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शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

क्यूँ ऐसा होता है

भावुक मन की भावुक बातें भावुक दिल ही समझता है
हर भावुक मन में इक भावुक दिल धड़कता है



नारी ह्रदय की पीड़ा को
जब नारी ह्रदय भी
नही समझता है
हाय! ये कैसे दंश है
जो हर पल दिल में सिसकता है
पुरूष ह्रदय को कठोर कहने वालों
क्या तुम्हारा ह्रदय तड़पता है
नारी क्यूँ नारी की तड़प को
समझ नही पाती है
क्या वो तपिश उसने नही सही थी
हर पल हर नारी जब
उन्ही हालत से गुजरी हो
फिर कैसे नारी होकर
नारी का दर्द नही समझती है
ये कैसे नारी रूप है
ये कैसे नारी ह्रदय है
जो नारी के लिए न रोता है
नारी मन होकर भी
नारी का दुश्मन बन
नारी को ही तडपता है
फिर कहो कैसे
नारी ह्रदय को
कोमल ह्रदय मानें
ये तो पुरूष की
कठोरता से भी
कठोर बन जाता है
जब पुरूष नारी के
उत्थान में साथ हो सकता है
उसके दर्द को समझ सकता है
फिर क्यूँ
नारी ही नारी की नही बन पाती है

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

अब तो दर्द को भी दर्द होता है

आज हम हँसते हैं और दर्द रोता है
अब तो दर्द को भी दर्द होता है
जो दर्द कभी किसी का न हुआ
वो आज दर्द के सागर में डूबा है
अब हमें दर्द क्या डराएगा
जो ख़ुद हर पल छटपटाता हैं
हमने जीने का ढंग सीख लिया
ज़हर को भी अमृत समझ पी लिया
अब तो दर्द सहते सहते हम
पत्थर के सनम हो गए
अब हमारे दर्द पर हम नही
हमारा दर्द रोता है
अब तो दर्द को भी दर्द होता है

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

उस मोड़ पर

तुम्हें तलाश है आज भी
जिस मोड़ पर ज़िन्दगी के
हम तुम अलग हुए थे
बार बार तुम्हारी निगाह
उसी मोड़ तक जाकर
क्यूँ ठहर जाती है
उसी मोड़ पर ज़िन्दगी के
तुम क्यूँ ठहर गए हो
उस मोड़ के बाद भी
ज़िन्दगी आगे बढती गई
मैं रुकी नही,चलती रही
उस मोड़ पर ज़िन्दगी के
तुम्हें कुछ न मिलेगा
यादों के काफिले को
वहीँ छोड़ देना होगा
क्यूँ उदास निगाहें तुम्हारी
उसी मोड़ पर ठहर गयीं
क्यूँ नही तुम उस मोड़ के
आगे मुड पाते हो
क्यूँ अपने दर्द को उसी मोड़ पर
छोड़ नही पाते हो
ज़िन्दगी तुम्हें उस मोड़ के
आगे भी नज़र आएगी
फिर किसी मोड़ पर शायद
हमारी मुलाक़ात हो जायेगी
तुम एक बार उस मोड़ के आगे
मुड कर तो देखो
ज़िन्दगी को फिर एक बार
जीकर तो देखो
देखना------
ज़िन्दगी फिर से हसीं हो जायेगी
फिर उस मोड़ तक
तुम्हारी निगाह नही जायेगी

बुधवार, 21 जनवरी 2009

मैं इक खुली किताब हूँ
जिसको तूने कभी पढ़ा ही नही
इस किताब के किसी भी पन्ने पर
प्यार का रंग चढा ही नही
हर पन्ने पर इक कहानी थी
कोई आंसू से भीगी
कोई खून से लिखी
कोई दर्द से लिपटी
कोई तन्हाई में डूबी
हर कहानी में
काली स्याही से लिखा
हर शब्द जैसे
तुम्हें पुकार रहा हो
मगर तुमने तो उधर
देखा ही नही
हर शब्द में छुपे
दर्द को जाना ही नही
जब तूने मुझे जाना ही नही
तो कैसे प्यार का रंग चढ़ता
किताब तो आज भी खुली की खुली है
मगर तेरे पास ही वो नज़र नही है
आज भी इस किताब के पन्ने
तेरे पढने के इंतज़ार में पड़े हैं
देखो इतनी देर न करना
कि वक्त की दीमक इन्हें खा जाए
हर पन्ने पर तेरी मेरी दास्ताँ है
बस तू कोशिश तो कर इक बार पढने कि

