पेज

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

इश्क कटोरा पीत्ता भर भर

दोस्तों अभी अभी जाने क्या हुआ जो भाषा सिर्फ़ सुनी भर है उसे जानती भी नहीं उसमें भाव उमड आये , अब इसे क्या कहूँ समझ नही आता कोई कुदरत का ही चमत्कार है शायद क्योंकि पंजाबी सिर्फ़ सुनी है बाकि मेरा तो सारा माहौल ही हिन्दी का है पढ्ना तो बहुत दूर की बात है फिर भी ये भाव उभरे तो लगा किसी जानकार को दिखा देनी चाहिये कहीं कुछ गलत न लिख दिया हो तो पंजाबी के जानकार अमरजीत कौंके जी को दिखायी तो उन्होने बताया सिर्फ़ पिया शब्द को पीत्ता कर दें बाकि सब सही है तो खुद को भी आश्चर्य हुआ कि ये हुआ कैसे …………फिर उन्होने इसे गुरुमुखी में लिख कर भेजा जिसे ऐसा का ऐसा लगा रही हूँ 


मैं 

इश्क कटोरा पीत्ता भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

ओ मेरे राँझेया मैं तेरी हीर वे 
जिन जपया साँस विच तेरा नाम वे 
फेर क्यूँ जल विच मीन प्यासी वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता  भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

रूहां ते मैं टुकड़े कर दित्ते 
टुकड़ों विच मैं राँझा लिख दित्ता 
ते फेर कौन फकीरा जुदा कर दित्ता 
जे मैं हो गयी खुद से बेगानी वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता  भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

दिल दा तुझे खुदा बनाया 
तेरे नाम दा  सज़दा कित्ता 
और न द्वारे सर ये झुकता 
फेर क्यूँ न मिलया तेरा नज़ारा वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

तू मेरा माही तू ही पैगम्बर 
तू ही मेरा इक्को रब्बा वे 
तेरे लए  मैं दुनिया छड दी 
फेर क्यूँ न इश्क परवान चढ्या वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता  भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

अंक्खां  विच चनाब  है वसदा 
तेरे नाम दियां डुबकियां लगांदा 
तेरे नाम दे ख़त है लिख्दां 
फेर क्यूँ न तेरा जवाब आंदा वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 



अब इसे पढ़िए गुरुमुखी में अमरजीत कौंके द्वारा अनुवाद करके भेजी गयी है हार्दिक आभारी हूँ उनकी 

