मुझे रूठने की
और तुम्हें मनाने की
आदत रही ता - उम्र
जानते हो न
जो मज़ा रूठने में होता है
वो मनाने में कहाँ
मैं तो बस
चुस्की भरती रही
बर्फ के गोले सी
और बूँद बूँद स्वाद चखती रही
कभी तीखा तो कभी फीका
कभी मीठा तो कभी नमकीन
और तुम
कोशिशों के तमाम पुल चढ़ते रहे
और मैं
उन कोशिशों की डोर
कभी ढीली छोडती रही
तो कभी खींचती रही
यूं ज़िन्दगी निकलती रही
मगर सोचती हूँ अब
अगर उल्टा होता तो
क्या मैं डाल सकती थी
इसी तरह इश्क की नाक में नकेल
क्योंकि
मेरा इश्क थोडा नकचढ़ा है ......
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