सोमवार, 19 जनवरी 2009

मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए

मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए
प्यार नही दे सकते , मत दो
अपना नही बना सकते , मत बनाओ
इज़हार नही कर सकते, मत करो
इकरार नही कर सकते, मत करो
ख्यालों में जगह नही दे सकते, मत दो
याद नही कर सकते, मत करो
मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए
अगर कर सकते हो तो इतना करो
जब भी कहीं,कभी भी
मैं तुम्हें दिखूं तो
इक नज़र भर कर देख लेना
तुम्हारी उसी नज़र पर
हम ज़िन्दगी गुजार देंगे
मुझे तुम्हारी ज़िन्दगी में जगह नही चाहिए
मुझे तुम्हारी नज़र में भी जगह नही चाहिए
मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए
अगर कर सको तो इतना करना
रुखसती पर मेरी इस जहान से
मेरे जनाजे को नज़र भर देख लेना
तुम्हारे इसी नज़र भर देखने पर
मेरी मौत का जशन हसीं हो जाएगा
मेरी रूह को सुकून मिल जाएगा
मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए

प्रेम

प्रेम रस की जब अनुभूति होती है
रोम रोम वाद्य यन्त्र सा झंकृत होता है
प्रेम रस में आप्लावित तन मन
प्रेम के दरिया में आकंठ डूबे होते हैं
जब प्रेमी ह्रदय उडान भरता है
तब प्रेम रस छलक छलक जाता है
प्रेमानंद में डूबे प्रेमी की आंखों में
सिर्फ़ प्यारे की छवि नज़र आती है
जब प्रेम की परिभाषा को बदलते प्रेमी
प्रेम की पराकाष्ठा को चूम लेते हैं
तब अनंत प्रेम के प्रबल प्रवाह में
द्वि का परदा हट जाता है
अब तो प्रेम के सागर में हिलोरें लेते प्रेमी
प्रेम पथ पर,प्रेम की लहरों
की ताल पर नृत्य करते हुए
अपने अनंत में समां जाते हैं

शनिवार, 17 जनवरी 2009

और वो हार गया

वो कहीं नही हारा
हर पल जीतता रहा
आगे बढ़ता ही रहा
कोई राह,कोई डगर
उसका रास्ता न रोक सकी
हर कठिनाई से जूझता हुआ
ज़िन्दगी की हर कठिन
परीक्षा देता हुआ
हर पल सिर्फ़ आगे ही
आगे बढ़ता गया
अपने अनंत लक्ष्य की ओर
चलते चलते
सिर्फ़ एक ठोकर ने उसे
यथार्थ के धरातल par
ला खड़ा किया
जो कहीं नही हारा
जो कहीं नही झुका
वो आज लहूलुहान
हो गया
आज उसे जिसने मारा
वो उसके अपने थे
जिनके लिए वो
ता-उम्र जीता रहा
हर पल लड़ता रहा
आज उन्ही रिश्तों ने
उसे कितना बेबस कर दिया
जिन रिश्तों पर उसका
भरोसा टिका था
जिन रिश्तों के बिना
उसका अस्तित्व ही न था
आज उन्ही रिश्तों ने
उसे बेसहारा कर दिया
आज हर पल जितने वाला
वो इंसान
रिश्तों से हार गया
रिश्तों ने उसे तोड़
तोड़ दिया और
वो बिखर गया