ਮੈਂ ਇਸ਼ਕ ਕਟੋਰਾ ਪੀਤਾ ਭਰ ਭਰ ਫਿਰ ਵੀ ਰਹਿ ਗਈ ਪਿਆਸੀ ਵੇ ਓ ਮੇਰੇ ਰਾਂਝਿਆ ਮੈਂ ਤੇਰੀ ਹੀਰ ਵੇ ਜਿਹਨੇ ਜਪਿਆ ਹੈ ਸਾਹਾਂ ਨਾਲ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਵੇ ਫਿਰ ਕਿਓਂ ਜਲ ਵਿਚ ਮੀਨ ਪਿਆਸੀ ਵੇ ਮੈਂ ਇਸ਼ਕ ਕਟੋਰਾ ਪੀਤਾ ਭਰ ਭਰ ਫਿਰ ਵੀ ਰਹਿ ਗਈ ਪਿਆਸੀ ਵੇ ਰੂਹਾਂ ਦੇ ਮੈਂ ਟੁਕੜੇ ਕਰ ਕੇ ਉੱਤੇ ਰਾਂਝਾ ਲਿਖ ਦਿਤਾ ਫਿਰ ਕਿਸ ਫ਼ਕੀਰ ਨੇ ਪਾਈ ਜੁਦਾਈ ਤੇ ਮੈਂ ਹੋ ਗਈ ਖੁਦ ਤੋਂ ਬੇਆਸੀ ਵੇ ਦਿਲ ਦਾ ਖੁਦਾ ਬਣਾਇਆ ਤੈਨੂੰ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਦਾ ਸਜਦਾ ਕੀਤਾ ਹੋਰ ਦਵਾਰੇ ਸਿਰ ਨਾ ਝੁਕਦਾ ਫਿਰ ਕਿਓਂ ਨਾ ਮਿਲਿਆ ਤੇਰਾ ਨਜ਼ਾਰਾ ਵੇ ਮੈਂ ਇਸ਼ਕ ਕਟੋਰਾ ਪੀਤਾ ਭਰ ਭਰ ਫਿਰ ਵੀ ਰਹਿ ਗਈ ਪਿਆਸੀ ਵੇ ਤੂੰ ਮੇਰਾ ਮਾਹੀ ਤੂੰ ਹੀ ਪੈਗੰਬਰ ਤੂੰ ਹੀ ਮੇਰਾ ਇੱਕੋ ਰੱਬਾ ਵੇ ਤੇਰੇ ਲਈ ਮੈਂ ਦੁਨੀਆਂ ਛਡ ਦਿਤੀ ਫੇਰ ਕਿਓਂ ਨਾ ਇਸ਼ਕ ਪਰਵਾਨ ਚੜਿਆ ਵੇ ਅੱਖਾਂ ਵਿਚ ਝਨਾਂ ਹੈ ਵੱਸਦਾ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਦੀਆਂ ਚੁਭੀਆਂ ਲਾਉਂਦਾ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਦੇ ਖ਼ਤ ਹੈ ਲਿਖਦਾ ਫੇਰ ਕਿਓਂ ਨਹੀਂ ਤੇਰਾ ਜਵਾਬ ਆਉਂਦਾ.. ਮੈਂ ਇਸ਼ਕ ਕਟੋਰਾ ਪੀਤਾ ਭਰ ਭਰ ਫਿਰ ਵੀ ਰਹਿ ਗਈ ਪਿਆਸੀ ਵੇ
फिर भी कोई कमी रह गयी हो तो बताइयेगा

बुधवार, 26 मार्च 2014

कवि ,सिर्फ कुछ के कह देने भर से नहीं हो जाते हो ख़ारिज

तुम्हें अपमानित प्रताड़ित करना ही 
जिनका ध्येय है कवि  
वो ही आधार बनते हैं 
तुम्हारे नव सृजन के 
तुम्हारे अंतस में बोते हैं जो 
तुम्हारी अवहेलना के बीज 
देते हैं समय से खाद पानी 
अपने व्यंग्य बाणों आलोचनाओं द्वारा 
वो पथ बाधक नहीं 
कवि,  करो उन्हें नमन 
क्योंकि 
आधारशिला हैं वो 
तुममे नव सृजन के 
और संजीदगी से 
रचनाकर्म करने को 
प्रेरित करने वाले 
तुम्हारे अपने आलोचक ही होते हैं 
जो जानते हैं 
तुम्हारी क्षमताओं को 
पहचानते हैं तुममे छुपी प्रतिभाओं को 
और सिर्फ एक शब्द बाण से 
कर धराशायी तुम्हारी 
प्रसिद्धि की मीनारों को 
जगा देते हैं तुममें 
सुप्त पड़ी उस उत्कंठा को 
हाँ , पहुंचना है मुझे भी शिखर तक 
हाँ , करना है मुझे भी अपने 
लेखन द्वारा प्रतिकार 
हाँ , मनवाना है लोहा 
अपने कवित्व का 
अपने कौशल का 
स्वयं में दबी छुपी 
उस सोयी खोयी 
दबी ढकी 
कविता का जो 
बना दे तुम्हें और तुम्हारे लेखन को 
मील का पत्थर 
वो नही जानते 
चिंगारियाँ ही शोले बना करती हैं 
इसलिये करके तुम्हें आहत 
लिखवा देते हैं 
तुम्हारे ही माध्यम से 
कालजयी कविता 
इसलिए साबित करने को खुद को 
कवि  चलने दो साथ साथ अपने 
उन अदृश्य ताकतों को 
जो स्वयमेव सहायक सिद्ध हो रही हैं 
तुम्हारे नव सृजन में बन रही हैं 
वाहक भावों के आगमन की 

