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बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

खिन्न मौन

शब्द विचार और भावों का एक खिन्न मौन
जाने किस रति का मोहताज

संवेदनहीनता की निशानी
या 
निर्लेप निरपेक्षता को प्रतिपादित करता

प्रश्न सिर उठाये बैरंग लौट आया

तो क्या ये
मौन से मौन तक की ही कोई गति है ?

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

बस , कलम तू उनकी जय जय बोल

जिनके नहीं कोई दीन ईमान 
कलम तू उनकी जय जय बोल

जो तू उल्टी चाल चलेगी
तेरी न यहाँ दाल गलेगी
प्रतिरोध की बयार में प्यारी
तेरी ही गर्दन पे तलवार चलेगी
बस , कलम तू उनकी जय जय बोल

जो तू सम्मान वापस करेगी
तब भी तेरी ही अस्मत लुटेगी
प्रतिरोध की ये फांस भी
न उनके गले से नीचे उतरेगी
कलम तू उनकी जय जय बोल

इस पासे न उस पासे
तुझे चैन लेने देगी
ये धार्मिक अंधी कट्टरता
राजनीति का पहन कर चश्मा
तेरा ही विरोध करेगी
कलम तू उनकी जय जय बोल

तेरे स्वाभिमान की तो यहाँ
ऐसे ही धज्जियाँ उडेंगी
गर कर सके समझौता उनसे
तभी तू जीवित रह सकेगी
बस , कलम तू उनकी जय जय बोल 


( रामधारी सिंह दिनकर की पंक्ति साभार : कलम , आज उनकी जय बोल )

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

जश्न अभी बाकी है

न मेरा दर हवाएं खटखटाती
न मैं हवाओं के घर जाती
अपनी अपनी मसरूफियतें हैं
अपने अपने शिकवे शिकायतें
फिर भी अक्सर
राह चलते होती मुलाकातों में
एक अदद मुस्कराहट का पुल
संभावनाओं का साक्षी है
कि है उधर भी ऊष्मा बची हुई
कि है उधर भी अहसासों संवेदनाओं की धरती बची हुई

अब फर्क नहीं पड़ता
कि गले लगाकर ही ईद सा उत्सव मनाएं और खुद को बहलायें
हकीकत की मिटटी अभी नम है

तो फिर मुस्कुराओ न ... जश्न अभी बाकी है


मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

सिसकना नियति है


अपने तराजुओं के पलड़ों में
वक्त के बेतरतीब कैनवस पर
हम ही राम हम ही रावण बनाते हैं
जो चल दें इक कदम वो अपनी मर्ज़ी से
झट से पदच्युतता का आईना दिखा सर कलम कर दिए जाते हैं

ये जानते हुए कि
साम्प्रदायिकता का अट्टहास दमघोंटू ही होता है
नहीं रख पाते हम 
अभिव्यक्ति के खिड़की दरवाज़े खुले

आओ चलो
कि पतंग उड़ायें अपनी अपनी बिना कन्नों वाली
कि नए ज़माने के नए चलन अनुसार
जरूरी है प्रतिरोध के दांत दिखाना भर
क्योंकि
आगे के गणित की परिकल्पनाओं पर नहीं है हक़ किसी का

सिसकना नियति है
फिर लोकतंत्र हो या अभिव्यक्ति .........

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

चेतनामयी






हैलो
मुझे वंदना गुप्ता जी से बात करनी है
जी मैं बोल रही हूँ
मैं चित्रा मुद्गल बोल रही हूँ

उफ़ ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे , दिल की धडकनें तेज हो उठीं और मैं उछल पड़ी . कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो सुना सही सुना . उसके बाद बात का सिलसिला शुरू हुआ जब दी ने कहा , ' वंदना , संवेदन पत्रिका में तुम्हारी कवितायें पढ़ीं जिन्होंने मुझे तुमसे बात करने को मजबूर किया , मैं रुक नहीं सकी तुमसे बात करने से .

बेशक इससे पहले हम दो - तीन बार मिल चुके थे लेकिन वो मेरे बारे में ज्यादा कुछ जानती नहीं थीं और उसके बाद उन्होंने मुझे अपने कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया .

चित्रा मुद्गल दी द्वारा संचालित ' चेतनामयी संस्था ' में डॉ कुंवर बेचैन जी की अध्यक्षता में डॉ रमा सिंह जी के साथ मुझे भी  कल ६ अक्टूबर को कविता पाठ करने का अवसर प्राप्त हुआ जो मेरे लिए किसी दिवास्वप्न से कम नहीं था . अपने समय की देश विदेश में जानी मानी सभी बड़ी हस्तियाँ और उन सबके बीच मुझ सी नाचीज़ को यदि ऐसा मौका मिले तो उसे स्वप्न सच होना न कहूं तो क्या कहूं समझ नहीं आ रहा . औपचारिक रूप से शाल , फूलों का गुलदस्ता और मानदेय देते हुए अतिथियों का संस्था की कर्मठ अनीता जी ने स्वागत किया और फिर ईश वंदना के साथ कार्यक्रम का आरम्भ किया गया .

