अभी तो मैं खुद अपने आप को नहीं जानती
फिर कैसे कर सकते हो तुम दावा
मुझे पूरी तरह जानने का
जबकि
मुझे जानने के लिए
तुम्हें नहीं पढने कोई कायदे
फिर वो प्रेम के हों
या द्वेष के
कभी जानने की इच्छा हो
तो छील लेना मेरी मुस्कराहट को
कतरे कतरे में उगी रक्तिम दस्तकारियाँ
बयां कर जायेंगी ज़िन्दगी के फलसफे
कभी किवाड़ों की झिर्रियों से
बहती हवा को देखा है
नहीं न ...... बस वो ही तो हूँ मैं
क्या फर्क पड़ता है
फिर वो गर्म हो या ठंडी
जब ढह जाएँ
तुम्हारी कोशिशों के तमाम पुल
तब खटखटाना दरवाज़ा
मेरी नज्मों का
मेरे लफ़्ज़ों का
मेरी अभिव्यक्ति का
जहाँ मिलेगा लिखा
' मुझे जानने को
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी
तुम संजीदा हो जाओ
और पढ सको
कर सको संवाद
मूक अभिव्यक्तियों से '
क्योंकि
यहाँ कोई दरवाज़ा ऐसा नहीं
जिसे खोला न जा सके
फिर वो खुदा ही क्यों न हो
मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं
कि जिसके बाद कोई विकल्प न बचे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें