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शनिवार, 30 मार्च 2013

होती है "लाइफ़ आफ़्टर डैथ" भी

सुना था
लाइफ़ आफ़्टर डैथ के बारे में
मगर आज रु-ब-रु हो गया ………तुम्हारे जाने के बाद
ज़िन्दगी जैसे मज़ाक
और मौत जैसे उसकी खिलखिलाती आवाज़
गूँज रही है अब भी कानों में
भेद रही है परदों को
अट्टहास की प्रतिध्वनि
और मैं सोच में हूँ
क्या बदला ज़िन्दगी में मेरी
और तुम्हारी ………जब तुम नही हो कहीं नहीं
फिर भी आस पास हो मेरे
मेरे ख्यालों में ख्याल बनकर
तब आया समझ इस वाक्य का अर्थ
होती है "लाइफ़ आफ़्टर डैथ" भी  ……अगर कोई समझे तो!!!

मंगलवार, 26 मार्च 2013

कैसे मनाऊँ होली तुम बिन साजन

कैसे मनाऊँ होली तुम बिन साजन 
मन में तो तल्खियों के भंवर पड़े हैं 
जो शूल से उर में गड़े हैं 
तुम साथ हो फिर भी मन में फैली 
मीलों की दूरी कहो कैसे मिटाऊँ साजन 

जब से प्रीत तुमसे जुडी है 
मैंने अपना हर रंग तुम संग संजोया 
चाहे इक फांस मन में गडी है 
फिर भी तुम से ही लगन लगी है 
ये कैसे मेरी प्रीत का रंग है 
जो तुम पर ही अटक गया है 
मगर मन का टेसू तो सिसक गया है 
ना आह करता है न वाह करता है 
जिसमे होली का न कोई चिन्ह दीखता है 
फिर कहो तो साथ होते हुए भी 
कैसे मनाऊँ होली तुम बिन साजन 

रंगों की बहार उमड़ी है 
मगर मेरी होली दहक रही है 
शोलों का श्रृंगार करके 
तुम्हारी प्रीत को गोद में रखके 
होलिका सी जल रही है 
कहो तो जो बिखरा है रिश्ता 
कैसे उसे बचाऊँ साजन 

साथ होकर भी बिखरे पलों में 
कैसे मनाऊँ होली तुम बिन साजन 

रविवार, 24 मार्च 2013

ए री सखी, आज कोई ऐसा रंग उडा दें



सुरमयी उतरी है साँझ मेरे आँगन में
नवयौवना ने दी है दस्तक मेरे द्वारे पे

ए री सखी,
कोई महावर रचाओ
कोई उबटन बनाओ
कोई द्वार सजाओ
कोई तोरण बनाओ
कोई मंगलगीत गाओ
ब्याह की भी कोई उम्र होती है भला
चलो आज विदाई से पहले
साँझ को दुल्हन बना दें
उसे उसके मीत से मिला दें 

ए री सखी,
उस पर अबीर गुलाल उडा दें
फ़ाग के रंगों की चूनर ओढा दें
वन वन भटकती राधा को
चलो उसके श्याम से मिला दें
प्रीत को उसकी सोलह श्रृंगार से सजा दें
मनमोहिनी कोई सूरत उसके दिल में बिठा दें
इश्क की भांग का इक जाम पिला दें
मदहोश होने की भी कोई उम्र होती है भला
चलो आज उसे मीरा सी दीवानी बना दें
प्रेम की धुन पर दीवानावार नचा दें

ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें
जो सांझ के सुरमयी रंग में मोहब्बत का इंद्रधनुष बना दें
ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें जो प्रीत की झांझरें पाँव मे झनका दे 
ए री सखी,
आज प्रेम रंग ऐसा उडा दे जो प्रीत के गुलाल मे तनमन महका दे 
ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें उसे उसके प्रियतम की प्रेयसी बना दे
ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें जो अलिफ़ लैला की कहानी दोहरा दे
ए री सखी,
आज कोई ऐसा रंग उडा दें जो साजन को सजनी से मिला दे
ए री सखी,
आज तो कोई ऐसा रंग उडा दें प्रेम की हर बगिया महका दे

