साहित्य और सफेदी
दोस्तों
अभी प्रेम जनमेजय जी ने फेसबुक पर नयी दुनिया में प्रकाशित अपना ये व्यंग्य आलेख "साहित्य और सफेदी" लगाया है और चाहते थे कि सब अपनी राय रखें मगर उनके आलेख को तो मैं नहीं पढ़ पाई क्यूँकि उसके फोंट्स बड़े नहीं हो पा रहे थे मगर उनके शीर्षक ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया और उन्हें मैंने अपने ये विचार प्रेषित किये हैं ..........अब पता नहीं सही हैं या नहीं मगर ये मेरी एक सोच है और यदि ऐसा होने लगे तो भविष्य में साहित्य का अपना एक अलग मुकाम होगा ऐसा मेरा सोचना है ...............
मुझे नही पता आपने इसमे क्या कहा …………आप हैं साहित्य के पुरोधा , एक सशक्त हस्ताक्षर तो आपसे सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूँगी कि साहित्य और सफ़ेदी शीर्षक से जो मुझे समझ आया वो ये कि शायद ये हमारे वरिष्ठ साहित्यकारों की ही देन है जो आज साहित्य मे सफ़ेदी दिखायी दे रही है ………आप जानना चाहेंगे कि कैसे? तो उसका जवाब है कि जब वरिष्ठ साहित्यकार जब एक मुकाम पर पहुंच जाते हैं कम से कम तब तो आने वाले नये लेखकों को , कवियों को प्रोत्साहित करें ताकि वो भी साहित्य जगत मे अपना योगदान दे सकें मगर हमारे देश के साहित्य का ये दुर्भाग्य ही रहा है कि जितने भी साहित्यकार कम से काम आज जो हो रहे हैं वो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने वर्चस्व के लिये ही जी रहे हैं और छोटे या नये लेखकों को प्रोत्साहन तो दूर उनकी एक से एक उम्दा रचनाओं को भी जल्दी नही सराहते जबकि अन्दर से जानते हैं कि शायद उनसे भी उम्दा और बेहतर लेखन है क्योंकि कहीं ना कहीं उन्हे डर रहता है कि कहीं वो उनसे आगे ना निकल जाये या उनका जो वर्चस्व कायम है वो ना छिन जाये…………अगर कोई किसी को थोडा बहुत प्रोत्साहित कर भी रहा है तो किसी ना किसी के कहने पर या किसी के किसी उपकार के नीचे दबे होने के कारण मगर वास्तव मे सच्चा साहित्यकार तो वो ही होता है जो ना केवल अपना बल्कि अपने साथ दूसरों को भी साथ लेकर चले…………मै तो यही कहूँगी कि उसे चाहिये अपनी एक पुस्तक छपवाने के साथ प्रकाशक से कहे कि एक नये कवि या लेखक की भी साथ मे एक पुस्तक प्रकाशित करे तो कैसे ना आने वाला वक्त बदलेगा क्योंकि स्थापित साहित्यकार तो हमेशा बिकता है तो इसलिये वो छपता है मगर नये के लिये कोई हाथ नही लगाना चाहता फिर चाहे उसमे कितनी भी संभावनायें हों ………यदि स्थापित साहित्यकार इस दिशा मे एक नयी पहल करें तो साहित्य पर कभी सफ़ेदी नही छा सकती और वक्त के इतिहास मे ये उदाहरण स्वर्ण अक्षरों मे जरूर लिखा जायेगा ऐसी मुझे उम्मीद है…………कुछ अन्यथा कहा हो तो माफ़ी चाहती हूँ जो आजकल देख रही हूँ उसी के बारे मे लिखा है .
बाल रंगने याना रंगने से ज्यादा जरूरी है कि आज के साहित्यकारों को
अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो और समाज के विकास मे अपना
योगदान दे सकें …………वैसे भी साहित्यसमाज का ही दर्पण होता
है…………अब ये आज के इन साहित्यकारों पर है कि ये कैसा समाज
देंगे आने वाली पीढियों को..............
तो बताइये दोस्तों क्या मैने कुछ गलत कहा? क्या ऐसा होना संभव है?
या ऐसी पहल की जानी चाहिये?
12 टिप्पणियां:
मुझे लगता है, हर क्षेत्र में मोनोपोली का जमाना रहा है, कोई भी व्यक्ति चाहे वो साहित्य से ही जुद्दा हो, (जबकि उम्मीद ऐसी रहती है, की हमें कोई रास्ता दिखायेगा... कुछ होते भी हैं...) हर समय अपने को ही आगे देखना चाहता है..!! और वंदना आपने तो ऐसी सलाह दे दी की दुनिया ही बदल जाये.... अगर ये पुरोधा अपने साथ किसी भी एक को आगे बढाने की कोशिश कर ले....! सार्थक बात कही .... धन्यवाद्!
