"मैं और मेरा देश"
विषय ही रह गया है बस
कितने दिलों में देश
उसकी अस्मिता
उसका स्वाभिमान
उसका गौरव
सांस लेता है
आते हैं सभी
अपनी अपनी ढपली
और अपने अपने राग से
सुनाते हैं दास्तानें
करते हैं आडम्बर
बनते हैं देशभक्त
मगर क्या सच में होता है
कोई शख्स उनमे
जो वास्तव में शुभचिंतक हो
जो वास्तव में जीवट हो
जो जानता हो
आज़ादी का मोल
कैसे जान सकता है कोई
आज़ादी का मोल
जब गुलामी की बेड़ियों में
अब तक जकड़े हों
अब तक ना जिनका लहू खौला हो
आदत पड़ गयी हो जिन्हें
जूते और जूठन उठाने की
कैसे उम्मीद करें
बैठेंगे साथ
लेंगे भोजन का आनंद
नहीं जानते जो
आज़ादी की कीमत
कैसे उम्मीद करें उनसे
आज़ादी के अर्थों की
६५ वर्षों के बाद भी
कहाँ मुक्त हैं हम
अशिक्षा, बेईमानी ,
बेरोजगारी, भ्रष्टाचार
का परचम कैसे लहरा रहा है
जिसमे हर भारतीय डूबा जा रहा है
एक ऐसी दलदल
जिससे जितना बाहर आना चाहो
उतना ही नीचे धंसते जाओगे
कोशिशों के कितने पुल बनाओ
महासागर की बड़ी मछलियों से
कैसे बच पाओगे
शार्क कब दबोच ले नहीं जान पाते
और एक अंधे गहरे दलदल में
जब खुद को पाते हैं
कितना ही हाथ पैर चलाओ
उतने ही धंसते जाते हैं
सिस्टम को बदलने की पुरजोर कोशिशें भी
उस वक्त नाकाम होती हैं
जब अपने घर के दरख्तों पर ही
पाला पड़ा मिलता है
हर घर पर सांकल लगी होती है
मैं और मेरा घर , मेरे बच्चे
मेरी जरूरत से ऊपर
हम उठ ही नहीं पाते
जो हो रहा है
वो मेरे साथ नहीं हो रहा
तो मैं क्यों कोशिश करूँ
कहीं आफत मेरे सिर पर ही ना आ जाए
डर की गिरफ्त में डूबा हर शख्स
नहीं लगाता इंकलाबी नारे
नहीं देता साथ
और पिसता रहता है
गेहूं के दानों सा
भ्रष्टाचार और सरकारी तंत्र की चक्की में
आवाज़ पर लगे तालों की चाबी को
फेंक आता है दरियाओं में
फिर साथ देने की उससे उम्मीद क्यों और कैसी ?
जब ऐसा मेरा व्यक्तित्व है
जब मैं स्वयं स्वार्थी हूँ
नहीं दिखता मुझे मुझसे ज्यादा कुछ भी
फिर कैसे देख सकता हूँ
देश को और उसकी दुर्दशा को
कैसे कर सकता हूँ आज़ाद
खुद को या देश को
अपनी ही जकड़ी बेड़ियों से
ऐसे में क्या है मेरे लिए महत्त्व स्वतंत्रता का
सिर्फ इतना ही
महज एक दिन की सरकारी छुट्टी
अपनी तरह व्यतीत करने का जरिया
औपचारिकता प्रमाणिक नहीं होती
ये जानते हुए भी
मैं नहीं सोचता अपने देश के बारे में
क्योंकि गुलाम हूँ मैं अभी
अपनी जड़वादी सोच का
गुलाम हूँ मैं अभी
अपने अन्दर बैठे डर का
गुलाम हूँ मैं अभी
अपने लालच का
ऐसे में
"मैं और मेरा देश "
मेरे लिए सिर्फ
एक विषय से इतर क्या हो सकते हैं .........ज़रा सोचिये ?
