पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

अम्बर तो श्वेताम्बर ही है

रंगों को नाज़ था अपने होने पर
मगर पता ना था
हर रंग तभी खिलता है
जब महबूब की आँखों में
मोहब्बत का दीया जलता है
वरना तो हर रंग 
सिर्फ एक ही रंग में समाहित होता है
शांति दूत बनकर .........
अम्बर तो श्वेताम्बर ही है 
बस महबूब के रंगों से ही
इन्द्रधनुष खिलता है
और आकाश नीलवर्ण दिखता है ...........मेरी मोहब्बत सा ...है ना !!

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

तन के उत्तरी छोरों पर

तन के उत्तरी छोरों पर 
पछीटती माथे की रेखा को 
वो गुनगुना रही है लोकगीत 

जी हाँ ....... लोकगीत 
दर्द और शोक के कमलों से भरा 

सुन रहा है ज़माना …… सिर्फ गुनगुनाना 
अंदर ही अंदर घुलती नदी का 

बशर्ते कोई पढ़ना जानता हो तो 
भौहों के सिमटने और फैलने के अंतराल में भी बची होती हैं वक्र रेखाएं 

आदि काल से 
परम्परागत रूप से 
मन के स्यापों पर रोने को नहीं है चलन रुदालियों को बुलाने का ………

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

आज होगी हर नार नवेली



लीजिये हाजिर है करवाचौथ 
अपने साम दाम दंड भेद के साथ 
आज होगी हर नार नवेली 
नर की होगी जेब भी ढीली 

फिर भी गरियायेंगे 
इक दूजे पर व्यंग्य बाण चलाएंगे 
ये है इक ऐसी पहेली 
सुलझ सुलझ कर हर बार उलझी 

कोई सोलह श्रृंगारा अपनी तस्वीर लगाएगी 
कोई करवाचौथ को ढकोसला बताएगी 
कोई रिश्ते में पड़ी दरार पर लिख जाएगी 
कोई मेहँदी लगे हाथों को चिपका जाएगी 
कोई नववधू  प्रीत के गीत सुना जायेगी 
यूँ फेसबुक पर भी करवाचौथ मना जाएंगी 

वहीँ कोई नर आज खुद को 
एक दिन का खुदा समझेगा 
तो कोई आज के दिन को कोसेगा 
किसी के ज़ख्म हरे हो जाएंगे 
तो कोई बिन पंखों के उड़ रहा होगा 
कोई उपदेश देता नज़र आएगा 
तो कोई खिल्ली उडाता दिख जायेगा 
कोई सिर्फ अपनी छोड़ दूजी नार की तस्वीर पर 
खूबसूरती के कसीदे पढ़ रहा होगा 
फिर चाहे करवाचौथ का रंग एक दिन में उत्तर जाएगा 
मगर अजब गज़ब करवाचौथ को केंद्र बना 
हर कोई अपने - अपने  दिल की लगी कह जायेगा  

जी हाँ , ये है फेसबुक की दुनिया 
यहाँ है सबको मौका मिलता 
अपने सभी हथियारों के साथ 
हर कोई निकालता अपनी भड़ास 


हमने भी निकाली अपनी भड़ास 
लेकिन क्यों हुआ आपका मुखकमल उदास 
सोचा ---मौका भी है और दस्तूर भी 
तो क्यों न बहती गंगा में हाथ धो लिए जाएँ 
कुछ चटपटी  लोकलुभावन बातें की जाएँ 
सबके मुख पर इक मुस्कान खिलाई जाए 
इस बार व्यंग्य पुष्प की वर्षा कर करवाचौथ मनाई जाए :p

देखिये नाराज़ मत होना 
हँसी ठिठोली का है मौका 
यूँ ही मस्ती में दिन गुजर जाएगा 
चाँद का इंतज़ार न बोझिल होगा


गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

कथा - आलोचना




मित्रों 
इस बार के 'हिंदी चेतना' का अक्टूबर से दिसम्बर 'कथा - आलोचना विशेषांक' में मेरे द्वारा लिखी गयी हिंदी चेतना पत्रिका की समीक्षा (पेज ७ )  और एक आलोचनात्मक पाठकीय दृष्टिकोण ( ८९-९० पेज ) छपा है।  

सुशील सिद्धार्थ जी के संपादन में निकला ये विशेषांक उम्मीद से बढ़कर हैं  . सुशील जी की मेहनत साफ़ परिलक्षित हो रही है। सभी जाने माने प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति और उनकी कथा कहानी पर आलोचनात्मक प्रतिक्रिया पाठक और लेखक के साथ आलोचक के दृष्टिकोण को तो एक पहचान दिलाएगी ही साथ ही लेखक और आलोचक के बीच की खायी को भी  पाटने की कोशिश करेगी मुझे ऐसी उम्मीद है।  

सुशील सिद्धार्थ जी द्वारा लिखा सम्पादकीय भी इसी दृष्टि को रेखांकित करता है।  क्योंकि अभी इसका इ - वर्जन ही उपलब्ध हुआ है इसलिए पूरा एकदम पढ़ना संभव नहीं मगर जो एक दृष्टि डाली तो लगा ये पत्रिका तो सबके पास होनी चाहिए।  एक ही जगह सभी  विचारों से रु-ब-रु होने का शायद इससे अच्छा मौका जल्दी न मिले।  सुशील सिद्धार्थ जी , पंकज सुबीर जी और सुधा ओम ढींगरा जी की पूरी टीम बधाई की पात्र है। 

जो मित्र पढ़ना चाहें इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं :

http://www.vibhom.com/pdf/oct_dec_2014.pdf

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

यादों की गुरमुखी

तेरी याद की सडक 
कभी खुरदुरी तो कभी सपाट 
और मैं 
कभी चलती हूँ 
कभी दौडती हूँ 
तो कभी ठहर जाती हूँ 
किसी सडक किनारे बने बैंच की तरह 
जो सदियों से वहीं है 
कितने ही मुसाफ़िर आयें जायें 
कितने ही मौसम बदलें 
मगर उसका ठहराव अटल है 

ये सदियों से सदियों के सफ़र पर 
चलने वाले मुसाफ़िरों की 
न दिशा होती है न दशा और न मंज़िल 
सिर्फ़ भटकाव के घने काले सायों में 
जीना ही उनका उत्तरार्ध होता है 
जाने क्यों फिर भी चलते चले जाने को अभिशप्त होते हैं 
और सडक है कि जिसका न ओर मिलता है और न छोर 

अब तुम नही हो 
लेकिन तुम्हारे नहीं होने से मेरे होने तक 
बस है तो बीच में ........ एक यादों की सडक 
क्या कभी मिलेगा इसे कोई अनुवादक जो बाँच सके यादों की गुरमुखी ?