साहित्य में सफेदी आना अल्ज़ाइमर्स का लक्षण है जो स्मृति ह्रास से ताल्लुक रखने वाला एक अपविकासी रोग है न्यूरो -दिजेंरेतिव (Neurodegenrative disease) है .इस बीमारी में दिमाग सिकुड़ने लगता है .खुद अपनी ही सुध नहीं रहती .
हिंदी साहित्य पर आज चंद नामवरों का वर्चस्व है .सबके अपने अपने खेमे हैं .खेमा बंदी है .साहित्य तो पुलिस रिमांड पर रहता है यहाँ .
यहाँ मूल साहित्य समीक्षकों की रखैल बनके रह गया है .नन्द दुलारे बाजपाई से लेकर नामवर तक यही परम्परा चली आई है .
एकत्रित होना सही, अर्थ शब्द-साहित्य ।
सादर करते वन्दना, बड़े-बड़ों के कृत्य ।
बड़े-बड़ों के कृत्य, करे गर किरपा हम पर ।
हम साहित्यिक भृत्य, रचे रचनाएं जमकर ।
गुरु-चरणों में बैठ, होय तन-मन अभिमंत्रित ।
छोटों की भी पैठ, करें शुरुवात एकत्रित ।।
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
हर क्षेत्र मेन कोई किसी को आगे बढ़ता नहीं देखना चाहता .... और इस क्षेत्र मेन तो सबसे ज्यादा नीचे गिराने का प्रयास रहता है ... यह बात मैं इस लिए कह पा रही हूँ क्यों कि अभी मैंने मैत्रेयी पुष्पा की गुड़िया भीतर गुड़िया ( आत्म कथा ) पढ़ी है ... जब उनके उपन्यासों को लोग सराहने लगे तो कैसे उनको लांछित किया गया ... अफसोस होता है लोगों की मानसिकता पर ... लेकिन यह भी सच है कि कुछ साहित्यकार नए लेखकों को बढ़ावा भी देते हैं नहीं तो शायद कोई भी अपना नाम स्वयं नहीं कमा सकता ... अपवाद सब जगह होते हैं .... स्थापित साहित्यकार भी कभी नए ही होंगे ...अपने अपने संघर्ष सबको करने पड़ते हैं ...
बहुत ही सही कहा है आपने ...सार्थक एवं सटीक लेखन ...
कल 14/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सार्थक ब्लॉगिंग की ओर ...
आपकी बात से सहमत हूँ!
समाजप्रधान साहित्य दिखने लगा है और वही सबको रुचिकर भी लग रहा है।
साहित्य और सफेदी...हमारी कवरेज टाईप माहौल दिख रहा है..पढ़ना पड़ेगा..:) हा हा!!
देखते हैं..
सजी मँच पे चरफरी, चटक स्वाद की चाट |
चटकारे ले लो तनिक, रविकर जोहे बाट ||
बुधवारीय चर्चा-मँच
charchamanch.blogspot.com
सुन्दर चिंतन..
यहाँ मैं संगीता आंटी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ।
यह सत्य है कि वरिष्ठ साहित्यकार आत्ममुग्धता से पीड़ित है लेकिन यह भी सत्य है कि यदि नवीन लेखक अपनी श्रेष्ठता को लेकर आता है तो कितनी भी उपेक्षा हो, वह अपनी जमीन तलाश ही लेता है। कभी भी कोई किसी की अंगुली पकड़कर आगे नहीं बढ़ पाता है। वर्तमान में तो इतनी संस्थाएं और इतनी अकादमियां हैं कि जिसमें जरा सी भी प्रतिभा है वह अपना मार्ग ढूंढ ही लेता है। साहित्य के पिछड़ने का बहुत बड़ा कारण फिल्म और टीवी है। दूसरा कारण भाषा है, आज अंग्रेजी युवावर्ग की आवश्यकता बन गयी है इसी कारण वे अंग्रेजी साहित्य पढ़ रहे हैं और हिन्दी साहित्य हाशिए में चला गया है। ब्लाग जगत ने एक माध्यम दिया है कि हम अपने साहित्य को समाज के समक्ष ला सकें, लेकिन यहाँ भी जल्दी से आगे बढ़ने की चाह है। साधना करना कोई नहीं चाहता।
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