .

पैंतीस रातें छत्तीस दिन विस्वास अविश्वास की नींव पर छली उस औरत का आंसू है जहाँ दोष न होते हुए भी सजा मुक़र्रर हुआ करती है जहाँ छले जाने पर सिसकी न भरने का फरमान जारी हुआ करता है इस पितृ सत्तात्मक समाज में ?

जीने की कला देवी नागरानी द्वारा लिखित एक ऐसा दस्तावेज है जो वास्तव में निराशा में भी आशा का संचार करती है , जीवन जीने का उसे देखने का एक नजरिया देती है कैसे खुद से और ज़िन्दगी से प्यार किया जाए . जो इन पंक्तियों में उदधृत हुयी हैं -------------"पूर्णिका का शरीर रुपी तन ,मन मयूर रुपी आत्मा एक लय, एक ताल पर ज़िन्दगी के सुर ताल पर नृत्य करते सांसों का साथ निभाते. आत्मा भी कभी मरा करती है ! अगर यही तो उसका आवरण बना शारीर कैसे कुम्हला सकता है जिसमे ऐसी अमर आत्मा वास करती है जो सांसों के साज पर रक्स करती है हर पल , हर क्षण , दिन रात , आड़ जुगाड़ से ........."

"हम सब नंगे हैं " एक चीत्कार , सत्य को बेनकाब करती एक चीख जो जब सामने आई तो खुद से भी नज़र मिलाना शर्मनाक हुआ .
"मेरी कहानी सुनना चाहोगे?कहानी एक नहीं है , मेरी सौ सौ कहनियाँ हैं . मैं अकेली तो नहीं हूँ , मेरी जैसी और भी हैं .हमारी ये कहानियां आप जैसे मर्दों की बदसूरती की कहानियां हैं , आपकी नंगी वहशत की कहानियां हैं "

एक ऐसा शर्मनाक सच है जो समाज के शापित चेहरे पर उसकी विभत्सता को दर्शाता है और ढीठ सा ठठाता है मगर नज़र नहीं झुकाता .

"जो वस्त्र स्त्री की हया को ढांपने के साधन हैं उसको भी अगर आप मर्द उसकी ही मौत का सामान बना देते हो तो फिर वह नारी वस्त्र पहने ही क्यों?"

एक तमतमाता तमाचा मारता प्रश्न छोडती है समाज के चेहरे पर ये कहानी .


छोटा दुःख बड़ा दुःख मानवीय जीवन में घटित होती छोड़ी बड़ी घटनाओं के साथ जीवन जीने की जद्दोजहद है कैसे एक तल्खी सोच पर हावी होती है एक पल में और दूसरे ही पल किसी और बड़े कारण से उस तल्खी का नामो निशान भी नहीं रहता ज़िन्दगी में .  बस इसी का सामंजस्य है इस कहानी में छोटी बातें कोई महत्त्व नहीं रखतीं किसी बडी घटना के आगे।

क़र्ज़ की दरख्वास्त सरकारी काम काज के ढर्रे का बयां है जिससे हर कोई बचना चाहता है जैसा कि कहानी का नाम खुद स्पष्ट कर रहा है ..संवेदनहीन खुरदरे चेहरों पर लकीरें नहीं उभरा करतीं . 

देवी नागरानी की नयी माँ रिश्तों की पैंठ को दर्शाती वो जीवन का कटु सत्य है जिससे न जाने कितनी मासूमों के जीवन के सुनहरी पलों को लील लिया है मगर फिर भी आपसी समझ या विश्वास का वातावरण न मुहैया हुआ है मगर इस कहानी में उसी को तोडा गया है और नयी माँ में माँ को एक सखी का रूप दिया गया है वर्ना तो मजबूरी में कम  उम्र में शादी , अपने से बड़ी उम्र के बच्चों की माँ बनना आम रवायत सी रही है और उसी को एक नया मोड़ दिया है नयी माँ में .

दस्तावेज विभाजन की दास्ताँ को बयां करता दस्तावेज है जहाँ अब भी कहीं न कहीं रिश्तों की गर्माहट और संवेदनशीलता जिंदा है .

"और गंगा बहती रही" ............समाज की वीभत्सता का नंगा नाच है जहाँ विश्वास का पग पग पर बलात्कार होता रहा . "न राम मिला न रहीम और गंगा हो गयी महामहिम " वाला हाल बयां करती एक खामोश चीत्कार जो कब पाप धोते धोते खुद ही गंदली हो गयी . 