बेशक कभी छदम वेश धारण कर 
तो कभी प्रत्यक्षत: तोडेंगे वो तुम्हारा मनोबल 
बनायेंगे साजिशों के पुल करने को तुम्हें धराशायी 
बेशक समझते रहे वो तुम्हें कमजोर 
बेशक बिछाते रहे राह में नागफनियाँ 
कवि बस तुम्हें है चलते जाना 
लक्ष्य संधान हेतु रखना है 
सिर्फ़ मछली की आँख पर ही निशाना 
क्योंकि 
भावनाओं के वटवृक्ष से लबरेज हो तुम कवि 
और वो करना चाहते हैं तुम्हें 
भावनाओं द्वारा ही आहत 
कुचलना चाहते हैं तुम्हारी प्रतिभा 
तिरस्कार , अपमान द्वारा 
तुम्हें और तुम्हारे लेखन को दोयम बताकर 
मगर वो ये नही जानते 
जिस तरह सौ झूठ मिलकर भी 
एक सत्य को मिटा नहीं सकते 
उसी तरह 
चाहे जितने पैदा हो जाएँ 
तुम्हारे लेखन विरोधी 
भावों की बहती सरिता के 
प्रवाह को रोक नहीं सकते 
रुख मोड़ नहीं सकते 
बल्कि वो तो मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं तुम्हारा 
बिन कुछ किये ही हो रहे हो प्रसिद्ध 
क्योंकि 
कवि  सिर्फ कुछ के कह देने भर से 
तुम नहीं हो जाते हो ख़ारिज 
तुम या तुम्हारी कविता 
वो जो तुम्हारे प्रशंसक हैं 
क्या उनके कहे का कोई मोल नहीं 
क्या उनका कथन महज तुम्हारी 
प्रशंसा भर है 
नहीं , कवि 
तुम , तुम्हारा लेखन 
कभी नहीं होगा ख़ारिज 
जब तक तुम स्वयं पर 
विश्वास रख भावों के सागर में डूब 
शब्दों के मोती खोज लाते रहोगे 
जनमानस के मन की बात 
अपनी कविताओं में कहते रहोगे 
एक चिन्तन व्यक्त करते रहोगे 
कुछ समय से परे हकीकत के धरातल पर 
सत्य को उकेरते रहोगे 
भावों के मदिरालाय में डूबते रहोगे 
नहीं हो सकते ख़ारिज 
क्योंकि 
सत्य की कसौटियों पर 
सिर्फ कुंदन ही खरे उतरा करते हैं 
इसलिए 
करो नमन उन्हें 
जो तुम्हारे लिखे में 
दोष ढूँढा करते हैं 
और तुम्हें और अच्छा लिखने को 
वजहें दिया करते हैं 
कामयाबी की पहली सीढ़ी  तो 
सिर्फ वो ही हुआ करते हैं 
जो कराते हैं मुहैया तुम्हें 
आलोचना की पहली सीढ़ी 
रखो पाँव उसी आलोचना की कील पर 
हो जाओ लहुलुहान और आगे बढ़ो 
कवि  , कल तुम्हारा है 
कल के आसमान पर रखने को पाँव 
उन्हें नमन तो तुम्हें करना ही होगा 
क्योंकि 
यूँ  ही नहीं कहा गया 
निंदक नियरे राखिये 
आँगन कुटी छवाय 
बिन पानी साबुन बिना 
प्रसिद्धि रहे दिलवाय 

