पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

बुधवार, 26 जून 2013

ज़िन्दगी यूं ही कटती रही

तुम कहते रहे मै गुनती रही
ज़िन्दगी यूं ही कटती रही

कभी सलीबों पर लटकती रही
कभी ताजमहल बनाती रही
ज़िन्दगी यूं ही कटती रही

कभी रूह पर ज़ख्म देती रही
कभी मोहब्बत के फ़ूल खिलाती रही
ज़िन्दगी यूं ही कटती रही

कभी तुझमे मुझे ढूँढती रही
कभी इक दूजे मे गुम होती रही
ज़िन्दगी यूँ ही कटती रही

कभी सब्जबाग दिखाती रही
कभी हकीकत डराती रही
ज़िन्दगी यूँ ही कटती रही

कभी राह रौशन करती रही
कभी शम्मा बन जलती रही
ज़िन्दगी यूँ ही कटती रही

बुधवार, 19 जून 2013

एक चेहरा : कितने रूप और क्यों ?

विभीषिका बना रही हूँ 
अपने चेहरे तुम्हें दिखा रही हूँ 
अब भी संभल जाना 
समय रहते चेत जाना
वो कुसुम कली सी खिलखिला रही थी 
अपनी अठखेलियों से लुभा रही थी 
नन्ही शिशु सी मुस्कुरा रही है 
हर जीव में उमंग उत्साह जगा रही थी 
ना जाने कैसे काल की  कुदृष्टि पड़ी 
जहाँ जीवन लहलहा रहा था 
वहाँ दोहन का राक्षस बाँछें खिलाये 
दबे पाँव चला आ रहा था 
किसी को ना पता चला 
मानव के स्वार्थ रुपी राक्षस ने 
उस का सारा सौंदर्य लील लिया 
ना जाने कौन किस पर अट्टहास कर रहा था 
मगर उसका सौंदर्य तो पैशाचिक भेंट चढ़ चुका था 
बस दोषारोपण का सिलसिला चल निकला 
मगर खुद पर ना किसी ने दृष्टिपात किया 
हाय ! ये मैंने क्या किया 
इतने सुन्दर सौंदर्य को विनष्ट किया 
अब हाथ मल पछताने से कुछ ना होगा 
जिसने जो खोया उसका न कही भरण होगा 
अब ना वो प्राकृतिक सौंदर्य होगा 
अब ना वैसा रूप लावण्य होगा 
सोच सोच प्रकृति सहमी जाती है 
और मानव कृत विनाशलीला पर 
हैरान हुयी जाती है ...........



जहाँ ना शिव का डमरू बजा ना मृदंग 
फिर भी 
हे ईश्वर ! ये कैसा तांडव हुआ ...........
क्या अब भी कोई समझ पायेगा 
क्या अब भी ये मानव जान पायेगा 
या फिर हमेशा की तरह पल्ला झाड 
फिर से दोहन में जुट जाएगा ...........
या फिर प्रकृति को हर बार 
अपनी आबरू बचाने के लिए 
रौद्र रूप धारण करना होगा 
ये तो समय की परतों में छुपा है 
मगर 
आज का सच तो शर्मनाक हुआ है 
जहाँ प्रकृति कुपित हुयी है 
अपनी लज्जा ढांपने को मजबूर हुयी है 



वो तो वक्त वक्त पर 
धीमी हुंकारें भरती रही 
कोशिश अपनी करती रही 
शायद अब समझ जाएगा 
मेरी करवट से ही जाग जाएगा 
मगर न इस पर असर हुआ 
इसके दुष्कृत्य ना बंद हुए 
थक हार कर मुझे ही कदम बढ़ाना पड़ा 
ना केवल अपने सौंदर्य को बचाने के लिए 
बल्कि इसी सम्पूर्ण मानव जात को बचाने के लिए 
कुछ अपनों की बलि लेनी पड़ी 
ताकि आने वाली पीढ़ी की सांसें ना फूले 
एक स्वस्थ वायुमंडल में वो जन्म ले 
क्योंकि ...........सुना है 
कैंसरग्रस्त हिस्से को काट फेंकने पर ही जीवनदान मिला करता है 
और 
तुम्हारी दोहन की आदत 
वो ही कैंसरग्रस्त हिस्सा है 
जिसके लिए ये कदम उठाना पड़ा 
अपना रौद्र रूप दिखाना पड़ा 
अब भी संभल जाना 
मत मुझे इलज़ाम देना 
वरना
कल फिर किसी भयानक त्रासदी के लिए तैयार रहना 
तो क्या तैयार हो तुम .............ओ उम्दा दिमाग वाले मानव !