"जुलूस" हर युग में नेता की नेतागिरी का मापदंड बना फिर चाहे वो किसी अपने की लाश पर ही क्यों न निकाला जाये इन तथा कथितों का ईमान तो सिर्फ कुर्सी की गद्दी से चिपका होता है जिसे भुनाने के लिए वो कोई भी हद पार कर सकते हैं . 

"बिजली कौंध उठी " आज की पीढ़ी के चरित्र  हनन का जीता - जागता उदाहरण है जिसमें बुजुर्गों के लिए कोई जगह नहीं यदि है तो सिर्फ एक बोझ की तरह .

जियो और जीने दो में देवी नागरानी ने एक ऐसे रूप का दर्शन दिया है जिसे प्रेम का नाम तो दिया मगर प्रेम में बंधन स्वीकार नहीं, कभी कभी किसी के लिए वो मानसिक सांत्वना , दो पल का सुकून होता है तो किसी के लिए जीवन भर का साथ और यदि एक मोड़ पर पहुँचने के बाद पता चले तो लगता है जैसे ठगे गए सब कुछ बिखर गया यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी . प्रेम की अवधारणायें  बड़ी विचित्र होती हैं जियो और जीने दो कहना जितना आसान लगता है निभाना उतना ही मुश्किल. 

जेल की डायरी फिर समाज के स्याह चेहरे को उजागर करती जुर्म की काली दास्ताँ है जो सामने हो हमेशा वो ही सच नहीं होता और परदे के पीछे की हकीकतें बेहद भयावह होती हैं जिन्हें यदि जानना हो तो नकाब हटाने पड़ते हैं जो सीधे तेज़ाब से चेहरे पर छलकते हैं और आत्मा को जलाकर राख कर देते हैं ऐसी विभत्सता की दास्ताँ है जेल की डायरी जो यदि खुद पढो तो जानोगे दर्द और जुर्म की इन्तहा क्या होती है और क्यों होती है .

सच्चा पाकिस्तानी दो मजहब और दो देशों की सरहदों पर दस्तक देती एक बुजुबान है जो मुखर होना चाहती है मगर संगीनों के साये तले  आवाज़ पर भी बेड़ियाँ डली हैं और शब्दों पर पहरे .

"बारूद " जिस्म की वो कब्रगाह है जिसमे पड़ा बारूद उम्र भर चाहे कितना भी सुलगा मगर विस्फोट नहीं हुआ मगर स्त्री तो स्त्री होती है आखिर कब तक , कैसे और किसके सहारे खुद को बचा सकती है विस्फोट तो होकर ही रहा फिर चाहे किसी के सपनों का आशियाँ हमेशा के लिए उजड़ गया .

इस संग्रह की सभी कहानियां ज्यादातर समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही हैं और एक प्रश्न हर बार समाज के चेहरे पर जड़ रही हैं उत्तर की दरकार में . एक सशक्त कहानी संग्रह जो हिंदी भाषा से इतर भी एक पहचान बनाये है और अपने छोटे रूप में भी पहचान छोड़ने में कामयाब है . हर कहानी खुद एक कहानी बोलती है जो कहीं न कहीं आत्मा को झकझोरती है और इन्हें हिंदी में अनुवाद करके देवी नागरानी ने हिंदीभाषियों पर एक उपकार किया है जो समाज की विसंगियों का दर्शन कराता है  और बताता है तस्वीर हर रूप में , हर युग में , हर देश , हर काल में एक सी ही है फिर चाहे धर्म , जाति या भाषा अलग क्यों न हों।

इस कहानी संग्रह के लिए उन्हें अक्षर शिल्पी पुरस्कार महात्मा गाँधी शांति प्रतिष्ठान में 12 मार्च  को प्रदान किया गया जिसकी साक्षी मैं भी रही जिसने गौरान्वित किया कि हम ऐसी शख्शियत के साथ खड़े हैं जिनकी न केवल अपने देश बल्कि विदेशों में भी एक उच्च स्थान और पहचान है. 150 रुपये की ये किताब आप इस पते से प्राप्त कर सकते हैं :

संयोग प्रकाशन 
9/ए , चिंतामणि , आर. एन. पी पार्क 
भाईदर  (पूर्व) मुंबई ------401105
भारत 
मोबाईल : 9920311683



देवी नागरानी 

9- डी , कार्नस्व्यू सोसाइटी
15/33 रोड , बांद्रा , मुंबई -------400050  
मोबाइल : 099879-28358