गुरुवार, 21 मार्च 2013

आना चाहते हो ना इस पार

सुनो 
आना चाहते हो ना इस पार 
मेरे गमों को 
मेरे दर्द को 
अपने जीने की 
वजह बनाने को 
तो ध्यान से आना 
यहाँ बुझी चितायें भी 
शोलों सी भभकती हैं 
अरे रे रे संभलना ………
ये जो धार है ना अश्कों की
इन पर पाँव ज़रा संभल कर रखना
कहीं फ़फ़ोले ना पड जायें
और मेरे दर्द में
एक इज़ाफ़ा और कर जायें
जानते हो ना ………
मैं चाहे कितना सिसकूँ , तडपूँ
मगर तुम्हारी रूह पर
दर्द की हल्की सी लकीर भी गंवारा नहीं ………
यूँ भी अश्कों की धार पर चल
मंज़िल तक पहुँचने के लिये दहकते पलाश पार करने होते हैं
क्योंकि
बन्दगी के भी अपने आयाम हुआ करते हैं

सोमवार, 18 मार्च 2013

आखिर मैं चाहती क्या हूँ

कभी कभी फ़ुर्सत के क्षणों में
एक सोच काबिज़ हो जाती है
आखिर मैं चाहती क्या हूँ
खुद से या औरों से
तो कोई जवाब ही नहीं आता
क्या वक्त सारी चाहतों को लील गया है
या चाहत की फ़सलों पर कोई तेज़ाबी पाला पड गया है
जो खुद की चाहतों से भी महरूम हो गयी हूँ
जो खुद से ही आज अन्जान हो गयी हूँ
कोई फ़ेहरिस्त अब बनती ही नहीं
मगर ये दुनिया तो जैसे
चाहतों के दम पर ही चला करती है
और मौत को भी दरवाज़े के बाहर खडा रखती है
बाद में आना ………अभी टाइम नहीं है
बहुत काम हैं
बहुत सी अधूरी ख्वाहिशें हैं जिन्हें पूरा करना है
और एक तरफ़ मैं हूँ
जिसमें कोई ख्वाहिश बची ही नहीं
फिर भी मौत है कि मेरा दर खटखटाती ही नहीं

सुना है ……ख्वाहिशों, चाहतों का अंत ही तो ज़िन्दा मौत है

तो क्या ज़िन्दा हूँ मैं या मौत हो चुकी है मेरी?

