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सोमवार, 10 जनवरी 2011

मुझे तो इंसान अभी अभी मिला

वो कहते हैं इंसान कहीं खो गया
मगर मुझे तो अभी अभी मिला


अलमस्त,बदमस्त ,बेफिक्र सा
सारे जहाँ को दामन में लपेटे हुए
दुनिया को मुट्ठी में कैद करता हुआ
जनहु ऋषि सा ओक में पीता हुआ
गंगा को अपवित्र करता हुआ
अपने हाथ में भगवान पकडे हुए
ऊँगली के इशारे पर नचाता हुआ सा
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला


एटम बम बनाता हुआ

संसार को दाढ़ों में चबाता हुआ
मानवता को मसलता हुआ
शैतान को मात करता हुआ
आगे बढ़ने की चाह में
अपनों के सिर कुचलता हुआ
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला


जीने के नए मानक गढ़ता हुआ
पीर पैगम्बर से ना डरता हुआ

अमनोचैन को नेस्तनाबूद करता हुआ 
खुद को खुदा समझता हुआ 
मरे हुए को और मारता हुआ 
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला

40 टिप्‍पणियां:

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

बहुत अच्‍छी रचना है बधाई।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज इंसान की यही पहचान बन गयी है ...बहुत सही अभिव्यक्ति

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

अलमस्त,बदमस्त ,बेफिक्र सा
सारे जहाँ को दामन में लपेटे हुए
दुनिया को मुट्ठी में कैद करता हुआ

ye insaaan waise agar aaj ke paripekshya me dekhen to naye naye ayam gadh raha hai..........:)

lekin kash aman naam ka pakshhi bhi saath me rahta to....to ye duniya kitni rangili hoti...:)


ek shandaar rachna...

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

yahi to hai tathakathit insan,haivaniyat ki sari haden par karta hua...
sachchai ki sundar bhav-prastuti.

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

वंदना जी,
दिल को चीर देने वाले बहुत ही सार्थक,विचारोत्तेजक व्यंग्य से लबालब भरी है आपकी कविता !
मेरा साधुवाद स्वीकार करें !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

न जाने कहाँ ले जायेगी यह मानसिकता।

deepti sharma ने कहा…

mujhe to insan abhi abhi mila
bahut sunder sabd
sunder rachna...

mere blog par
"main"

बेनामी ने कहा…

रचना बहुत सुन्दर है!
इनसानों की भीड़ में इनसान कहीं खो गया है!

राज भाटिय़ा ने कहा…

अजी यह इंसान के रुप मे कोई ओर होगा, आज का इंसान तो किसी कोने मे बेठा सब कुछ देख रहा हे...
बहुत अच्छी ओर तीखा व्यंग करती रचना धन्यवाद

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

ऐसा इंसान न तो हुआ है और न हो सकता है जो इन सब को समाहित किये हो .
हाँ ऐसे इंसान के कुछ अंश किसी न किसी रूप में दिख ही जाते हैं.

सादर

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

वंदना जी, बहुत प्‍यारी बात कही। अच्‍छा लगा इसे पढना।

---------
कादेरी भूत और उसका परिवार।
मासिक धर्म और उससे जुड़ी अवधारणाएं।

#vpsinghrajput ने कहा…

एटम बम बनाता हुआ
जहाँ को दाढ़ों में चबाता हुआ
मानवता को मसलता हुआ
शैतान को मात करता हुआ
आगे बढ़ने की चाह में
अपनों के सिर कुचलता हुआ



बहुत अच्‍छी रचना है बधाई।

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

इंसान और इंसानियत का वास्तविक चेहरे को आपने अनावृत्त किया है।
यथार्थपरक रचना।

M VERMA ने कहा…

इंसान की बदलती परिभाषा को रेखांकित करती रचना
सामयिक और सुन्दर

Sushil Bakliwal ने कहा…

आज के इन्सान की सही पहचान.

Sunil Kumar ने कहा…

इंसान की यही पहचान है ,अच्‍छी अभिव्यक्ति...

