ये कौन से शहर का है आदमी
जो रात भर सोता नहीं
खिलौनों और रोटी के लिए
अब यहाँ का बच्चा रोता नहीं
गुदड़ी में ही बड़ा हो जाता है जो
बचपन उस पर कभी आता नहीं
रात भर दौड़ती हैं सडकें जहाँ
सुना है शहरों में अब दिन होता नहीं
रौशनी से चकाचौंध हैं रातें
अब दिन किसी को लुभाते नहीं
इंसानियत की बात कोई कर जाए
ऐसा इस जहाँ में अब होता नहीं
बिन पंखों के आकाश नापा करते हैं
पंख वालों को यहाँ कोई पूछता नहीं
चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं
कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं
वो सुबह कभी तो आएगी
इस आस में आदमी अब जीता नहीं
हालात को नसीब का खेल मान
रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं
जो रात भर सोता नहीं
खिलौनों और रोटी के लिए
अब यहाँ का बच्चा रोता नहीं
गुदड़ी में ही बड़ा हो जाता है जो
बचपन उस पर कभी आता नहीं
रात भर दौड़ती हैं सडकें जहाँ
सुना है शहरों में अब दिन होता नहीं
रौशनी से चकाचौंध हैं रातें
अब दिन किसी को लुभाते नहीं
इंसानियत की बात कोई कर जाए
ऐसा इस जहाँ में अब होता नहीं
बिन पंखों के आकाश नापा करते हैं
पंख वालों को यहाँ कोई पूछता नहीं
चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं
कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं
वो सुबह कभी तो आएगी
इस आस में आदमी अब जीता नहीं
हालात को नसीब का खेल मान
रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं
29 टिप्पणियां:
बढ़िया ग़ज़ल.. शहरी जीवन.. आधुनिकता पर करार चोट.. अदभुद..
आपकी यह रचना पढकर अज्ञेय की एक कविता याद आ गई,
पहाड़ नहीं कांपता न पेड, न तटाई
कांपती है ढाल के घर से
नीचे झील पर झरी
दिए की लौ की नन्ही परछाई
सचिदानंद हीरानंद अज्ञेय
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोsस्तु ते॥
महाअष्टमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
स्वरोदय महिमा, “मनोज” पर!
वो सुबह कभी तो आएगी
इस आस में अब जीता नहीं आदमी
हालात को नसीब का खेल मान
रंजो- गम के घूँट अब पीता नहीं आदमी
--
समाज की विकृतियों को दर्शाती और आशा की किरण जगाती इस सुन्दर रचना के लिए बधाई!
कुछ विमर्श क्यों अब होता नहीं
।
सच्चाई दिखाती सुन्दर रचना।
parivartan par drishtipaat karti hui sundar rachna!
regards,
sunder rachna
वो सुबह कभी तो आएगी
इस आस में अब जीता नहीं आदमी ............................
very touchy and realistic lines..kudos
आपकी कविताओं में कलात्मक शब्द शिल्प के कौशल का मुझे इस कविता में अभाव दिखा.लगता है आपने शब्दों को तराशने में ज़ल्दबाज़ी कर दी.शहर की जिंदगी में कवि के दिन और रात के रूमानी और इंसानी ज़ज्बात के दर्शन नहीं हो सकते क्योंकि अब इंसान के अंदर सौन्दर्यबोधक संवेदनशीलता की जगह निस्पृह अर्थसत्ता ने ले लिया है जिसे अपनी प्रकृति के बारे में न तो कोई ज्ञान है और न ही उसी जानने समझने का रुझान. आपकी कविता में आज के शहर के हर पहलू को छूने की कोशिश की गयी है. आलोचनात्मक और वैचारिक दृष्टि से ये अच्छी कविता है लेकिन कलात्मक शिल्प की दृष्टि से कमज़ोर.गुज़ारिश करूँगा कि हम कला पक्ष को भी ध्यान में रखें ताकि आपके कहे शब्द पाठक पर ज्यादा से ज्यादा प्रभाव छोड़ सके.
यी आज का आदम्जी है। बहुत बडिया रचना। बधाई।
रौशनी से चकाचौंध हैं रातें
अब दिन किसी को लुभाते नहीं
विसंगतियाँ ही विसंगतियाँ हैं.
सुन्दर रचना
गहरी सम्वेदनाएं प्रकट करती रचना!!
अब क्या करें वंदना जी ज़िन्दगी ही कुछ ऐसी हो गयी है, हमारा कोई दोष नहीं...
मेरे ब्लॉग पर इस बार ....
वर्तमान की वास्तविक का सही बखान कराती बहुत अच्छी रचना ...धन्यवाद !
यहाँ भी पधारे
हे माँ दुर्गे सकल सुखदाता
सच ही कहा...
बहुत उम्दा रचना...
सुन्दर भावाभिव्यक्ति !
चाँद की चाँदनी से भी जलने लगे
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नही
बहुत खूब
सचमुच आप ने फ़्ररेबी और स्वार्थी दुनियां को खूबसूरती से बेनकाब किया है !
वाह...वाह..वंदना जी...सच्ची बातें कहीं हैं आपने अपनी इस विलक्षण रचना में...बेहतरीन...
नीरज
bahut badhiya ..
चाँद की चाँदनी से भी जलने लगें
ऐसे हुस्न अब यहाँ होते नहीं
कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं
bahut sundar likha hai..sachchaayi ko kahati huyi rachna
सुन्दर रचना।
सुन्दर भावाव्यक्ति व विषय चयन---जैसा राजीव ने कहा, शिल्प की कमी है---
१, नहीं , रदीफ़ है परन्तु अन्तिम दो शेरों में आदमी करदिया है--इसे आदमी नहीं करना चाहिये।
२. काफ़िया-शुरू में ’आ’ की मात्रा है--सोता, रोता --बाद में ’ए’ होगया लुभाते, जलने--जो अन्त तक एक सा ही होना चाहिये।
३. मात्रा दोष( बहर ) भी है।
४. भाव दोष यह है कि-खिलोनों व रोटी को बच्चे अब भी रो रहे हैं.
--रंजो गम तो आज सभी पीरहे हैं, आस में ही तो जी रहे हैं।
@राजीव जी,
@श्याम गुप्त जी,
आप दोनो की तहे दिल से शुक्रगु्ज़ार हूं कि आपने गलतियों की तरफ़ ध्यान दिलाया…………अब आपके आगे अपने दोष भी रख दूँ कि मुझे सच मे बहर या मात्रा मे लिखना नही आता …………मुझे नही पता गज़ल कैसे लिखी जाती है बस मै तो अपने भावों को व्यक्त कर देती हूँ जिस भी रूप मे दिल मे आते हैं…………एक बार फिर आप दोनो की आभारी हूँ।
accha laga aapko pad kar...
mere blog par bhi aapka swagat hai :)
http://vinvari.blogspot.com/
thanks,
Vins
कागज़ के फूलों से खुश होने वालों को
असली फूलों के रंग अब भाते नहीं
क्या बात है ....!!
बहुत ही संजीदा अभिव्यक्ति
अब आदमी आदमी कहाँ रह गया है ..... बहुत प्रश्न खड़े करेती है रचना ...
.
I am truly loving this creation !
Beautifully written .
.
ITNA BADA SACH KI DIL DAHAL GAYA.
REALLY A POEM WHICH IS REAL DITY OF A POET/POETESS.
THANKS.
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