बुधवार, 13 मार्च 2013

आज की मिट्टियों में ऐसे कँवल नहीं खिला करते



उसने कहा

खुली किताब खुले पन्ने
हर्फ़ फिर भी पढ ना पाया

चल ज़ालिम पढने का शऊर भी ना सीख पाया तू……फिर मोहब्बत क्या खाक करेगा

सुन ज़ालिम चिल्लाया
मोहब्बत का हुनर किताबों में नहीं मिला करता

वो बोली

अरे शैदाई यहाँ कौन सी किताब पढनी है
एक लफ़्ज़ है प्रेम जिसकी इबादत करनी है

और पढा दिया मोहब्बत का पहला पाठ

ढाई आखर की तो कहानी है

मगर उससे पहले जरूरी है
रेखाओं को रेखांकित करना ,
किसी के दर्द को महसूसना ,
किसी के अनकहे जज़्बातों को
हर्फ़ -दर- हर्फ़ पढना ………
यूँ ही मोहब्बत नहीं की जा सकती
मानो माला के मनके फ़ेरे हों
और ह्रदय में बीजारोपण भी ना हुआ हो ………
मोहब्बत करने के लिये
आत्मसात करना होता है बेजुबानों की जुबान को,
दर्द के मद्धम अहसास को,
इश्क की टेढी चाल को ,
पिंजरे में बंद मैना की मुस्कान को,
मुस्कुराहट में भीगी दर्द की लकीर को,
उम्र के ताबूत में गढी आखिरी कील को
जो निकालो तो लहू ना निकले और लगी रहे तो दर्द ना उभरे ………
मोहब्बत के औसारों पर फ़रिश्ते नहीं उतरा करते
वहाँ तो सिर्फ़ दरवेश ही सज़दा किया करते हैं
क्या है ऐसा मादा तुझमें मोहब्बत का जानाँ
जोगी बन अलख जगाने का और हाथ में कुछ भी ना आने का
गर हो तो तभी रखना मोहब्बत की दहलीज़ पर पाँव
क्योंकि
यहाँ हाथ में राख भी नहीं आती
फिर भी मोहब्बत है मुकाम पाती
उम्र की दहलीजों से परे , स्पर्श की अनुभूति से परे, दैहिक दाहकता से परे
सिर्फ़ रूहों की जुगलबंदी ही जहाँ जुम्बिश पाती
बस वहीं तो मोहब्बत है आकार पाती…………कभी खुश्बू सा तो कभी हवा सा तो कभी मुस्कान सा
निराकारता के भाव में जब मोहब्बत उतर जाती
फिर ना किसी दीदार की हसरत रह जाती
फिर ना किसी खुदा की बन्दगी की जाती
बस सिर्फ़ सज़दे में रूह के रूह पिघल जाती
और कोई खुशगवार छनछनाती प्रेम धुन हवाओं में बिखर जाती
बाँसुरी की धुन में किसी राधा को गुनगुनाती सी…………
और हो जाता निराकार में प्रेम का साकार दर्शन
गर कर सको ऐसा जानाँ
तभी जाना किसी पीर फ़कीर की दरगाह पर प्रेम का अलख जगाने  ………


जो सुना तो शैदाई ना शैदाई रहा वो तो खुद ही फ़कीर बन गया


आज की मिट्टियों में ऐसे कँवल नहीं खिला करते जो देवता को अर्पित हो सकें


शनिवार, 9 मार्च 2013

और मुकम्मल हो गयी ज़िन्दगी ………:)……500 वीं पोस्ट

अपनी अपनी हदों में चिने हमारे वजूद
जब भी दखल करते हैं
हदों की खामोशियों में
एक जंगल चिंघाड उठता है
दरख्त सहम जाते हैं
पंछी उड जाते हैं पंख फ़डफ़डाते
घोंसलों को छोडना कितना दुरूह होता है
मगर चीखें कब जीने की मोहताज हुयी हैं
शब्दों के पपीहे कुहुकना नहीं जानते
शब्दों का अंधड हदों को नागवार गुजरता है
तो तूफ़ान लाज़िमी है
फिर सीमायें नेस्तनाबूद हों
या अस्तित्व को बचाने का संकट
हदों के दरवाज़ों पर चोट के निशाँ नहीं दिखते
गहरी खामोशियों की सिलवटों पर
केंचुये रेंग रहे होते हैं अपनी अपनी सोच के
और करा जाते हैं अपनी अपनी उपस्थिति दर्ज
अपने अपने दंभ की नालियों में सडकर
क्षणिक नागवारियाँ , क्षणिक कारगुज़ारियाँ
काफ़ी होती हैं जंगल की आग को हवा देने के लिये
और तबाहियों की चटाइयों पर काले काले निशान
जलते शीशमहल की आखिरी दीवार का
कोई आखिरी सिरा खोज रहा होता है
मगर जुनूनी ब्लोटिंग पेपर ने नमी की स्याहियों को सोख लिया होता है
फिर निर्जीव हदों की तासीर कैसे ना अपनी आखिरी साँस को मोहताज़ हो???

सितारों से आगे कोई आस्माँ है ही नहीं

गर होगा तो सुलगता हुआ
"हम" की सुलगती ज़द पर ……तुम और मैं ………जहाँ……"हम" की तो कोई हद है ही नहीं

अपने - अपने किनारे ………अपनी - अपनी हद और तन्हा सफ़र

और मुकम्मल हो गयी ज़िन्दगी ……………:)


चिन्हित होने के लिये काफ़ी है दरख्त पर काले निशान लगना ………
यूँ भी खामोशियों के जंगलों की आग किसने देखी है?

