कोलाहलों का वटवृक्ष
नीर का क्षीरसागर
जीवन्तता की अचेतावस्था
जैसे कूंडों में दही जमी हो
और खाने वाला कोई ना हो
फिर कौन तो तवे पर रोटी बनाये
और कौन किसे लोरी सुनाये
यहाँ कब्रिस्तान की ख़ामोशी होती
तो सह भी ली जाती
मगर
जीवित मुर्दों की लाशों को कफ़न कौन ओढाये?
नीर का क्षीरसागर
जीवन्तता की अचेतावस्था
जैसे कूंडों में दही जमी हो
और खाने वाला कोई ना हो
फिर कौन तो तवे पर रोटी बनाये
और कौन किसे लोरी सुनाये
यहाँ कब्रिस्तान की ख़ामोशी होती
तो सह भी ली जाती
मगर
जीवित मुर्दों की लाशों को कफ़न कौन ओढाये?
21 टिप्पणियां:
बहुत मार्मिक वंदना जी..
जब विचार जम जाए तो फिर जीवंतता तो मृतप्राय ही है ...
बड़े विरोधाभासी भाव में लिखी है ... विचारणीय प्रस्तुति
एंकाकीपन तब ज्यादा अखरता है जब अपने भी पराये जैसे लगने लगते हैं...बहुत सुन्दर शब्दों में अपने भावो को मुकेरा है बधाई।
जीवित मुर्दों को कफ़न कौन उढाये ...बहुत गहन प्रस्तुति जबरदस्त कटाक्ष
आक्रोशित बिम्बों का बेहतरीन प्रयाग किया है आपने बधाई
यथार्थवादी कविता ...
सार्थकता लिए सटीक अभिव्यक्ति ... आभार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (05-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
आदर्श परिस्थिति जगत में कहीं नहीं है. समझौता करना ही समझदारी है.
इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि हर मुर्दा औरों के सहारे जीना चाहता है।
rukna maut gati jeewan hai.rukne se sadandh aane lagti hai...bicharon ka bhee prabah jaruri hai...bheed me tanhai bahud hee dukhad hai...aapke aaderneeya rashmi jee ke sampadan me prakashit sangrah ke liye hardikk badhayee
अदभुद... क्रन्तिकारी रचना
जाने क्या क्या छुपा है इस रचना के अन्दर....
सादर...
Very nice post.....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.
NICE ONE....
HAPPY FRIENDSHIP DAY....!!!!!!!
जीवित मुर्दों के बीच शायद कोई जिंदा निकल आए कफन ओढ़ाने के लिए !!
क्या कहूँ ?
बस मौन रहना ही अच्छा है.
अनुपम झकझोरती हुई प्रस्तुति.
kafan bhee bikne laga hai aaj
सब तो लाश ही हैं , जिंदा ....
sunder kavita
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