मनाते रहे ता-उम्र
ज़िन्दगी की खुशफहमियां
फिर चाहे वो
जन्मदिन के रूप में हों
या वर्षगांठ
या अन्य कोई उत्सव हो
एक के बाद एक चाहतें
ज्वार - भाटों सी उमड़ी आती हैं
और हम बहते रहते हैं
सारे तटबंध तोड़ते हुए
मगर कभी जान नहीं पाते
समझ नहीं पाते
वो कर नहीं पाते
जो करना चाहिए
जो जरूरी है
यूँ तो बनते हैं हम
पक्के कर्मकांडी
बनते हैं पुजारी
दिखाते हैं सबको
हम हैं उसी में राजी
जिसमे उसकी रज़ा है
मगर वास्तव में
कहाँ ऐसा हो पाता है
कहाँ हम में आया
वो समर्पण
वो अर्पण
वो वंदन
वो नमन
गर होता ऐसा
तो ना करते वैसा
जैसा मैंने किया
है ना ............
देखो ना
कहने को कह देती हूँ
समर्पित हूँ पूर्णरूपेण
मगर क्या यही है
समर्पण की परिभाषा
जब सारा जहान तुम्हारे
आगमन की आशा में
उल्लास में डूबा हो
वहाँ मेरे निष्ठुर मन में कोई
उमंग उठी ही ना हो
किसी हिलोर ने
दस्तक दी ही ना हो
गर होती कोई पीर
बढती प्रसव वेदना
जो जन्म होता ना.....तुम्हारा
आ जाते ना तुम
छोड़ वैकुण्ठ मन वृन्दावन में
मगर नहीं हुआ ऐसा
जानते हो क्यों
क्योंकि
जब सारा जहान
तुम्हारा जन्मोत्सव मना रहा था
तुम्हारे आगमन की
उत्कंठा में द्रवित हो रहा था
जब इंतज़ार चरम पर पहुँच रहा था
उस वक्त मैं........हाँ मैं
डूबी थी सांसारिक कर्म में
ना कोई उत्कंठा थी
ना प्रबल चाह
ना कोई पीर
ना कोई वेदना
ना तुम्हें बुलाने की कोई चाह
तटस्थ सी थी
तुम्हारे जन्म से
पता नहीं क्यों
कोई भाव जागृत ही नहीं हुआ
ना भाव , ना शब्द
ना कोई अलंकरण , ना कोई स्पंदन
फिर कहो माधव
कैसे हो तुम्हारा अवतरण
सुना है
तुम तब तक नहीं लेते जन्म
जब तक
प्रतीक्षा और उत्कंठा
चरम सीमा को
ना पार कर जाएँ
तो मोहन
माफ़ करना मुझे
मुझमे नहीं है वो संबल
नहीं है वैसा धैर्य
नहीं है वैसी प्रबल भावना
नहीं है वैसी आतुर पुकार
नहीं डूब सकती
तुम्हारे मोहजाल में
नहीं बन सकती मीरा
जो गली- गली अलख जगाती फिरे
नहीं बन सकती राधा
जो तुम्हारी बांसुरी की धुन पर
मतवारी हो दीवानी कहाती फिरे
माफ़ करना मोहन
बस ऐसी ही हूँ मैं
जो सिर्फ ऊपरी आडम्बर करती है
वास्तव में तो
तुम्हारे लिए ना कोई स्वांग रचती है
तो बताओ फिर नटखट
जहाँ तुम्हारे सारे भक्त
जय- जयकार लगा रहे हों
तुम्हें आवाज़ दे बुला रहे हों
तुम्हारे दीदार को तरस रहे हों
वहाँ पहले जाओगे या नहीं
उनका माखन मिश्री खाओगे या नहीं
पंचामृत से स्नान करोगे या नहीं
और बनता भी यही है
जहाँ आदर हो
वहीं जाना चाहिए
जिस घर के कपाट बंद हों
वहाँ क्यों दस्तक दे कोई
तुम्हें क्या कोई कमी है
एक से एक भक्त भरे पड़े हैं संसार में
जो तुम्हारे लिए मिटने को तैयार हैं
ऐसे में मेरे जैसे नश्वर जीवों की क्या बिसात
देखो सारा संसार
कैसे आनादोत्सव मना रहा है
तुम्हारे जन्मोत्सव के आनंद में
कहीं दही हांड़ी फोड़ी जा रही है
तो कहीं मंदिरों के बाहर
कतारें लगी हैं---तुम्हारे दीदार के लिए
जाओ मोहन वहीं जाओ
वहीं जाना बनता है तुम्हारा
मेरे जैसी दम्भी , पाखंडी
निर्मोही , स्वार्थी के
दर पर तुम्हें क्या मिलेगा
सारे अवगुणों की खान हूँ
हर द्वार पर सांकल हो