चेतावनी :(मत कर दोहन सब लील जाऊंगी ,अपनी पर आई तो सब बहा ले जाऊंगी )

मंगलवार, 18 जून 2013

अब इसे क्या समझूँ ?

मेरी डायरी का 
हर वो पन्ना 
अब तक लाल है 
जिस पर तुम्हारा नाम लिखा है 
जिस पर तुम्हारे नाम संदेस लिखा है 
जिस पर तुमसे कुछ लम्हा बतियायी हूँ 

(जानते हो न डायरी ये कौन सी है .......दिल की डायरियों पर तारीखें अंकित नहीं हुआ करतीं )

जबकि सुना है 
वक्त के साथ कितना भी सहेजो 
पन्ने पीले पड़ जाते हैं 
अब इसे क्या समझूँ ?
तुम्हारी प्रीत या मेरी शिद्दत .......जो आज भी जिंदा है 

(एक मुद्दत हुयी ज़िन्दगी से तो खफा हुए .......)

रविवार, 16 जून 2013

बस महज इतना ही योगदान है क्या पिता का?


पिता होना या पिता के लिये कुछ लिखना या कहना
इतिहास के पन्नों पर कभी अंकित ही नहीं हुआ
किसी ने पिता को उतना महत्त्व ही नहीं दिया
तो कैसे मिलती सामग्री इतिहास के पन्नों में
या कैसे होता अवलोकन किन्हीं धार्मिक ग्रंथों में
एक दो जगह अवपाद को छोडकर 


शिशु का उदभव यूँ ही नहीं होता
दो बूँद वीर्य की पिता के 
दे जाती हैं एक सरंचना को जन्म
बस महज इतना ही योगदान है क्या पिता का?
क्या हमने सिर्फ़ इतना ही जाना है  पिता का होना
तो फिर हमने जाना ही नहीं 
हमने किया ही नहीं दर्शन पितृ महत्त्व का

पिता होने का तात्पर्य 
ना केवल जिम्मेदार होना होता है
बल्कि अपने अंश को 
एक बेहतर जीवन देना भी होता है
भरना होता है उसमें अदम्य साहस
चक्रवातों से लडने की हिम्मत
भरनी होती है उत्कंठा 
आसमानों पर इबारत लिखने की
निडर बनने की
योजनाबद्ध चलने की 
दूरदृष्टि देने की
अपने अनुभवों की पोटली
उसके समक्ष खोलने की
यूँ ही नहीं एक व्यक्तित्व का 
निर्माण है होता
यूँ ही नहीं घर समाज और देश
उन्नति की ओर अग्रसर होता
केवल भावनाओं के बल पर
या लाड दुलार के बल पर
सफ़ल जीवन की नींव नहीं रखी जा सकती
और जीने की इस जीजिविषा को पैदा 
सिर्फ़ एक पिता ही कर सकता है
बेशक भावुक वो भी होता है
बेशक अपने अंश के दुख दर्द से 
दुखी वो भी होता है
पर खुद की भावनाओं को काबू में रखकर
वो सबके मनोबलों को बढाता है
और धैर्य का परिचय देना सिखाता है
यही तो जीवन के पग पग पर
उसके अंश का मार्गदर्शन करता है
फिर कैसे कह सकते हैं 
पिता का योगदान माँ से कम होता है
क्योंकि
सिर्फ़ जन्म देने भर से ही 
या नौ महीने कोख में रख 
दुख सहने भर से ही
या उसके लालन पालन में 
रातों को जागकर 
या गीले सूखे मे सोना भर ही
माँ को उच्च गरिमा प्रदान करता है
और पिता को कमतर आँकता है
ये महज दो हिस्सों में बाँटना भर हुआ 
जबकि योगदान तो बच्चे के जीवन मे
पिता का भी कहीं भी माँ से ना कम हुआ
अब इस दृष्टिकोण को भी समझना होगा


और पिता को भी उसका उचित स्थान देना होगा

गुरुवार, 13 जून 2013

निष्ठुर प्रेमिका और दीवानावार प्रेमी



प्रेमी : तुम मुझे अच्छी लगती हो 
प्रेमिका : तो अपनी सीमा में रहकर चाहो 

प्रेमी : तुमसे प्यार करता हूँ 
प्रेमिका : तो अपने मन में सराहो 
उस चाहत का सरेआम 
क्यूँ बाज़ार लगाते हो ?
क्यूँ मेरी सीमाओं का अतिक्रमण करते हो ?