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

यूँ भी रिश्तों की दुल्हनें घूँघट किया करती हैं ……

पता नही कैसे उसे मेरा
थोड़ा सा बैचैन होना प्यार लगा
क्या प्यार बचैनी का दूसरा नाम है
हम तो अपने ही ख्यालों में गुम थे
मगर कैसे उसको लगा ये प्यार है
हर आहट पर चोंक जाना तो
तुम्हें पता है मेरी पुरानी आदत है
दिन में भी ख्वाब देखना
मेरी पुरानी आदत है
हर किसी के गम को
अपना बना लेना
मेरी पुरानी आदत है
फिर उस गम को
ख़ुद महसूस करना
मेरी पुरानी आदत है
फिर कैसे तुम्हें लगा
मुझको तुमसे प्यार है
मैंने तो कभी कहा नही
तुम्हारे लिए बैचैन नही
फिर कैसे तुम्हें लगा
जैसे हर ख्वाब साकार नही होता
वैसे हर बैचैनी प्यार नही होती
मुझे अपने ख्वाबों की ताबीर न बना
मैं तो इक साया हूँ
मुझे हमसाया न बना
मैं तेरा प्यार नही ख्याल हूँ
तुम मेरा प्यार नही
सिर्फ़ अहसास है
इस हकीकत को मान ले
और इस ख्वाब को
प्यार का नाम न दे
और रिश्ते को पाक रहने दे 

यूँ भी रिश्तों की दुल्हनें घूँघट किया करती हैं ……

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

इश्क की गलियां बड़ी तंग होती हैं

मेरे आंसू तेरी आँखोंमें क्यूँ नज़र आते हैं
मेरा दर्द तेरे चेहरे पे क्यूँ उतर आता है
मत कर प्यार मुझे इतना
इश्क की गलियां बड़ी तंग होती हैं
यहाँ जज्बातों की क़द्र नही होती
सिर्फ़ जज्बातों की ज़ंग होती है
इन गलियों में मुहब्बत खामोश होती है
दो के लिए जगह नही होती
प्यार के इम्तिहान इतने न दे
की प्यार को भी शक होने लगे
सच, इश्क की गलियां बड़ी तंग होती हैं

अब तो आ जाओ

मेरे दर्द को चेहरे से पढने वाले
मेरे प्यार को आंखों से महसूस करने वाले
मेरे ख्वाबों को अपने ख्वाब बनाने वाले
मेरे हर अहसास को ख़ुद जीने वाले
मेरी धड़कन को अपनी धड़कन बनाने वाले
मेरे हर आंसू को ख़ुद पि जाने वाले
मेरे हर ज़ख्म पर मरहम बन लग जाने वाले
कहाँ हो तुम, कब मिलोगे
जन्मों बीत गए
अब तो आ जाओ
अपनी इक झलक
दिखला जाओ
मुझे मुझसे ज्यादा जानने वाले
मुझे मुझसे मिलाने वाले
अब तो आ जाओ
अब तो आ जाओ

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

प्यार होता है क्या

मुझे नही पता
प्यार होता है क्या
कभी किसी की
आंखों में ख्वाब
बन के पले ही नही
तो क्या जानूं
प्यार होता है क्या
कभी कोई दीदार के लिए
तडपा ही नही
तो क्या जानूं
प्यार होता है क्या
कभी किसी ने दीवानावार
ख़त लिखे ही नही
तो कैसे जानूं
प्यार होता है क्या
कभी किसी के दिल में
धड़कन बनकर
धडके ही नही
तो कैसे जानूं
प्यार होता है क्या
कभी किसी के
अहसास ने छुआ
ही नही
तो कैसे जानूं
प्यार होता है क्या
कभी किसी ने
मन के आँगन में
प्यार के दीप
जलाये ही नही
तो कैसे जानूं
प्यार होता है क्या
कभी किसी ने
अपना खुदा
बनाया ही नही
तो कैसे जानूं
प्यार होता है क्या

व्यथित हृदय

व्यथित हृदय से क्या निकलेगा
लावा बरसों से उबल रहा हो जहाँ
कभी तो फूटेगा , कभी तो बहेगा
इस आग के दरिया में
बर्बादी के सिवा क्या मिलेगा
पता नही अपने साथ
किस किस को बहा ले जाएगा
अब दर्द बहुत बढ़ने लगा
कब ये हृदय फटेगा
कब इसमें से दर्द की
किरच किरच निकलेगी
कब ये jwalamukhi
हर बाँध तोडेगा
और इस व्यथित हृदय को
कुछ पलों का सुकून मिलेगा

