' डाली …मोगरे की ' नाम ही काफ़ी है महकाने को तन मन रूह तक और उस पर यदि हाथ में ले ली जाये तो खुश्बू में सराबोर हुये बिना रह जाये कोई संभव ही नहीं । प्रसिद्ध गज़लकार नीरज गोस्वामी , भूषण स्टील में वाइस प्रेजीडेंट के पद पर कार्यरत , एक भावुक ह्रदय के मालिक के प्रथम गज़ल संग्रह का ही ये नाम है………' डाली …मोगरे की ' । मानो बिखर गयी हों मोगरे की कलियाँ आस पास ही इस तरह गज़लों को संजोया है , हर शेर मारक वार करता हुआ , हर शेर इंसान को इंसान से जोडता हुआ , हर शेर जैसे अपना कहा हुआ सा लगता हुआ एक संजीदगी को समेटे गागर में सागर भर देता है । कभी कभी जो बात बडी से बडी कविता नहीं कह पाती उसे चंद शेरों या गज़लों के जरिये कह देने का हुनर सबमें कहाँ होता है और गज़लकार नीरज को तो जैसे इस विधा में महारत हासिल है । मैं कोई गज़लों के बहर , वज़न , रदीफ़ या काफ़िये को नहीं जानती मगर फिर भी कुछ शेर ऐसे थे जिन्होने सब कहानी कह दी । यूँ तो पूरा गज़ल संग्रह ही संजोकर रखने वाला है क्योंकि हर गज़ल , हर शेर दिल की गहराइयों से निकला हर दिल तक पहुँचता है जो बताता है किसी कसौटी के मोहताज नहीं हम ।
जो खुद को खुद पढवा ले सब काम छुडवा कर उस संग्रह में कुछ तो ऐसा होगा ही जो खास होगा हर आम से बस ऐसा ही कुछ इस संग्रह के साथ हुआ कि इतनी व्यस्त होने के बावज़ूद भी मैने सबसे पहले ये संग्रह पढा और अब खुद के विचार व्यक्त करने से खुद को रोक नहीं सकी ।
गज़ल विधा कभी प्रेम व्यक्त करने की खालिस विधा मानी जाती थी ये तो बाद के वर्षों में उसमे समाजिक स्थितियों ने भी जगह ले ली उसी प्रेम के विभिन्न आयाम देखने को मिले । विरह की वेदना का चित्रण करने मे तो महारत हासिल है उसके साथ यादों की पीर का दस्तक देना और फिर उस दस्तक को शब्दों से सहलाना कोई कवि से सीखे । हर शेर एक मुकम्मल कहानी कहने में सक्षम है। हर शेर में इक दीवानगी है तभी तो घुटन , तड़पन , उदासी , अश्क , रुस्वाई , अकेलापन बिना इश्क की कहानी अधूरी है वैसे तो इश्क शब्द भी अधूरा है तो कहानी कैसे पूरी हो सकती है तभी तो
रात भर खामोश हम चिरते रहे
उठे सैलाब यादों का , अगर मन में कभी तेरे
दबाना मत कि उसका ,आँख से झरना जरूरी है
मुस्कुराते हैं हम तो पी के इन्हें
आप कहते हैं अश्क खारे हैं
तमन्ना थी गुज़र जाता , गली में यार की जीवन
हमें मालूम ही कब था यहाँ मरना ज़रूरी है
याद हर पल तुझको करने , का सिला पाने लगा
मुझको आइना तेरा चेहरा , ही दिखलाने लगा
घुटन , तड़पन , उदासी , अश्क , रुस्वाई , अकेलापन
बगैर इनके अधूरी इश्क की हर इक कहानी है
आज की ज़िन्दगी की एक कडवी सच्चाई को कितनी सहजता से प्रस्तुत कर दिया कि पाठक मन में हलचल मचा गया
तुझ में बस तू बचा है मुझमे मैं
अब के रिश्तों में हम नहीं होता
इक गुज़ारिश है याद जब आओ
आँख से मत मेरी झरा कीजे
लाख कोशिश करो आ के जाती नहीं
याद इक बिन बुलाई सी मेहमान है
जहाँ जाता हूँ मैं तुझको वहीँ मौजूद पाता हूँ
अगर लिखना तुझे हो ख़त तेरा मैं क्या पता लिक्खूँ
लाख चाहो मगर नहीं छुपता
इश्क में बस यही बुराई है
दर्द को महसूस शिद्दत से करो
दर्द में लज्ज़त नज़र आ जायेगी
दर्द को भी जो लज़्ज़त से महसूस करे उस दीवाने को क्या कहिये
याद हर पल तुझको करने , का सिला पाने लगा
मुझको आइना तेरा चेहरा , ही दिखलाने लगा