तुम्हारी 
पसंद तुम्हारी चाहत 
तुम्हारे वजूद का हिस्सा है 
क्यूँ उसे मेरे
वजूद पर हावी करते हो 
क्यूँ मुझसे अपने प्रेम का 
प्रतिकार चाहते हो 

प्रेमी : चाहत तो प्रतिकार चाहती ही हैं 
प्रेम का इज़हार चाहती है

प्रेमिका : मगर मैंने कब कहा 
तुमसे प्रेम करती हूँ ?

प्रेमी : जब तक इज़हार न करूंगा 
तो कैसे अपने प्रेम का 
बीज तुम्हारे ह्रदय में रोपूँगा 
जब प्रेम का अंकुर फूटेगा 
तब इज़हार स्वयं हो जाएगा 

प्रेमिका : तो जाओ ! 
धूनी रमाओ 
और करो कोशिश 
बीज रोपित करने की 
मगर इतना जान लो 
मरुभूमि में सिर्फ कैक्टस ही उगा करते हैं 

एक संवेदनहीन प्रेमिका 
एक दीवानावार प्रेमी 
एक तपता  रेगिस्तान 
एक शीतल हवा का झोंका 
किसी कहानी के टुकड़े सा 
क्या कभी एक कश्ती में सवार हो पाए हैं 
क्या कभी मोहब्बत के फूल 
चिताओं की राख पर उग पाए हैं 
प्रेमी प्रेमिका के संवाद की तरह 
क्या कभी कोई खुशबू बिखेर पाए हैं 
ख़ोज में हूँ ....संवाद की सार्थकता की  
उस निष्ठुर प्रेमिका की 
जो जलती लकड़ी सी हर पल सुलगती हो 
और उस दीवानावार प्रेमी की 
जो किसी दरवेश सा , किसी जोगी सा 
सिर्फ प्रेम की अलख जगाये 
मन के इकतारे पर एक धुन बजाता हो 
और मरुभूमि में उपजे कैक्टस में भी 
प्रेम रस की धारा बहाता हो ..................
जहाँ संवाद हकीकत बन जाए 
और एक प्रेम कुसुम मेरी रूह पर भी खिल जाए 
खोज रही हूँ ........खुद में वो निष्ठुर प्रेमिका 
और एक अदद ...............................

रविवार, 9 जून 2013

आल इंडिया रेडियो पर प्रसारित कार्यक्रम में मेरा काव्य पाठ

लीजिये दोस्तों सुनिये आज 9/6/2013 को  आल इंडिया रेडियो पर प्रसारित कार्यक्रम में मेरा काव्य पाठ इस लिंक पर 
हिन्द युग्म के शैलेष भारतवासी की शुक्रगुज़ार हूँ जो उन्होंने ये लिंक उपलब्ध करवाया 

शुक्रवार, 7 जून 2013

कभी तो लौटती डाक से जवाब आयेगा

लिखी रोज पाती तुम्हें
और फिर इंतज़ार की सीलन को
गले लगाकर बैठ गयी
इस चाह में
शायद
कभी तो लौटती डाक से जवाब आयेगा
मगर ये हकीकत भूल गयी थी
अब लिफ़ाफ़ों अन्तर्देशीय पत्रों पर लिखी इबारतों का जवाब देने का चलन नहीं रहा………
और मैं ना जाने कब से
अब भी आदिम युग की तस्वीर को सहला रही हूँ
सहेजे बैठी हूँ धरोहर के रूप में
क्योंकि ………जानती हूँ
युगों के बदलने से मोहब्बत के फ़लसफ़े नहीं बदला करते
आयेगा …………जवाब जरूर आयेगा
फिर चाहे मेरी उम्मीद के बादल को बरसने के लिये
किसी भी युग के आखिरी छोर तक इंतज़ार क्यों ना करना पडे
क्योंकि प्रेम के विस्थापित तो कहीं स्थापित हो ही नहीं पाते

मंगलवार, 4 जून 2013

ढूँढता हूँ शहर मैं जो बरसों पहले खो गया

ढूँढता हूँ शहर मैं जो बरसों पहले खो गया 
जाने किस सभ्यता में दफ़न कैसे हो गया 

जहाँ तिलिस्मों के बाज़ार में बिकती हों ख्वाहिशें 
उन ख्वाहिशों का कोई खरीदार कैसे हो गया 

इक अंगरखे के नकाब में निकलते हैं जो सड़कों पर 
पैरों की जूतियों का कोई तलबगार कैसे हो गया 

ये मौसमों की बदलती सीरत जो देखी हर तरफ 
जाने उन हवाओं का कोई पहरेदार कैसे हो गया 

वक्त की नुमाइशे जो क़त्ल भी किया करती थीं कभी 
जाने उन चौबारों पर आज ऐतबार कैसे हो गया