चेतनामयी संस्था में सिर्फ स्त्रियों का ही साम्राज्य है जहाँ वो साहित्य को पूर्ण रूप से समर्पित हैं जिसका अंदाज़ा आपको तब होता है जब आप कविता सुनाते हैं तो हर शख्स एक एक पंक्ति को इतने ध्यान से सुनता है कि कविता के बाद उस पर अच्छा खासा विमर्श भी होता है और मेरे साथ तो ये एक ऐसा मौका था कि जो हो रहा था वो मैंने सोचा भी नहीं था .

मेरी पहली दो कवितायें ' मेरे फुंफकारने भर से ' और ' क्योंकि अपराधी हो तुम ' को तो आग्रह करके दो दो बार सुना और मैं आश्चर्यचकित इतने सुधि श्रोता पाकर . यूँ मैंने चार कवितायें सुनाईं जिसमे से एक प्रेम कविता और एक पौराणिक चरित्र गांधारी पर थी तो उस पर भी काफी विमर्श चलता रहा .

किसी भी रचनाकार के लिए वो पल अविस्मर्णीय बन जाते हैं जब अपने समय की बड़ी हस्तियों से भी दाद पाए और इतने बढ़िया श्रोता मिलें और ये मेरा एक ऐसा ही दिन था जिसने मुझे अभिभूत किया .

सबसे बड़ी बात डॉ रमा सिंह जी और डॉ कुंवर बेचैन जी के साथ ने केवल बैठना बल्कि उन्हें सुनना एक उपलब्धि से कम नहीं . रमा सिंह जी के गीतों और गजलों में जहाँ जीवन दर्शन समाया था वहीँ डॉ कुंवर बेचैन जी ने शहर और गाँव के अंतर के साथ मध्यमवर्गीय जीवन का एक ऐसा खाका पेश किया जो शायद हर घर की कहानी है लेकिन संवेदना का उच्च स्तर ही मनोभावों को छूता है . उसके बाद संक्रमण और फिर जब अंत में अपनी प्रसिद्ध कविता  ' बदरी ' सुनाई तो ज्यादातर सभी की आँख भर आई .

डॉ साहब का ये कहना कि 'मैंने अपने इतने साल के समय में ऐसा माहौल नहीं देखा' ही सिद्ध करता है कि कैसे चित्रा दी साहित्य की सच्ची सेवा कर रही हैं . चित्रा दी दिल से आभारी हूँ जो आपने मुझे इस काबिल समझा और इतने बढ़िया श्रोता उपलब्ध करवाए .
अंत में यही कह सकती हूँ सुधि श्रोता किसी भी कार्यक्रम की जान होते हैं .




अंत में सबसे बड़ी बात : ' संवेदन ' पत्रिका निकालने वाले राहुल देव की हार्दिक आभारी हूँ जो मुझे पत्रिका का हिस्सा बनाया . जिसे पढ़ स्वयं चित्रा दी का मुझे फ़ोन आया और मुझे इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने का उन्होंने ये सु-अवसर दिया .

कहने को इतना है कि कहती जाऊं और बात ख़त्म न हो और शायद तब भी पूरा न कह पाऊँ लेकिन उस वजह से पोस्ट बड़ी हो जाएगी इसलिए जो ट्रेलर दिखाया है उसी से सब्र करना पड़ेगा :)

फिलहाल जो चित्र उपलब्ध हैं उन्हीं से काम चलाइये ये भी डॉ कुंवर बेचैन जी के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं .

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

एक नयी शुरुआत के लिए

आशंका के समंदर में
हिलोर मारती लहरों से
नहीं पूछा जाता यूं उठने गिरने का सबब
जब तक कि अंदेशा न हो कोई
मगर बिना सबब नहीं होता कुछ भी
तूफ़ान से पहले के संकेत साक्षी हैं
तूफ़ान से पहले और बाद की शांति के

एक एक कर क्रमानुसार
बदल जाती हैं तस्वीरें
तुम चाहो या न चाहो
काल से बड़ा कोई काल नहीं
जो अंदेशों को सही सिद्ध कर देता है
और देता है सन्देश
जहाज के डूबने के अंदेशे पर
चूहे ही छोड़ते हैं सबसे पहले जैसे
वैसे ही ज़िन्दगी के मझधार में भी
यूं ही क्रिया प्रतिक्रियाओं के भंवर में
छोड़ जाते हैं वक्त के गाल पर अनचाहे निशान
कुछ चेहरे ,कुछ लोग , कुछ अजनबी

बस यही तो है ज़िन्दगी का फलसफा
मिलना बिछड़ना , टूटना जुड़ना
निर्माण विध्वंस
फिर पुनर्निर्माण हेतु उपक्रम
तो पकड़ो फिर एक नया सिरा
एक नयी शुरुआत के लिए
क्योंकि ..........चलना जरूरी है