काफूर हो गए जो मिलने पे थे इरादे
देखा किये हम उन को बस पास में बिठा कर
मानो वासना की सही परिभाषा ही प्रस्तुत कर दी हो और समय से आँख मिला दी हो
जिस्म से चलकर रुके, जो जिस्म पर
उस सफ़र का नाम ही, अब प्यार है
ज़िन्दगी की सच्चाइयों से यदि मुखातिब होना हो और कहने का ढंग भी आता हो तो क्या कहने और इस काम में कवि निपुण है । गहरी मार करता शेर ज़िन्दगी की हकीकतों से परिचित कराते हैं कि कितनी खुदगर्ज़ी समाई है , सब बस कहने भर के साथी हैं या फिर तमाशाई
देखने में मकाँ जो पक्का है
दर हकीकत बड़ा ही कच्चा है
जान ले लो कहा जिसने भी , उसको जब
आज़माया , लगा काटने कन्नियाँ
कौन सुनता है 'नीरज ' सरल सी ग़ज़ल
कुछ धमाके करो तो बजें सीटियाँ
आज के दौर की हकीकत को कितनी साफ़गोई से परोसा है कि पढने वाला चमत्कृत हुए बिना नहीं रहता , हम सिर्फ़ शोर मचाने वाले भांड भर हैं वरना हिम्मत की दहलीजें तो कब की नेस्तनाबूद हो चुकी हैं और विश्वास की डोरों के दूसरे छोरों पर इक आग सुलगती मिल रही है
इस दौर में उसी को सब सरफिरा कहेंगे
जो आँधियों में दीपक थामे हुए खड़ा है
हालात देश के तुम कहते खराब 'नीरज '
तुमने सुधरने को बोलो तो क्या किया है ?
वही करते हैं दवा आग नफरत की बुझाने का
कि जिनके हाथ में जलती हुई माचिस की तीली है
आह ! अब भी कुछ कहने को बचा क्या :)
खिलखिलाता है जो आज के दौर में
इक अजूबे से क्या कम वो इंसान है
मीर , तुलसी , ज़फर , जोश , मीरा , कबीर
दिल ही ग़ालिब है और दिल ही रसखान है
आँधियाँ जब दे रही हों दस्तकें
तब दिए की लौ बचाना सीखिए
आज के दौर की एक सच्चाई ये भी है जिसने कहावतों के अर्थ ही बदल कर रख दिये और अपने ही नये अर्थ बना दिये क्योंकि वक्त जब तारीखें बदल देता है तो दिल पर उग आयी लोकोक्तियों को भी बदलना जरूरी है
डालिये दरिया में यूँ मत नेकियाँ
अब भला करके जताना सीखिए
इस जहाँ में यही झमेला है
झूठ ने सच सदा धकेला है
देश की चिन्ता कवि मन को उसी तरह व्याकुल करती है जैसे एक देशभक्त को या आम इंसान को तभी तो प्रश्न भी उठाते हैं उसके अल्फ़ाज़ आखिर कौन जिम्मेदार है चैन-ओ-अमन को मिटाने को , इंसाँ से इंसाँ को लडाने को , क्यों सहमी ही पीढियाँ जन्म ले रही हैं
रौंद के गुल प्यार के इस मुल्क में
खार नफरत के उगाता कौन है
खौफ का खंजर जिगर में जैसे हो उतरा हुआ
आज का इंसान है कुछ इस तरह सहमा हुआ
खुश्बू फूलों की ही तय करती है उनकी कीमतें
क्या कभी तुमने सुना है , खार का सौदा हुआ
दूर होठों से तराने हो गए
हम भी आखिर को सयाने हो गए
लूट कर जीने का आया दौर है
दान के किस्से , पुराने हो गए
आज के दौर में इंसानी मन में उपजी असंवेदनशीलता का प्रत्यक्ष उदाहरण बन उभरे हैं ये शेर जो ना केवल व्याकुल करते हैं बल्कि कहीं दिशा भी देते हैं तो कहीं रिश्तों की अहमियत भी समझाते हैं ।
साथ बच्चों के गुज़ारे पल थे जो
बेशकीमत वो ख़ज़ाने हो गए
तुम जिसे थे कोख ही में मारने की सोचते
कल बनेंगी वो सहारा देख लेना बच्चियाँ
खोल कर रखिये किवाड़ों को सदा
फिर ख़ुशी न लौट जाने पायेगी
कभी ज़माना था जब रिश्तों के लिये ही जीया जाता था और आज के दौर में जैसे सभी अजनबी हो गये हैं ऐसे में माँ की अहमियत को बडी संज़ीदगी से उकेरा है
भले हो शान से बिकता बड़े होटल या ढाबों में
मगर जो माँ पकती है , वही पकवान होता है
