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गुरुवार, 5 नवंबर 2009

मत ढूँढ बाहर

उस एक स्वरुप में
क्यूँ न खोजा तूने
जो दूसरे में पाना
चाहता है
मानव तू क्यूँ
भटकना चाहता है
भावों के दलदल में
क्यूँ धँसता जाता है
तेरे हर ख्वाब की
ताबीर वहीँ है
हर चाहत का
हासिल वही है
हर राह की
मंजिल वही है
फिर क्यूँ तू
मरुभूमि में
जल के कण
ढूंढ़ना चाहता है
क्यूँ सागर से
प्यास बुझाना
चाहता है
तेरा चाँद तेरे साथ है
फिर क्या भटकने की बात है
खोज , जो खोजना है
पा , जो पाना चाहता है
दे , जो देना चाहता है
मगर सिर्फ़
उसी स्वरुप में
उसी दिव्य रूप में
जो तेरे साथ है
तेरे पास है
फिर क्यूँ तुझे
झूठे प्यार की तलाश है
मृगतृष्णा को छोड़
उस कच्चे धागे की
डोर से बंधकर
तो देख एक बार
हर ओर
रौशनी होगी
सितारों सी चमक होगी
बहारों की महक होगी
मत ढूंढ बाहर कहीं
तेरा महबूब
उसी स्वरुप में
तुझे मिल जाएगा
जिसे तूने कभी
चाहने की कोशिश न की
जिसके अंतस में
दिया कभी जलाया ही नही
एक बार
तू कोशिश तो कर
फिर दूसरा न कोई रूप
दूसरा न कोई स्वरुप
तुझे दिख पायेगा
तेरा अपना महबूब ही
उसमें मिल जाएगा
तू एक बार
उसके अंतस में
उतर कर तो देख

20 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

waah !!
sahi likha hai aapne

ek achchhi rachna

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

मगर सिर्फ
उसी स्वरुप में ,
उसी दिव्य रूप में
जो तेरे साथ है
तेरे पास है
फिर क्यों तुझे
झूठे प्यार की तलाश है

बहुत सुन्दर भाव एक सन्देश देते हुए !

ओम आर्य ने कहा…

bahut hi alag andaj laga isbar aapaka ........behad sundar abhiwyakti.

सदा ने कहा…

बहुत ही गहरे भावों के साथ भावपूर्ण रचना, बधाई ।

अजय कुमार ने कहा…

तेरा अपना महबूब ही
उसमें मिल जाएगा
तू एक बार
उसके अंतस में
उतर कर तो देख
महबूब को पाना है तो ह्रदय में उतरना ही पड़ेगा

वाणी गीत ने कहा…

कस्तूरी कुंडली बसे मृग ढूंढे जग माही ..!!

सुशील छौक्कर ने कहा…

बहुत गहरे में जाकर लिखने लगी है आप। और जो लिखा है वो सच भी लिखा है। पर ना जाने क्यों आदमी को सबकुछ पता है पर फिर भी भटकता है। और शायद यही जिदंगी का फलसफा है।
बहुत अच्छा लिखा है आपने।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

एक बार
तू कोशिश तो कर
फिर दूसरा न कोई रूप
दूसरा न कोई स्वरुप
तुझे दिख पायेगा
तेरा अपना महबूब ही
उसमें मिल जाएगा
तू एक बार
उसके अंतस में
उतर कर तो देख

बहुत सुन्दर भाव पूर्ण अभिव्यक्ति लिखी है।
जितनी वार रचना पढ़ता हूँ
उतना ही आनन्द देती है।
बधाई!

M VERMA ने कहा…

उस एक स्वरुप में
क्यूँ न खोजा तूने
जो दूसरे में पाना
चाहता है
गूढार्थ की यह रचना और अभिव्यक्ति सार्थक है

नीरज गोस्वामी ने कहा…

अद्भुत शब्द और भाव लिए आपकी ये रचना विलक्षण है...बधाई...
नीरज

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

isliye ki MANAV he.
MAANAV he to saare janjaal bhi he.
vese aapki rachna yatharthvadi he. achhi he.

Mithilesh dubey ने कहा…

वाह जी क्या बात है। लाजवाब रचना, बहुत-बहुत बधाई

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर!!अपने भीतर उतर कर लिखी है यह रचना।अच्छी लगी।

Deepak Tiruwa ने कहा…

aaj kaafi dinon baad aapke blog par aana huaa sundar rachna ke liye badhaayi श्रीमती के नाम ghazal

kishore ghildiyal ने कहा…

waah bada sundar likha hain aapne

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

वंदना जी प्यार एक ऐसी चीज़ है जिसे चाह कर भी जबरदस्ती नहीं किया जा सकता ...हाँ अपने फर्जों को निभाते रहिये इतना तो कर ही सकते हैं .....!!

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

ये जिंदगी तो एक अनंत खोज है जो चलती रहती है!हम किसी ना किसी तलाश में जीवन भर भटकते रहते है मृग मरीचिका की सी तलाश में..

!!अक्षय-मन!! ने कहा…

वाह खुद को आइना दिखाती रचना खुद देखती जीवन एक ऐसी रचना इस रचना मे मे क्या देखूं ये रचना तो खुद ही इतनी प्रभावशाली है जिसके सामने मेरे शब्द कम पड़ जाते हैं........काफी समय बाद आया तो अच्छा लगा.......उम्मीद है आपको भी लगा होगा....थोडा अन्दर से भी मन परेशां था इसलिए आ नहीं पाता था


माफ़ी चाहूंगा स्वास्थ्य ठीक ना रहने के कारण काफी समय से आपसे अलग रहा

अक्षय-मन "मन दर्पण" से

Arshia Ali ने कहा…

कविता के बहाने आपने बहुत गहरे भाव कह दिये हैं।
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11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?

pooja ने कहा…

लाजवाब रचना.....बहुत सुन्दर....keep it up