स्त्री होने से पहले और स्त्री होने के बाद भी
बचती है एक अदद कविता मुझमे
अब बाँचनी है वो कविता
जिसमे मैं कहीं न होऊँ
फिर भी मिल जाऊँ
पेड़ों की छालों पर ,
गली के नुक्कड़ पर
ख्वाब के डैने पर
साँझ की पायल में
सुबह की झंकार में
एक राग पूरब से पश्चिम तक के सफर का बनकर
एक संगीत का अबूझा स्वर बनकर
खुले केशों पर गिरती शबनम बनकर
किसी आस की थिरकन बनकर
नृत्य गायन और वादन के
सभी नियमों में ढलकर
चन्दन के पालने में झूलते शिशु की लोरी बनकर
आल्हाद का आखिरी स्वर बनकर
रेशम के कीड़े का रेशा बनकर
किसी किशोरी की जीभ का चटकारा बनकर
क्या संभव होगा
मेरे न होने में मेरा होना
और एक न बाँची गयी कविता का पढ़ा जाना बिना शब्दों के ……
2 टिप्पणियां:
अति उत्तम प्रस्तुति।
सुंदर कथ्य व कविता...
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