वक्त और हालात हमेशा एक से नहीं रह्ते और बदलते हालात के साथ जो खुद की खुद्दारी को ज़िन्दा रखे उसका जीना ही वास्तव में जीना होता है तभी तो कवि कहता है
जहाँ दो वक्त की रोटी , बड़ी मुश्किल से मिलती है
वहाँ ईमान का बचना , समझ वरदान होता है
गहरे दिए हैं जब से , यारों ने ज़ख्म मुझको
दुश्मन की याद तब से , मुझ को सता रही है
बचपन की यादों संग डोलता कवि मन संयुक्त परिवार की महत्ता को तो दर्शाता ही है साथ ही बच्चे पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ डालना कैसे उनके बचपन को लील रहा है उसे भी व्यक्त करता है ।
घोंसलों में परिंदे , जो महफूज़ थे
छोड़ कर घोंसले , हाथ मलने लगे
जब तलक है पास कीमत का पता चलता नहीं
आप उनसे पूछिए जो दूर हैं परिवार से
दौड़ता तितली के पीछे , अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा , होड़ में है खो दिया
माँ बाप को न पूछा कभी जीते जी मगर
दीवार पे उन्ही का है फोटो सजा लिया
सारी खुशियों को लील जाती है
होड़ सबसे अधिक कमाने की
ज़िन्दगी की राह में हो जाएँगी आसानियाँ
मुस्कुराएँ याद कर बचपन की वो शैतानियाँ
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना ठीक नहीं
राजनीति के हथकंडों से भी कवि मन अछूता ना रह सका और आखिर अपने दिल की बात बहुत ही तहज़ीब से व्यक्त कर दी
हाथ में फूल दिल में गाली है
ये सियासत बड़ी निराली है
भूलता है ईमानदारी को
पेट जिसका जनाब खाली है
बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना ठीक नहीं
बोलकर सच यही सुना सबसे
यार तेरी ज़बान काली है
पहले तो सबका इक ही था
अब सबका अपना अपना रब
बेगानेपन का सटीक उदाहरण बन गया है ये शेर :
हालत तो देखो इंसां की
खुद से ही डरता है वो अब
जो भी आता हाथ नहीं
लगता है अनमोल मियाँ
कवि ने कुछ बहुत ही सटीक कबीर सी वाणी प्रस्तुत की है जो ज़िन्दगी जीने में सरलता पेश करेगी ऐसा विश्वास है
भला करता है जो सबका , नहीं बदले में कुछ पाये
कहाँ पेड़ों को मिलते हैं , कभी ठन्डे घने साये
तल्खियां दिल में न घोला कीजिये
गाँठ लग जाए तो खोला कीजिये
दिल जिसे सुन कर दुखे हर एक का
सच कभी ऐसा न बोला कीजिये
यूँ जहाँ से निकाल सच फेंका
जैसे सालन में कोई बाल रहा
पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ये कैदे कफस भी तो भाती नहीं है
तुम चाहतों की डोरी इतनी भी मत बढ़ाना
घिर जाय आँधियों में दिल की पतंग जा कर
आज असंवेदनशीलता की कगार पर पहुँचे रिश्तों का इससे बेहतर चित्रण और क्या होगा भला ………स्वीकार लो जो है जैसा है कम से कम अजनबीयत से दूर ही सही इक रिश्ता तो है
तलाशो मत तपिश रिश्तों में यारों
शुकर करिये अगर वो गुनगुने हैं
जी हजूरी जब तलक है तब तलक वो आपका
फेर लेता है नज़र जब भी हों ना - फर्मानियाँ
नाम तो लेता नहीं मेरा मगर लगता है ये
रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से
भूख से बिलबिलाते लोगों को
कायदे मत सिखाइये साहब
शिद्दत से है तलाश मुझे ऐसे शख्स की
इस दौर में है जिसने भी ईमाँ बचा लिया
गैर का साथ गैर के किस्से
ये तो हद हो गई सताने की
साथ फूलों के वो रहा जिसने
ठान ली खार से निभाने की
दौड़ हम हारते नहीं लेकिन
थम गए थे तुझे उठाने को
कुछ नहीं देती है ये दुनिया किसी को मुफ्त में
नींद ली बदले में जिसको रेशमी बिस्तर दिए