सोमवार, 12 जनवरी 2009

मैं तुम्हारी दुनिया की
कभी थी ही नही
पता नही कैसे
हम एक दूसरे के
धरातल पर उतर आए
ज़िन्दगी के कैनवस
पर दो विपरीत
रंग उभर आए
अब कैसे यह रंग
एक हो जायें
कैसे एक नया रंग
बन जायें
हम अपने अपने
रंगों के साथ भी तो
जी नही सकते
और अब ज़िन्दगी के
कैनवस से इन रंगों को
बदल भी नही सकते
फिर कैसे इन रंगों से
इक नया रंग बनाएं
जिससे या तो तुम बदल जाओ
या मैं बदल जाऊँ
क्यूंकि
मैं तो कभी तुम्हारी
दुनिया की थी ही नही

भटकाव

आज न जाने कहाँ
कौन सी गलियों में
किन यादों में
भटक रही हूँ मैं
पता नही कौन कौन से
मोड़ पर मुडती गई ज़िन्दगी
हर मोड़ पर एक याद मिली
अकेली,तनहा,खामोश
कोई साथी नही जिसका
उससे मिलना ,बातें करना
दिल को सुकून दे गया
आज न जाने क्यूँ
हर मोड़ ज़िन्दगी का
वापस बुला रहा है
यादों को फिर से
जगा रहा है
क्यूँ वो यादें
फिर से याद आ रही हैं
दिल को tadpa रही हैं
मुझे कुछ कह रही हैं
क्या .....यही समझना है
इसी भटकाव में
मैं भटकती जा रही हूँ
यादों को क्यूँ
इतना याद आ रही हूँ
किस तलाश में
वापस मुड रही हूँ
कौन से पन्ने को
खोलने की कोशिश में
हर पन्ना पलट रही हूँ
क्यूँ इन यादों के सफर पर
बढती जा रही हूँ
ये कौन से भटकाव में
भटकती जा रही हूँ

शनिवार, 10 जनवरी 2009

मुलाकात

कुछ कहने सुनने से दूर
शांत स्वच्छ निर्मल
झील के किनारे
हाथों में हाथ डाले
चांदनी रात में हम तुम
पत्थरों के ढेर पर बैठे हों
सिर्फ़ आँखें बोलती हों
दिल सुनता हो
खामोशी ही खामोशी हो
कोई न आस पास हो
कुछ न कहते हुए भी
हाल-ऐ-दिल बयां हो जाए
बस एक शाम हमारी
खामोशी के नाम हो जाए
इस मौन में
हमारे शब्द
अव्यक्त रहे
मगर फिर भी
आँखों की आँखों से
बात हो जाए
हमारे अनकहे शब्द
हमारे दिल सुनें
दिल ही दिल में
बिना कुछ कहे
बात हो जाए
कुछ इस तरह हमारी
जन्मों की प्यासी
रूह को पनाह मिल जाए
सिर्फ़ एक रात
धडकनों के नाम हो जाए
धडकनों के संगीत पर
इक रात बसर हो जाए
कुछ इस तरह
अगले कुछ जन्मों के लिए
हमारी रूहों को सुकून मिल जाए

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

उसकी अंखियों से बरसती चाहत को
मैंने हर पल महसूस किया
फिर भी शब्दों के अभाव में
उसने न कभी इज़हार किया
मैं इंतज़ार करती रही उस पल का
जब चाहत को शब्द मिलेंगे
उस पल के इंतज़ार में
एक ज़माना बीत गया
अब उम्र के इस मोड़ पर
क्या तुम्हारी आंखों में
उसी चाहत की बानगी दिखेगी
अब किसका इंतज़ार है तुम्हें
इज़हार के पल कहीं बीत न जाएं
क्या अब तक शब्द जुटा नही पाये
या खामोश मोहब्बत का इज़हार
मेरी कब्र पर करना चाहते हो
देखो मुझे पता है तुम्हारी चाहत का
एक बार तो इज़हार करो
कहीं दम निकल न जाए
इसी इंतज़ार में