रविवार, 23 मार्च 2014

काश तुम विचारों में ही ज़िंदा होते


भगतसिंह 
काश तुम विचारों में ही ज़िंदा होते 
तो एक और इंकलाब कर गए होते 
मगर आज के परिदृश्य में 
न तुम रहनुमा हो 
न पथिक 
न साथी 
सिर्फ सन्दर्भ भर हो 
जिसे २३ मार्च आने पर ही 
चिताओं की राख से 
उठना है 
उड़ना है 
और फिर 
हवाओं में खो जाना है 
क्योंकि 
आज प्रासंगिक नहीं हो तुम 
न तुम्हारे विचार 
न तुम्हारा आंदोलन 
किसे परवाह है तुम्हारी शहादत की 
 कुर्सी पर बैठे 
इन कठमुल्लाओं से तुम 
क्या उम्मीद करते हो 
कि होते होंगे सच में कभी नतमस्तक 
तुम्हारी शहादत के प्रति 
दो फूल चढ़ाकर तुम्हारी फ़ोटो पर 
हो जाती है जिनकी इतिश्री 
और फिर उतर  जाते हैं 
अपनी हवस की नदियों में 
हाँ , कुर्सी की हवस की नदियों में 
तब याद नहीं आती तुम्हारी कुर्बानी 
बंध जाती है विवेक पर 
तुच्छ स्वार्थों की पट्टी 
और फिर की जाती हैं 
तुम्हारे नाम पर गोष्ठियाँ 
तुम्हारी शहादत को मिसाल बना 
सेंकी जाती हैं अपनी ही रोटियाँ 
बताओ भगतसिंह 
क्या इसी दिन के लिए हुए थे तुम कुर्बान 
क्या इसी दिन के लिए करवाया था देश आज़ाद 
इसीलिए कह रही हूँ 
अब सिर्फ सन्दर्भ भर रह गए हो तुम 
और जानते हो 
आज के इस स्वार्थपरक माहौल को देख कर कह सकती हूँ 
आने वाले काल में 
शायद न रहो प्रासंगिक सन्दर्भों में भी 
क्योंकि 
आज कोई माँ अपने बच्चे को नहीं सुनाती 
गुलामी की दहशत की कहानियां 
नहीं बंधाती ढांढस 
इकलौते सपूत की कुर्बानी पर 
जनता को ये कहकर 
एक भगत कुर्बान हुआ तो क्या है 
ये करोड़ों भगत तो ज़िंदा है तुम्हारे रूप में 
क्योंकि 
गुलामी किस चिड़िया का नाम है  …… यहाँ कोई नहीं जानता 
ये आज की पीढ़ी है 
२१ वीं सदी की पीढ़ी 
और तुम हो 
२० वीं सदी का सिर्फ एक  शिलालेख भर 
 फिर कैसे हो सकता है तारतम्य सदियों के फासलों में 
बताओ तो ज़रा 
और जानते हो 
'सन्दर्भ' जरूरत पड़ने पर सिर्फ प्रयोगों के लिए होते हैं 
जीवन में उतारने के लिए नहीं 
ये है आज के युग की वास्तविकता 
फिर कैसे कहूँ 
स्मृतियों में ज़िंदा हो तुम विचार रूप में 
सिर्फ इतना ही कह सकती हूँ 
शर्मिंदा हूँ अपनी बेचारगी पर 
फिर कैसे सिर्फ नतमस्तक हो 
कर दूं इतिश्री तुम्हारी शहादत पर 


गुरुवार, 20 मार्च 2014

चुभते दिन चुभती रातें

जहाँ न धूप निकलती है उन गलियों में भी ज़िन्दगी पलती है ………#geetashree  बिंदिया के मार्च अंक में ( उस गली में सूरज नहीं निकलता ) ने झकझोर कर रख दिया , मन कल से बहुत व्यथित हो गया तो बस ये ही उदगार निकले :

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

कैसे भोर ने ताप बढाया
कैसे साँझ ने जी तडपाया
युग के युग बीत गये
किससे कहे बिरहा की बातें

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

प्रेम कली मुस्कायी जब भी
आस की बाती गहरायी तब ही
इक रात की दुल्हन बनकर
उम्र भर की चोट पायी तब ही

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

यूँ न प्रीत ठगनी ठगे किसी को
यूँ न प्रेम अगन लगे किसी को
जहाँ भोर भी आने से डरती हो
उन गलियों न ले जाये किसी को

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

रविवार, 16 मार्च 2014

कहो तो ……ओ फ़ागुन




रंगों के इंद्रधनुष बनते ही नहीं 
फिर होली का सुरूर कैसे चढ़े 

पिया सांवरे मदमाते ही नहीं 
फिर गोरिया की होली कैसे मने 

पिचकारी प्रेम की चलाते ही नहीं 
फिर लाज का घूंघट कैसे हटे 

कहो तो ……ओ फ़ागुन 

हो हो हो होली कैसे मने 
अबकी प्रीत परवान कैसे चढ़े 

सजनिया कृष्ण बिन राधा कैसे बने 
हो हो हो होली कैसे मने 

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

क्या मेरा डरना जायज नहीं ?

