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रविवार, 30 अगस्त 2015

मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं

अभी तो मैं खुद अपने आप को नहीं जानती
फिर कैसे कर सकते हो तुम दावा
मुझे पूरी तरह जानने का
जबकि
मुझे जानने के लिए
तुम्हें नहीं पढने कोई कायदे
फिर वो प्रेम के हों
या द्वेष के

कभी जानने की इच्छा हो
तो छील लेना मेरी मुस्कराहट को
कतरे कतरे में उगी रक्तिम दस्तकारियाँ
बयां कर जायेंगी ज़िन्दगी के फलसफे

कभी किवाड़ों की झिर्रियों से
बहती हवा को देखा है
नहीं न ...... बस वो ही तो हूँ मैं
क्या फर्क पड़ता है
फिर वो गर्म हो या ठंडी

जब ढह जाएँ
तुम्हारी कोशिशों के तमाम पुल
तब खटखटाना दरवाज़ा
मेरी नज्मों का
मेरे लफ़्ज़ों का
मेरी अभिव्यक्ति का
जहाँ मिलेगा लिखा
' मुझे जानने को 
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी 
तुम संजीदा हो जाओ 
और पढ सको 
कर सको संवाद 
मूक अभिव्यक्तियों से '
क्योंकि 
यहाँ कोई दरवाज़ा ऐसा नहीं 
जिसे खोला न जा सके 
फिर वो खुदा ही क्यों न हो 

मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं
कि जिसके बाद कोई विकल्प न बचे 

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

दो टुकड़ा

1
चकनाचूर होकर टूटी रात की किरचें
न हथेलियों में चुभेंगी न जिस्म में
दिल और रूह की नालिशबंदी में
जरूरी तो नहीं कतरा लहू का निकले ही
चुभन ने बदल दी हैं दरो - दीवार की मश्कें

अब मोहब्बत से मोहब्बत करने के रिवाज़ कहाँ ?
तभी 
मेरी रात के खातों में दिनों का हिसाब लिपिबद्ध नहीं ...


2

दिन नदीदों सा अक्सर मुंह बाए चला आता है 

रातें उनींदी सी अक्सर मुंह छुपाए चली जाती हैं 

जाने कैसी पकड़ी है सुबहो शाम ने जुगलबंदी 

बेख़ौफ़ ज़िन्दगी का हर तेवर नज़र आता है








बुधवार, 26 अगस्त 2015

भविष्य जवाब का गुलाम नहीं

आजकल दर्द की गिरह में लिपटी हैं वर्जनाएं
कोशिशों के तमाम झुलसे हुए आकाश
अपने अपने दडबों में कुकडू कूँ करने को हैं बाध्य
ये विडम्बनाओं का शहर है
जहाँ दस्तकें तो होती हैं मगर सुनवाई नहीं
कौओं की काँव काँव भर है जिनका प्रतिरोध
भला ऐसे शहरों में भी कभी सुबह हुआ करती हैं ?

भविष्य जवाब का गुलाम नहीं ..........

शनिवार, 22 अगस्त 2015

मरना तय है ...........

पाताल भैरवी सी सच्चाइयाँ हैं
भयाक्रांत हैं वो
हाँ वो ही
जो तस्वीर के दोनों रुखों पर
नकाब डालने का हुनर जानते हैं
फिर भी
सत्य के बेनकाब होने से डरते हैं
और करते हैं अंतिम कोशिश
मुर्दे को जिलाने की
जो नहीं जानते
एक बार विषपान करने के बाद
कोई अमृत नहीं जिला सकता
मरना तय है ...........

बुधवार, 19 अगस्त 2015

ज़िदों के जिद पर आने का मौसम

चलो 
तोड़ो मेरी चुप्पी कोई 
कि 
यहाँ सन्नाटों का कोलाहल बजबजाता है 
और 
आखेटक का ही आखेट हुआ जाता है 

ये 
किन बारहदरियों में घुटता है जिस्म मेरा 
कि
साँसों और धडकनों की जुगलबंदी पर 
कोई कहकहा लगाता है 
और
खामोश आहटों से रूह का ज़र्रा ज़र्रा छिला जाता है 

नहीं आता काली घटाओं को बरसने का शऊर
जानते हुए भी जाने क्यों 
मैं हूँ कि 
भेज देती हूँ संदेसे बिना टिकट लगे लिफाफों में 

सावन के बरसने से जरूरी तो नहीं हर बार धरा का हरा होना ही 
ये ज़िदों के जिद पर आने का मौसम है ..........

शनिवार, 15 अगस्त 2015

आज़ाद हूँ मैं

गुलाम सोच की बेड़ियों को काट 
कहो , कि 'आज़ाद हूँ मैं' अब तो 
'हे भारतवर्ष की सन्नारियों'
और फिर मनाओ धूम से 
देश के स्वतंत्रता दिवस के साथ 
खुद की भी आज़ादी का जश्न 
शायद मिल जाए दोनों को ही सम्पूर्णता 
और गर्व से कह सको तुम भी 
ये आधी नहीं पूरी आबादी का है नारा 
जय हिन्द जय भारत 
जहाँ हर नारी में है बसती  
माँ बहन और बेटी 
स्वतंत्रता के मायने सिद्ध हो जायेंगे 
फिर गर्व से सब कह पाएंगे 
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा 

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

मुझे एक बात समझ नहीं आती



अक्सर फिल्म हो ,कविता या कहानी 
सबमें दी जाती है एक चीज कॉमन 
जो संवेदनहीनता और मार्मिकता का बनती है बायस 
और हिट हो जाती है कृति 

माँ हो या बाबूजी 
जरूरत उन्हें होती है 
सिर्फ एक अदद चश्मे की 
जो पैसे वाला हो या निकम्मा 
मगर कभी बनवा नहीं पाता बेटा  

और यही से आरम्भ होता है मेरा प्रश्न 
जो मेरी समझ के कोनो में मचाता है घमासान 
क्या महज चश्मे तक ही सीमित होती हैं उनकी जरूरतें और बच्चों के कर्तव्य ?

सोमवार, 3 अगस्त 2015

कितनी बेदर्द हूँ मैं ..................

अब दर्द नहीं होता 
होती है तो एक टीस सी बस 
जो बस झकझोरती रहती है 
उथल पुथल मचाये रखती है 
और मैं 
रिश्तों का आकलन भी नहीं करती अब 
जब से जाना है रिश्तों का असमान गणित 
फिर 
दर्द को किस प्यास का पानी पिलाऊँ 
जो 
रोये पीटे चीखे चिंघाड़े 
सुबकियाँ भरे 
तो हो सके अहसास चोट का 

न चोट की फेहरिस्त है अब और न ही ज़ख्मों की
फिर दर्द का हिसाब कौन रखे 

जाने किस समझौते की आड़ में 
मूक हो गयी हैं संवेदनाएं 
लगता है अब 

कितनी बेदर्द हूँ मैं ..................