आ जाओ या बुला लो
इन्ही रूई के फाहों सम
कि
पिघल न जाऊँ
गुजरे वक्त के साथ
फिर तुम आवाज़ दो तो भी आ न सकूँ
कि
यादों के आगोश में
इक बर्फ अब भी पिघलती है
क्या नम नहीं हुईं तुम्हारी हथेलियाँ
यूँ कि ये
बर्फ के गिरने का समय है
या
तुम्हारी यादों का कहर
गोया अनजान तो नहीं होंगी तुम
जानता हूँ मैं
आ जाओ या बुला लो
वक्त के फिसलने से पहले ...
पहली पंक्ति विजय सपत्ति से साभार
डिसक्लेमर :
इन्ही रूई के फाहों सम
कि
पिघल न जाऊँ
गुजरे वक्त के साथ
फिर तुम आवाज़ दो तो भी आ न सकूँ
कि
यादों के आगोश में
इक बर्फ अब भी पिघलती है
क्या नम नहीं हुईं तुम्हारी हथेलियाँ
यूँ कि ये
बर्फ के गिरने का समय है
या
तुम्हारी यादों का कहर
गोया अनजान तो नहीं होंगी तुम
जानता हूँ मैं
आ जाओ या बुला लो
वक्त के फिसलने से पहले ...
पहली पंक्ति विजय सपत्ति से साभार
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©वन्दना गुप्ता vandana gupta इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर ...
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