शादी का माहौल हो 
तो मस्ती छा ही जाती है 
कितना छुपाओ चेहरे से 
ख़ुशी झलक ही जाती है 

इक दिन ऐसे ही शादी में जाना हुआ 
मानो कोई गीत गुनगुनाना हुआ 
रोजमर्रा के अख़बार सा चलन लगता है 
जब शादी का सीजन चलता है 
पडोसी के लड़के की शादी थी 
हमें तो सिर्फ इतना भर करना था 
बस जाकर शगन पकड़ना था 
और दावत  पर हाथ साफ़ करना था 

अब जायेंगे तो निगाहें 
घर पर तो नहीं छोड़ जायेंगे 
कुछ न कुछ तो देखेंगे 
कुछ किस्से नागवार भी गुजरेंगे 
तो कुछ दिल को सुकून भी देंगे 
सो हम भी अवलोकन करते घूम रहे थे 
कौन क्या कर रहा है देख रहे थे 

शादी का आकर्षण 
या तो दूल्हा दुल्हन होते हैं 
या फिर शादी में घूमती 
इठलाती , मचलती कन्याएं होती हैं 
जिन की सज धज पर सबकी निगाह होती है 
आकर्षण का मुख्य केंद्र होती हैं 
तो निगाहें भी बार बार 
वहीँ का रुख करती हैं 

अब ऐसे में यदि फैशन परेड सी हो जाए 
कुछ कैट वॉक करती हसीनाएं दिख जाएँ 
तो शादी में पहुँचे कुछ शोहदों की तो निकल पड़ती है 
निगाहों में तोला जाता है 
जाने क्या क्या टटोला जाता है 
जब हसीनाएं बेख़ौफ़ बैक लैस चोली पहनती हैं 
जो सिर्फ एक डोरी से  बंधी होती है 
बेहद खूबसूरत 'हाथ लगाओ तो मैली हो जाए '
ऐसी कोई बाला हो 
और ऐसे में यदि 
उसके पिता का हाथ ही कुछ कहते हुए 
बैक पर पड़ता है 
जाने कैसे न पिता को न पुत्री को असर होता है 
ये कैसी खोखली आधुनिकता है 
ये कैसी अंधानुकरण की प्रवृत्ति है 
जहाँ 
मर्यादाओं की पगड़ी  यूं उछलती हैं 
मानो कोई सीता चिता में जलती है 
ये देख देश की संस्कृति रोती है 
मगर आज आधुनिकीकरण के युग में 
न इस तरफ ध्यान कोई देता है 
फिर यदि कहीं कोई अनहोनी होती है 
तो दोष समाज को मिलता है 

बेशक मनचाहा पहनने पर 
सबका अपना हक़ होता है 
मगर जिस्म की नुमाइश कर 
कौन सी आधुनकिता होती है 
ये तो समझ से परे होती है 
क्या रिश्तों की मर्यादा भी मायने न रखती है 
जब  पिता का हाथ यदि पुत्री के 
अर्धनग्न हिस्से पर पड़ता है 
देखने वालों पर क्या असर होता है 
न इस तरफ कोई ध्यान देता है 

क्योंकि 
हर हाल में 
स्त्री तो स्त्री ही होती है 
अपने स्त्रीत्व के गुणों से भरपूर होती है 
ज़रा इस तरफ ध्यान दे 
आधुनिकता को अपनाएंगे 
तो क्या पिछड़ों की जमात में गिने जायेंगे 
ऐसा न कभी होता है 
बस एक मर्यादा ही पोषित होती है 
और आधुनिकता नग्नता से न उपजती है 
जिस दिन ये समझ जायेंगे 
शायद कुछ समाज को दे जायेंगे 

मगर हमें क्या फर्क पड़ता है 
किसी से कह नहीं सकते 
कुछ कहने पर 
हम पर ही कुछ नागवार कैक्टस 
पलटवार करते नज़र आयेंगे 
सो हम ने भी आँखों देखा हाल जज़्ब किया 
और चुप का ताला मुँह पर जड़ लिया 
बस स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया 
और घर को प्रस्थान किया 

