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शनिवार, 23 जनवरी 2016

दस्तकें

तुम्हारे आश्वासनों की दहलीज पर
बैठी रही आस मेरी ताकते हुए
दरवाज़ा खुला रखा था मैंने

तुमने नहीं आना था
तुम नहीं आये
और अब
आस की गुलाबी दहलीज पर
सन्नाटों के शहर में
लगी आग से
कौतुहल में मत पड़ना
रिवाज़ है अपने अपने शहर का
रस्मों को जिंदा रखने का

हाँ , रस्म है ये भी
आस के बिलबिलाते पंछी को सांत्वना देने की
कर लो तुम भी दरवाज़ा बंद
कि
पहर पिछले हों या अगले
दस्तकें , बंद दरवाज़ों पर ही हुआ करती हैं

3 टिप्‍पणियां:

Dr ajay yadav ने कहा…

आस बनी रहनी चाहियें |

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गहन, आशान्वित बन जीवन जीना।