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रविवार, 30 अगस्त 2015

मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं

अभी तो मैं खुद अपने आप को नहीं जानती
फिर कैसे कर सकते हो तुम दावा
मुझे पूरी तरह जानने का
जबकि
मुझे जानने के लिए
तुम्हें नहीं पढने कोई कायदे
फिर वो प्रेम के हों
या द्वेष के

कभी जानने की इच्छा हो
तो छील लेना मेरी मुस्कराहट को
कतरे कतरे में उगी रक्तिम दस्तकारियाँ
बयां कर जायेंगी ज़िन्दगी के फलसफे

कभी किवाड़ों की झिर्रियों से
बहती हवा को देखा है
नहीं न ...... बस वो ही तो हूँ मैं
क्या फर्क पड़ता है
फिर वो गर्म हो या ठंडी

जब ढह जाएँ
तुम्हारी कोशिशों के तमाम पुल
तब खटखटाना दरवाज़ा
मेरी नज्मों का
मेरे लफ़्ज़ों का
मेरी अभिव्यक्ति का
जहाँ मिलेगा लिखा
' मुझे जानने को 
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी 
तुम संजीदा हो जाओ 
और पढ सको 
कर सको संवाद 
मूक अभिव्यक्तियों से '
क्योंकि 
यहाँ कोई दरवाज़ा ऐसा नहीं 
जिसे खोला न जा सके 
फिर वो खुदा ही क्यों न हो 

मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं
कि जिसके बाद कोई विकल्प न बचे 

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