आईना दिखाती गज़लें इंसानी फ़ितरत पर भी तीखा वार करती हैं और सोच के किवाडों पर भी दस्तक देती हैं
सांप को बदनाम यूं ही कर रहा है आदमी
काटने से आदमी के मर रहा है आदमी
हैवानियत हमको कभी मज़हब ने सिखलाई नहीं
हमको लड़ाता कौन है ? ये सोचा है लाज़िमी
देश के हालात बदतर हैं, सभी ने ये कहा
पर नहीं बतला सका , कोई भी अपनी भूमिका
छोड़िये फितरत समझना , दुसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है , सच बता
देखिये जिसको , वाही मगरूर है
मौत को , शायद समझता दूर है
धुल झोंकी है उसी ने , आँख में
हम जिसे कहते थे , इनका नूर है
तय किया चलना जुदा जब भीड़ से
हर नज़र देखा , सवाली हो गई
संपूर्ण गज़ल संग्रह मानो ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा है जिसे जिसने गुना उसी ने जाना क्या वक्त ने उसमें लिखा है । जब पहली बार इस गज़ल संग्रह को खोलकर हाथ में लिया तभी मदहोश कर दिया ।
हर पन्ने पर मोगरा बिखरा हुआ और उस मोगरे पर गज़ल का लिखा जाना एक अलग अन्दाज़ को प्रस्तुत करता है और फिर ' मोगरे' इस शब्द से तो मेरा बहुत ही पुराना नाता रहा है जिसे आप सब से शेयर किये बिना जाने क्यों रह नही पा रही मेरे पिताजी के मामा थे उन्हें घर में सबके अलग अलग नाम रखने का शौक था और कभी किसी को उसके ओरिजिनल नाम से नही बुलाते थे और मज़े की चीज़ हमारा संयुक्त परिवार इतना बडा था कि कम से कम 50 लोग तो घर के ही होंगे और वो सबके अलग ही नाम रखते किसी के प्रिंस या प्रिंसेस या लार्ड या प्रैज़ीडेंट आदि लगाकर एक नया शब्द जोड देते थे और मैं तो उस वक्त बहुत ही छोटी थी जब मुझे उन्होने 'मोगरा' नाम दिया जिसका अर्थ मैं नहीं जानती थी मगर मुझे ये शब्द भी अच्छा नहीं लगता था और कभी इसका अर्थ किसी से पूछा भी नहीं । वो जब भी कहते "ये तो मरा मोगरा है मोगरा " तो मुझे लगता जैसे कितना गन्दा सा नाम दिया है मामा ने मुझे । रिश्ते के अनुसार तो बाबा कहना चाहिये था मगर वो हम सबके जगत मामा थे तो क्या बच्चे क्या बडे सभी उन्हें मामा कहते थे । यहाँ तक कि वो जब नहीं रहे तब तक भी मुझे मोगरे का अर्थ पता नहीं चला और उसके बाद तो जैसे मैं ये शब्द भी भूल सी गयी मगर जिस दिन से नीरज जी के ब्लोग पर उनके ब्लोग का ये नाम पढा और फिर किताब का तब जाना मोगरे का असली अर्थ जिसने मुझे मोगरे की भीनी सी खुश्बू से सराबोर कर दिया कि कितना सुन्दर नाम दिया था मामा ने मुझे सोच कर आज भी आँखें नम हो जाती हैं और ऐसे में जब नीरज जी की ये किताब हाथ में आयी और उन्होने इतने प्रेम और स्नेह से भिजवायी तो एक बार फिर ना केवल अपने बचपन से जुड गयी बल्कि मोगरे की महक से सराबोर हो गयी । सिर्फ़ इसलिये कह देना कि मोगरे शब्द से मेरा बचपन का नाता है इसलिये अच्छा कह रही हूँ ऐसा नहीं है बल्कि ये संग्रह वास्तव में दिल को छूने वाला , दिल में उतरने वाला और भविष्य में गज़ल की दुनिया में अपनी एक पहचान बनाने वाला साबित होगा ऐसी मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है। नीरज जी को संग्रह के लिये बधाइयाँ और शुभकामनायें देते हुये उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ ।
