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गुरुवार, 26 जुलाई 2018

और मैं .... शर्मिंदा हूँ

मेरे चेहरे पर एक जंगल उगा है
मतलबपरस्ती का
मेरी दाढ़ों में माँस अटका है
खुदगर्जी का
आँखों पर लगा है चश्मा
बेहयाई का

मारकाट के आईने में
लहू के कतरे
सहमा रहे हैं पूरी सभ्यता को
भूख के ताबीज चबा रही हैं
आने वाली पीढ़ियाँ
कोहराम और ख़ामोशी के मध्य
साँसों की आवाजाही
ज़िन्दगी की बानगी नहीं

क्या दिखाई देते हैं तुम्हें इसमें
जीवन के चिन्ह
आज पूछ रहा है देश मेरा

और मैं .... शर्मिंदा हूँ



©वन्दना गुप्ता vandana gupta