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

उलझन

ये कैसी उलझन है
जिसमें उलझती जाती हूँ
जितना सुलझाने की
कोशिश करुँ
फिर भी उलझती जाती हूँ
कभी ख़ुद को चाहने लगती हूँ
कभी किसी की चाहत लगती हूँ
पर फिर भी किसी की यादों के
दायरों में सिमटती जाती हूँ
कभी उसकी यादों में होती हूँ
कभी उसको याद करती हूँ
ये यादों के भंवर में
क्यूँ रोज उलझती जाती हूँ
कभी दिल की वादी में मिलती हूँ
कभी दिल के कँवल खिलाती हूँ
फिर इक-इक फूल को
किताबों में सहेजे जाती हूँ
कभी उससे बातें करती हूँ
कभी उसकी बातें सुनती हूँ
इस सुनने सुनाने की महफिल में
क्यूँ उसके दीदार को तरसती हूँ
हाय!ये कैसी उलझन है
जिसमें उलझती जाती हूँ

बुधवार, 7 जनवरी 2009

मैंने उसका दिल तोड़ दिया

मैंने उसका दिल तोडा
जाने क्यूँ वो
अपना सा लगा
मगर फिर भी
उसकी कुछ बातों ने
मेरे अंतर्मन को
ठेस पहुंचाई
और न चाहते हुए भी
मैंने उसका दिल तोड़ दिया
जो नही कहना था
वो भी उसको कह दिया
ग़लत शायद वो भी न था
मगर शायद
मेरी ही शह ने उसे
वो कहने को मजबूर किया
जो मुझे सुनना पसंद नही
शायद वो मेरे अपनेपन को
अपना,अपनापन समझ बैठा
फिर उसी रौ में
न जाने क्या क्या कह गया
ख़ुद को कुछ दायरों में
बांधकर खुश रहने वाली मैं
मुझको इतना अपनापन
शायद रास न आया
और इसलिए शायद
मैंने उसका दिल तोड़ दिया
अभी हम शायद
इक दूजे को समझे नही
और इसी जल्दबाजी में
जाने क्या क्या कह गए
कुछ अनकही बातों के
अपने ही अर्थ निकाल लिए
फिर उन्हें यादों में
अपनी सजाने लगे
मगर मिलने पर
फिर एक दूसरे से
अपनी अपनी कह गए
न जानते हुए भी
कि दूसरा क्या चाहता है
शायद इसलिए
मैंने उसका दिल तोड़ दिया

जाने क्यूँ

जब कोई मुझे अपना कहता है
जाने क्यूँ भरम सा लगता है

हर प्यार भरा लफ्ज़ किसी का
जाने क्यूँ शूल सा चुभता है

जब रात की खामोशी बढती है
जाने क्यूँ अपनी सी लगती है

हर दिन यादों से भरा
जाने क्यूँ तन्हा सा लगता है

साया

मेरे साये ने कल मुझसे कहा
किसको खोजता फिरता है तू
इधर उधर
मैं तो तेरे साथ हूँ
यहाँ कोई नही है तेरा
बाहर अपना कोई नही
जो तुझे समझ सके
फिर क्यूँ ढूंढता फिरता है
तू इन परायों में अपनों को
जब मैं तो तेरे साथ हूँ
यहाँ जीवन दो दिन का मेला है
कोई न किसी का साथी है
इस परायी बस्ती में
सिर्फ़ अपना ही मिलता नही
जो है तेरा अपना
उसको तू अपनाता नही
जो है तेरे साथ हर पल
उसको तू पहचानता नही
क्या कभी कोई अपने
साये से जुदा हो पाया है
फिर क्यूँ तू
अपने साये को पुकारता नही
यहाँ सब छोड़ जायेंगे
कोई न साथ निभाएगा
एक तेरा साया ही
सिर्फ़ तेरे साथ जाएगा
फिर क्यूँ किसी को खोजता है
मैं तो तेरे साथ हूँ

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

मकबरा

दिल कि कब्रगाह में न जाने
कितनी कब्र दफ़न हैं
हर राह पर मौत से मिले हम
हर मोड़ पर मौत का
नया रूप देखा हमने
हर बार किसी न किसी
ख्वाब को दफ़न किया
हर कब्र पर ख़ुद ही
फूल चढाये हमने
हर कब्र पर इक
ज़ख्म बना हुआ है
अब तो दिल इक
मकबरा बन गया है
जहाँ इबादत होती है
उन यादों कि
जो वहां दफ़न कि हमने