ये जरूरी तो नहीं ना ......मोहन
फिर ना तो मैं यशोदा हूँ ना देवकी
जो दूध का क़र्ज़
तुम पर चढ़ा हो
जिसे चुकाने के लिए
तुम्हें जन्म लेना पड़े
मेरे घर की सपाट
सफ़ेद दीवारों पर
जरूरी तो नहीं
श्याम रंग का रोगन चढ़े ही
ना पूजन किया
ना वंदन ना नमन
ना श्रृंगार ना गायन
ना आरती
ना तिलक लगाया
ना तुम्हारा विग्रह बनाया
सिर्फ रोज की तरह
दिन गुजारा
सारे लक्षण तो देखो ना
नस्तिकी ही हैं
इसलिए
पूत नहीं जिसके
वो पूतना समझ लेना
और अगर कहीं कोई बूँद बची हो मुझमे
तो मेरे उस प्रेम रस का आस्वादन कर लेना
क्योंकि
मुझे नहीं आता जन्मदिन मनाना .......तुम्हारा
ओ गिरधारी, बनवारी, मुरारी , नटवरधारी
ज़िन्दगी की खुशफहमियां
फिर चाहे वो
जन्मदिन के रूप में हों
या वर्षगांठ
या अन्य कोई उत्सव हो
एक के बाद एक चाहतें
ज्वार - भाटों सी उमड़ी आती हैं
और हम बहते रहते हैं
सारे तटबंध तोड़ते हुए
मगर कभी जान नहीं पाते
समझ नहीं पाते
वो कर नहीं पाते
जो करना चाहिए
जो जरूरी है
यूँ तो बनते हैं हम
पक्के कर्मकांडी
बनते हैं पुजारी
दिखाते हैं सबको
हम हैं उसी में राजी
जिसमे उसकी रज़ा है
मगर वास्तव में
कहाँ ऐसा हो पाता है
कहाँ हम में आया
वो समर्पण
वो अर्पण
वो वंदन
वो नमन
गर होता ऐसा
तो ना करते वैसा
जैसा मैंने किया
है ना ............
देखो ना
कहने को कह देती हूँ
समर्पित हूँ पूर्णरूपेण
मगर क्या यही है
समर्पण की परिभाषा
जब सारा जहान तुम्हारे
आगमन की आशा में
उल्लास में डूबा हो
वहाँ मेरे निष्ठुर मन में कोई
उमंग उठी ही ना हो
किसी हिलोर ने
दस्तक दी ही ना हो
गर होती कोई पीर
बढती प्रसव वेदना
जो जन्म होता ना.....तुम्हारा
आ जाते ना तुम
छोड़ वैकुण्ठ मन वृन्दावन में
मगर नहीं हुआ ऐसा
जानते हो क्यों
क्योंकि
जब सारा जहान
तुम्हारा जन्मोत्सव मना रहा था
तुम्हारे आगमन की
उत्कंठा में द्रवित हो रहा था
जब इंतज़ार चरम पर पहुँच रहा था
उस वक्त मैं........हाँ मैं
डूबी थी सांसारिक कर्म में
ना कोई उत्कंठा थी
ना प्रबल चाह
ना कोई पीर
ना कोई वेदना
ना तुम्हें बुलाने की कोई चाह
तटस्थ सी थी
तुम्हारे जन्म से
पता नहीं क्यों
कोई भाव जागृत ही नहीं हुआ
ना भाव , ना शब्द
ना कोई अलंकरण , ना कोई स्पंदन
फिर कहो माधव
कैसे हो तुम्हारा अवतरण
सुना है
तुम तब तक नहीं लेते जन्म
जब तक
प्रतीक्षा और उत्कंठा
चरम सीमा को
ना पार कर जाएँ
तो मोहन
माफ़ करना मुझे
मुझमे नहीं है वो संबल
नहीं है वैसा धैर्य
नहीं है वैसी प्रबल भावना
नहीं है वैसी आतुर पुकार
नहीं डूब सकती
तुम्हारे मोहजाल में
नहीं बन सकती मीरा
जो गली- गली अलख जगाती फिरे
नहीं बन सकती राधा
जो तुम्हारी बांसुरी की धुन पर
मतवारी हो दीवानी कहाती फिरे
माफ़ करना मोहन
बस ऐसी ही हूँ मैं
जो सिर्फ ऊपरी आडम्बर करती है
वास्तव में तो
तुम्हारे लिए ना कोई स्वांग रचती है
तो बताओ फिर नटखट
जहाँ तुम्हारे सारे भक्त
जय- जयकार लगा रहे हों
तुम्हें आवाज़ दे बुला रहे हों
तुम्हारे दीदार को तरस रहे हों
वहाँ पहले जाओगे या नहीं
उनका माखन मिश्री खाओगे या नहीं
पंचामृत से स्नान करोगे या नहीं