हर पन्ने पर मोगरा बिखरा हुआ और उस मोगरे पर गज़ल का लिखा जाना एक अलग अन्दाज़ को प्रस्तुत करता है और फिर ' मोगरे' इस शब्द से तो मेरा बहुत ही पुराना नाता रहा है जिसे आप सब से शेयर किये बिना जाने क्यों रह नही पा रही मेरे पिताजी के मामा थे उन्हें घर में सबके अलग अलग नाम रखने का शौक था और कभी किसी को उसके ओरिजिनल नाम से नही बुलाते थे और मज़े की चीज़ हमारा संयुक्त परिवार इतना बडा था कि कम से कम 50 लोग तो घर के ही होंगे और वो सबके अलग ही नाम रखते किसी के प्रिंस या प्रिंसेस या लार्ड या प्रैज़ीडेंट आदि लगाकर एक नया शब्द जोड देते थे और मैं तो उस वक्त बहुत ही छोटी थी जब मुझे उन्होने 'मोगरा' नाम दिया जिसका अर्थ मैं नहीं जानती थी मगर मुझे ये शब्द भी अच्छा नहीं लगता था और कभी इसका अर्थ किसी से पूछा भी नहीं । वो जब भी कहते "ये तो मरा मोगरा है मोगरा " तो मुझे लगता जैसे कितना गन्दा सा नाम दिया है मामा ने मुझे । रिश्ते के अनुसार तो बाबा कहना चाहिये था मगर वो हम सबके जगत मामा थे तो क्या बच्चे क्या बडे सभी उन्हें मामा कहते थे । यहाँ तक कि वो जब नहीं रहे तब तक भी मुझे मोगरे का अर्थ पता नहीं चला और उसके बाद तो जैसे मैं ये शब्द भी भूल सी गयी मगर जिस दिन से नीरज जी के ब्लोग पर उनके ब्लोग का ये नाम पढा और फिर किताब का तब जाना मोगरे का असली अर्थ जिसने मुझे मोगरे की भीनी सी खुश्बू से सराबोर कर दिया कि कितना सुन्दर नाम दिया था मामा ने मुझे सोच कर आज भी आँखें नम हो जाती हैं और ऐसे में जब नीरज जी की ये किताब हाथ में आयी और उन्होने इतने प्रेम और स्नेह से भिजवायी तो एक बार फिर ना केवल अपने बचपन से जुड गयी बल्कि मोगरे की महक से सराबोर हो गयी । सिर्फ़ इसलिये कह देना कि मोगरे शब्द से मेरा बचपन का नाता है इसलिये अच्छा कह रही हूँ ऐसा नहीं है बल्कि ये संग्रह वास्तव में दिल को छूने वाला , दिल में उतरने वाला और भविष्य में गज़ल की दुनिया में अपनी एक पहचान बनाने वाला साबित होगा ऐसी मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है। नीरज जी को संग्रह के लिये बधाइयाँ और शुभकामनायें देते हुये उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ ।
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शिवना प्रकाशन
पी सी लैब , सम्राट काम्प्लैक्स बेसमैंट
बस स्टैंड , सीहोर - 46601 ( म प्र )
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फोन : 07562405545, 07562695918
E-MAIL : shivna.prakashan@gmail.com
E-MAIL : shivna.prakashan@gmail.com
7 टिप्पणियां:
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति...
prathamprayaas.blogspot.in-
Very Interesting
by neeraj goswami
लेखन की सार्थकता तब है जब वो पाठक के दिल तक पहुंचे। आपकी समीक्षा ने मेरे लेखन को सार्थक कर दिया। आभार के लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा है। स्नेह बनाये रखें।
नीरज
Vandana ji main ye comment aapke blog par post nahin kar pa raha...kripya madad karen.
बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
बड़ी ही सुन्दरता से समीक्षा की है आपने।
वंदनाजी...हम थोड़ा फंस गए अखबार में सो ब्लाग पर अपडेट न रह सके। आपको फेसबुक के जरिए सनेस भेजा मगर प्रतिक्रिया कोई न मिली। क्या संवाद मौन ही रहेगा।
मोगरे के फूलों का आनंद तो लंबे समय से जे रहा था, डीली से परिचय नया नया हुआ है। जितनी खूबसूरत ग़ज़ल हैं इतना ही आकर्षक प्रकाशन।
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