Kunwar Kusumesh ने कहा…

अब इन्सान ऐसा ही है

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι ने कहा…

बहुत ही सुन्दर ,समसामयिक, सच्ची और सार्थक अभिव्यक्ति, बधाई।

संजय भास्‍कर ने कहा…

वंदना जी,
नमस्कार !
.बहुत सही अभिव्यक्ति एक अच्छी और सामयिक प्रस्तुति ! बधाई

बेनामी ने कहा…

वंदना जी,

आपकी बेहतरीन रचनाओं में शुमार करता हूँ मैं इस रचना को.....बहुत ही ज़बरदस्त कटाक्ष किया है आपने आज के इंसान पर......बहुत खूब|

राजेश उत्‍साही ने कहा…

जो आपको मिला वह इंसान नहीं आदमी है। इंसान जहां है वह बेचारा इसी बात पर परेशान है कि आदमी ने उसे अपने में अलग कर दिया है।

सदा ने कहा…

बेहतरीन शब्‍दों का संगम इस रचना में ।

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

बदलते जीवन मूल्यों के प्रति सचेत करती कविता बेहद प्रभावशाली बनी है... सामाजिक सरोकार की सुन्दर कविता...

nilesh mathur ने कहा…

वाह! क्या बात है! बेहतरीन अभिव्यक्ति !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

ये आज का सभ्यता के शिखर पर चढ़ा मानव (इंसान है ), सुन्दर रचना !

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सही लिखा, एकदम सही तस्वीर पेश की है आज के इंसान की.

Dr.J.P.Tiwari ने कहा…

मैंने एक बार लिखा था मुश्किल हो गया है आदमी को परिभाषित करना.....लेकिन आज हमें वह परिभाषा मिल गयी सचमुच यह आदमी ऐसा ही हो गया हिया.. क्या फिर वैसा हो पायेगा जैसा हम सब की अभिलाषा है? आखिर मानवीय मूल्यों का क्षरण इथी तेजी से क्यों हो रहा है..? इसे तो अच्छा हो हमारी आकृति ही बदल जाय माना शरीर केवल उनका रहे जिसके अन्दर मानवता हो...यह विधा यदि विकसित हो जाय तो कुरूपता के भय से ही शायद बदलाव आ पाए क्योकि आदमी कुरूप दिखना पसंद नहीं करेगा हर हालाद में सुन्दर दीखने के लिए उसे आंतरिक सौदर्य जगाना ही पडेगा काश! विज्ञान ऐसा कुछ कर दे. परन्तु ये भाई लोग उसे जीवित भी छोड़ेंगे क्या? बहुत बहुत आभार ....

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

इन्सान को खोजना आज के युग में सच मुश्किल है......... सुंदर व्यंग्य.
.
सृजन - शिखर

वाणी गीत ने कहा…

इंसान जो आपको मिला उसकी शक्ल बदल गयी है ...शैतान ही मिला आपको इंसान के वेश में ...

वर्तमान पर अच्छी कविता !

Arun sathi ने कहा…

lajbab

Minakshi Pant ने कहा…

sundar rachna bdhai dost

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

ऐसे इंसान बहुत कम मिलते है।

---------
बोलने वाले पत्‍थर।
सांपों को दुध पिलाना पुण्‍य का काम है?

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

आप कैसी हैं? मैं आपकी सारी छूटी हुई पोस्ट्स इत्मीनान से पढ़ कर दोबारा आता हूँ...

Anupama Tripathi ने कहा…

अलमस्त,बदमस्त ,बेफिक्र सा
सारे जहाँ को दामन में लपेटे हुए
दुनिया को मुट्ठी में कैद करता हुआ

ऐसे लोगों की संख्या बढाती जा रही है -
सच का बोध कराती हुई सुंदर अभिव्यक्ति
बधाई एवं शुभकामनाएं

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

बेहद सुन्दर रचना .. अच्छी पोस्ट है.. सुन्दर कविता .. आज चर्चामंच पर आपकी पोस्ट है...आपका धन्यवाद ...मकर संक्रांति पर हार्दिक बधाई

http://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/blog-post_14.html

विशाल ने कहा…

गिरती हुई इंसानियत का खूबसूरत चित्रण है आपकी रचना.

mridula pradhan ने कहा…

insan ki saprsang vyakhya bahut achchi tarah kar di aapne.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

बदलते परिवेश और रिश्तों के बदलते रूप ने मनुष्य को जहां ला खड़ा किया है ...वहाँ इंसान ढूंढना सच में मुर्खता है ....

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

वाह वंदना जी,
आज समाज के ज़्यादातर इंसान की ऐसी ही स्थिति हो चली है...
बहुत अच्छी रचना है.

निरंजन मिश्र (अनाम) ने कहा…

सभी पाठको को सूचित किया जाता है कि पहेली का आयोजन अब से मेरे नए ब्लॉग पर होगा ...

पुराना ब्लॉग किसी कारणवश खुल नहीं पा रहा है

नए ब्लॉग पर जाने के लिए यहा पर आए
धर्म-संस्कृति-ज्ञान पहेली मंच.