और बनता भी यही है
जहाँ आदर हो
वहीं जाना चाहिए
जिस घर के कपाट बंद हों
वहाँ क्यों दस्तक दे कोई
तुम्हें क्या कोई कमी है
एक से एक भक्त भरे पड़े हैं संसार में
जो तुम्हारे लिए मिटने को तैयार हैं
ऐसे में मेरे जैसे नश्वर जीवों की क्या बिसात
देखो सारा संसार
कैसे आनादोत्सव मना रहा है
तुम्हारे जन्मोत्सव के आनंद में
कहीं दही हांड़ी फोड़ी जा रही है
तो कहीं मंदिरों के बाहर
कतारें लगी हैं---तुम्हारे दीदार के लिए
जाओ मोहन वहीं जाओ
वहीं जाना बनता है तुम्हारा
मेरे जैसी दम्भी , पाखंडी
निर्मोही , स्वार्थी के
दर पर तुम्हें क्या मिलेगा
सारे अवगुणों की खान हूँ
हर द्वार पर सांकल हो
ये जरूरी तो नहीं ना ......मोहन
फिर ना तो मैं यशोदा हूँ ना देवकी
जो दूध का क़र्ज़
तुम पर चढ़ा हो
जिसे चुकाने के लिए
तुम्हें जन्म लेना पड़े
मेरे घर की सपाट
सफ़ेद दीवारों पर
जरूरी तो नहीं
श्याम रंग का रोगन चढ़े ही
ना पूजन किया
ना वंदन ना नमन
ना श्रृंगार ना गायन
ना आरती
ना तिलक लगाया
ना तुम्हारा विग्रह बनाया
सिर्फ रोज की तरह
दिन गुजारा
सारे लक्षण तो देखो ना
नस्तिकी ही हैं
इसलिए
पूत नहीं जिसके
वो पूतना समझ लेना
और अगर कहीं कोई बूँद बची हो मुझमे
तो मेरे उस प्रेम रस का आस्वादन कर लेना
क्योंकि
मुझे नहीं आता जन्मदिन मनाना .......तुम्हारा
ओ गिरधारी, बनवारी, मुरारी , नटवरधारी
14 टिप्पणियां:
एक भक्त के हृदय की निश्छल विलक्षण वेदना
को आपने मूर्त रूप दे दिया है.
आपका लिखा दिल को झकझोर
रहा है, वन्दना जी.
क्या लिखूं,कुछ लिखा नही जा रहा.
bahut khoob.bhagvaan ke liye kya mandir me jana dil me jhaank kar dekho vahin milenge.satkarm hi sabse badi pooja.
मिथ्या हो या सत्य ,
भक्त होने का प्रदर्शन नहीं किया जाता !
आपकी श्रद्धा है उस बांसुरी वाले में नहीं तो आप अपनी वेदना उनको क्यूँ सुनाती !
बेहतरीन !
भावों और शब्दों का अच्छा समाजस्य है..भावबिभोर करती प्यारी रचना...
बेहतरीन और प्रभावपूर्ण
बहुत खूब ... जय हो !
पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और आप सब की ओर से अमर शहीद खुदीराम बोस जी को शत शत नमन करते हुये आज की ब्लॉग बुलेटिन लगाई है जिस मे शामिल है आपकी यह पोस्ट भी ... और धोती पहनने लगे नौजवान - ब्लॉग बुलेटिन , पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
बहुत सुन्दर....
लाजवाब अभिव्यक्ति...
अनु
एक भक्त की वेदना का भाव लिए सुंदर शब्दों के साथ लिखी बहुत शानदार रचना /बहुत बधाई आपको /
मेरे ब्लॉग में आपका स्वागत है /चार महीने बाद फिर में आप सबके साथ हूँ /जरुर पधारिये /
बहुत भावप्रवण रचना .... भगवान तो एक बूंद से ही तृप्त हो जाते हैं ...
bhaut khubsurat abhiyakti....janmastmi ki hardik shubhkamnaaye.....
भक्तिभाव से रची खुबसूरत अभिव्यक्ति...
बहुत सुन्दर
:-)
प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति..
वाह...सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
भावपूर्ण अभिव्यक्ति....
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