विषय ही रह गया है बस
कितने दिलों में देश
उसकी अस्मिता
उसका स्वाभिमान
उसका गौरव
सांस लेता है
आते हैं सभी
अपनी अपनी ढपली
और अपने अपने राग से
सुनाते हैं दास्तानें
करते हैं आडम्बर
बनते हैं देशभक्त
मगर क्या सच में होता है
कोई शख्स उनमे
जो वास्तव में शुभचिंतक हो
जो वास्तव में जीवट हो
जो जानता हो
आज़ादी का मोल
कैसे जान सकता है कोई
आज़ादी का मोल
जब गुलामी की बेड़ियों में
अब तक जकड़े हों
अब तक ना जिनका लहू खौला हो
आदत पड़ गयी हो जिन्हें
जूते और जूठन उठाने की
कैसे उम्मीद करें
बैठेंगे साथ
लेंगे भोजन का आनंद
नहीं जानते जो
आज़ादी की कीमत
कैसे उम्मीद करें उनसे
आज़ादी के अर्थों की
६५ वर्षों के बाद भी
कहाँ मुक्त हैं हम
अशिक्षा, बेईमानी ,
बेरोजगारी, भ्रष्टाचार
का परचम कैसे लहरा रहा है
जिसमे हर भारतीय डूबा जा रहा है
एक ऐसी दलदल
जिससे जितना बाहर आना चाहो
उतना ही नीचे धंसते जाओगे
कोशिशों के कितने पुल बनाओ
महासागर की बड़ी मछलियों से
कैसे बच पाओगे
शार्क कब दबोच ले नहीं जान पाते
और एक अंधे गहरे दलदल में
जब खुद को पाते हैं
कितना ही हाथ पैर चलाओ
उतने ही धंसते जाते हैं
सिस्टम को बदलने की पुरजोर कोशिशें भी
उस वक्त नाकाम होती हैं
जब अपने घर के दरख्तों पर ही
पाला पड़ा मिलता है
हर घर पर सांकल लगी होती है
मैं और मेरा घर , मेरे बच्चे
मेरी जरूरत से ऊपर
हम उठ ही नहीं पाते
जो हो रहा है
वो मेरे साथ नहीं हो रहा
तो मैं क्यों कोशिश करूँ
कहीं आफत मेरे सिर पर ही ना आ जाए
डर की गिरफ्त में डूबा हर शख्स
नहीं लगाता इंकलाबी नारे
नहीं देता साथ
और पिसता रहता है
गेहूं के दानों सा
भ्रष्टाचार और सरकारी तंत्र की चक्की में
आवाज़ पर लगे तालों की चाबी को
फेंक आता है दरियाओं में
फिर साथ देने की उससे उम्मीद क्यों और कैसी ?
जब ऐसा मेरा व्यक्तित्व है
जब मैं स्वयं स्वार्थी हूँ
नहीं दिखता मुझे मुझसे ज्यादा कुछ भी
फिर कैसे देख सकता हूँ
देश को और उसकी दुर्दशा को
कैसे कर सकता हूँ आज़ाद
खुद को या देश को
अपनी ही जकड़ी बेड़ियों से
ऐसे में क्या है मेरे लिए महत्त्व स्वतंत्रता का
सिर्फ इतना ही
महज एक दिन की सरकारी छुट्टी
अपनी तरह व्यतीत करने का जरिया
औपचारिकता प्रमाणिक नहीं होती
ये जानते हुए भी
मैं नहीं सोचता अपने देश के बारे में
क्योंकि गुलाम हूँ मैं अभी
अपनी जड़वादी सोच का
गुलाम हूँ मैं अभी
अपने अन्दर बैठे डर का
गुलाम हूँ मैं अभी
अपने लालच का
ऐसे में
"मैं और मेरा देश "
मेरे लिए सिर्फ
एक विषय से इतर क्या हो सकते हैं .........ज़रा सोचिये ?
18 टिप्पणियां:
आज़ादी दिवस के अवसर पर आपकी यह रचना नव-चेतना जगाने में सक्षम है।
राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत कविता...स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामना...
Very nice post.....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.
***HAPPY INDEPENDENCE DAY***
बहुत सुन्दर रचना..स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई..
आपकी रचना दिखाती है कितने आज़ाद है हम . सुन्दर रचना बधाई
स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनाएं
कल 15/08/2012 को आपकी इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
'' पन्द्रह अगस्त ''
बहुत ही शानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
बधाई
इंडिया दर्पण पर भी पधारेँ।
अपने सही कहा है आज जरूरत है अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के लिये अपनी ऊर्जा लगाने की..पर्यावरण के प्रति सजग रहकर, वोट देकर, ईमानदारी से अपना काम करके हर व्यक्ति अपने देश के लिये कुछ न कुछ कर सकता है...स्वतंत्रता दिवस पर शुभकामनायें..
जब हर तरफ यही चीत्कार है
दुत्कार है
तो फिर क्या व्यवधान है .... झुठमुठ गाओ - हम हिन्दुस्तानी !
उत्कृष्ट रचना, स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं
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3. गुलाबी कोंपलें
देश की दशा व्यक्त करती रचना.
देश की दशा बदले यही कामना है..
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
सच में सोचने को मजबूर करती कविता ...शुभकामनाएँ
सोचने पर विवश करती सुंदर रचना
बहुत ही बढ़िया
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
सादर
क्या थे, क्या हो गये..
बहुत सुन्दर रचना के लिए बधाई ............
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
बहुत सुन्दर रचना के लिए बधाई ............
बढ़िया पोस्ट आपको भी हार्दिक शुभकामनायें....
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