मगर 
जाने क्यों 
उस लड़की की पीठ पीछा करती रही 
रोज सोच पर दस्तक देती रही 

न आधुनिकता के खिलाफ हूँ 
न स्त्री की स्वतंत्रता के खिलाफ हूँ 
स्त्री  अधिकारों के लिए लड़ सकती हूँ 
मगर स्त्री होकर यही सोच रही हूँ 
आखिर जब उसकी वस्त्रहीन पीठ ने 
मुझे व्यथित किया 
तो यदि ऐसे में किसी पुरुष की कुत्सित निगाह पड़ जाये 
तो  ……… ?

मेरे अंदर की स्त्री उस लड़की के लिए डरती रही 
क्या आज के इस अराजक माहौल में 
मेरा डरना जायज नहीं ?
 

शनिवार, 8 मार्च 2014

महिला दिवस के उपलक्ष्य में


सिर्फ एक दिन नही समस्त सृष्टि ही मेरी है 
या कहो मैं हूँ तभी सृष्टि का विस्तार है 
फिर कैसे ना कहूँ 
एक दिन में नही बँधने वाली 
मै हूँ हर दिन जीवन में मनने वाली दीवाली  
अब ये तुम्हें समझना जरूरी है 
जब हर दिन मेरा है 



सुबह से आज जैसे आम महिलायें करती हैं वैसे ही शापिंग के लिये गयी और साडियाँ खरीदीं भी और खरीदवायी भी ………लीजिये मन गया महिला दिवस आज कुछ इस तरह :) और फ़ुर्सत ही नही मिली कि यहाँ आयें मगर अब आये हैं तो आपको बता दें कि महिला दिवस के उपलक्ष्य में कल यानि 9 -3-2014 को रात 8 बजकर 5 मिनट पर आप आकाशवाणी के 246.9 m / 1215 kilo hertz पर महिला काव्य गोष्ठी का आस्वादन कर सकते हैं और चर्चा का भी आनन्द ले सकते हैं और यदि कोई सुने और रिकार्ड कर सके तो कर ले क्योंकि हम तो सुन नही पायेंगे ……कुछ चित्र साझा कर रही हूँ जिसमें रेणु हुसैन, रेणु पंत , इंदु सिंह , पुष्पा राही और आपकी ये दोस्त शामिल है 




रविवार, 2 मार्च 2014

ये संयोग तो नहीं हो सकता ना

दीगर था 
वक्त का रुकना 
चलते वक्त के साथ तो 
सभी चला करते हैं 
मगर 
जो रुक जाती हैं सूइयां 
और बंद हो जाती है घडी 
तब ठहर जाता है 
चलता हुआ लम्हा 
उस रुके हुए पल की 
मृत्यु शैया के पायतानों पर 
क्योंकि 
कहीं दूर टंकारता 
समय चक्र 
बेशक अपने चलने को 
सिद्ध करता रहे 
मगर 
रुकी घडी साक्षी थी 
वक्त के रुकने की , थमने की , ठहरने की 
बेशक
विराम की अवस्थाएं वाहक हैं पुनर्जन्म की 
मगर 
दीगर था
वक्त का रुकना 
उस रुकी घडी के साथ 
शून्य को भरने को 
चाहे कितने सूर्य उगा लो 
खालीपन नहीं भरा करते ठूंठ हुए वृक्षों के ............. 

(उधर एक ज़िन्दगी थम रही थी और इधर ये कविता उतर रही थी और दोनों में से किसी को नहीं पता था कि अगले पल क्या होने वाला है मगर कोई अवचेतन में बैठा यूं कविता में माध्यम से थमती ज़िन्दगी को बयां कर रहा था मगर उस वक्त ऐसा कुछ होने का अहसास भर भी न था और सच में एक घडी बंद हो गयी उसी क्षण ............. ये संयोग तो नहीं हो सकता ना ……… कल रात ऐसा ही हुआ जब ये कविता लिखी जा रही थी और उधर किसी अपने की ( पति के चाचा जी की )साँसें थम रही थीं …… अजब कैफियत है आज दिल की ये सोच सोच जब दोबारा इस कविता से गुजरी )