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

ये लालीपौप तो सिर्फ़ एक दिन के लिये होती है

आओ शोर मचायें
जागो जागो
महिला दिवस आया
महिला उत्थान का
हमने भी परचम लहराया
ऐसे खूब आह्वान करें
कहीं मैराथन करें
तो कहीं पुरस्कृत
हर अखबार के पन्ने को
हर टेलीविज़न की डाक्यूमैंट्री को
हर दफ़्तर , बसों , आटो , मैट्रो में
इनके नाम का नारा बुलन्द करें
आखिर एक दिन इनके नाम किया है
तो क्यों ना एक दिन नारा बुलन्द कर
खुद को उस जमात में शामिल करें
हाँ , हम भी हैं खैरख्वाह ……उन तथाकथितों के
हम भी हैं शामिल इस दौड में
फिर चाहे दिन बीतते भूल जायें
और अगले दिन से फिर वो ही राह अपनायें
कही वो घूरी जाये
तो कहीं मारी जाये
कहीं तेज़ाब से जलायी जाये
तो कहीं बलात्कार होते रहें
और हमारे ज़मीर सोते रहें
फिर चाहे कानून के पेंचों से
नाबालिग कहला बलात्कारी बच जाये
मगर कानून में संशोधन के नाम पर
नारी की अस्मिता को ही ठगा जाये
हम देखकर भी अनदेखा करते रहें
हमारी संवेदनायें शून्य होती रहें
और फिर सब सो जायें गहन निद्रा में
चाहे देश हो या सरकार या उसके नुमाइन्दे
या फिर आम जनता ………
जिसे सिर्फ़ अपने सरोकारों से मतलब होता है
उसके लिये ही जगती है
फिर उम्र भर के लिये सोती है
क्योंकि सभी जानते हैं
महिला अधिकारों के प्रति सजगता
महिला सशक्तिकरण जैसे नारे बुलन्द करना
ये लालीपौप तो सिर्फ़ एक दिन के लिये होती है

दो बूँद बरखा की तपती रेत की प्यास बुझाने के लिये काफ़ी नहीं होती

मंगलवार, 5 मार्च 2013

जलती आग के हिंडोलों पर पींगें भरने का अपना ही शऊर होता है


उफ़  ! ना ना ना
मत कोशिश करना
निकालने या गिनने की
ये तो हसरतें हैं
जो उगी हैं वक्त की सांसों पर
खराश बनकर
क्या फ़र्क पडता है
चेहरा सुन्न हो या
गुलाब सा खिला
हमने तो मोहब्बत कर ली है
जलते आतिशदानों से
आइनों की जरूरत क्या अब
जलती आग के हिंडोलों पर पींगें भरने का अपना ही शऊर होता है

शनिवार, 2 मार्च 2013

देख धुआँ धुआँ अक्स मेरा




देख धुआँ धुआँ अक्स मेरा

आज आईने ने दिखा दिया
जो मुझमे से निकल गया
वो सब सच दिखा दिया
अब बचा है क्या मुझमे
गर तू पता लगा सके
तो मुझे भी आ बता जाना
ना पंख रहे ना परवाज़ रही
ना धरती रही ना आकाश रहा
मेरा रौशनी मे नहाता वज़ूद
देख कैसा धुआं धुआँ हुआ
अब मै ना मै रही
एक धुयें की लकीर बन गयी
क्या फ़र्क पडा बता ज़रा
तेरी महफ़िल तो रौशन रही
ना राख हुयी ना बुझ सकी
मै खुद मे ही सिमट गयी
फिर भी देख तेरा कूंचा
ना मुझसे छोडा गया
अब करम है या सितम है ये
वक्त ने तो कर दिया
जो तू मुझमे बस गया
मुझमे मेरा ना कुछ रहा
तभी तो देख वजूद मेरा
आईना सा बन गया
चाहे धुआँ धुआँ ही क्यों ना हुआ
कभी वक्त मिले तो आ जाना
एक नज़र घुमा जाना
जो तू नज़र ना आये तो
मेरी पहचान बता जाना

धुयें की धुंध से बाहर आने की  रवायतें जानी हैं कभी …………