"खामोशी से पहले "---------अमृता प्रीतम
इसमे अमृता का दूसरा ही रूप नज़र आयेगा मोहब्बत से इतर भी एक अमृता थी जो खुदा से मिल खुदा ही बन गयी थी
पुस्तक मेले से अमृता को साथ ले आयी और उसकी "खामोशी से पहले" के सफ़र को गुनने लगी । शायद अमृता ने वो सब पा लिया था जो अन्तिम यात्रा से पहले का जरूरी सामान होना चाहिये ……पूरा सामान इकट्ठा कर लिया था अन्तिम पडाव का ………खुद को पा चुकी थी ………अब किसी दरवेश की ना उसे जरूरत थी …………नूर की बूँद उसके माथे पर बिन्दिया बन दमक रही थी जहाँ काया का नमक भी घुल गया था और उसकी मोहब्बत के धागे बीज दीक्षा के साथ ही काया की किताब मे दुआ बन झलक रहे थे ………अब किसी पीर की जरूरत नही थी उसने शायद वो राह खोज ली थी जहाँ स्वंय से सम्वाद हो सकता था और करती थी वो ………मिलती थी खुदा की शीतलता बरसाती किरणों की दीवानगी से ………अब उसका शहर बदल चुका था मगर मंज़िल पर पहुँच कर फ़र्क नही पडता …………ये ऐसा सफ़र था अमृता का जहाँ मुझे लगा कि बस अब इसके आगे तो और कुछ हो ही नही सकता …………हम सब इसी राह की कशिश मे ही तो जी रहे हैं और खोज रहे हैं अपनी अपनी मंज़िलें …………और अमृता मंज़िल पा चुकी थी शायद तभी "खामोशी से पहले" का सफ़र भी अंकित कर दिया।
पा चुकी थी वो अपने "घर का पता" जिसकी बानगी उनकी इस कविता में दिखती है जहाँ उनका अपने खुदा से संवाद हो रहा है मन के घोड़ों को बाँध दिया है और घर का पता उसे मिल गया है जिसने खुद को जान लिया हो उसे और कुछ जानना नहीं रहता ,जिसने उसे पा लिया हो उसे और कुछ पाना बाकि नहीं रहता और अमृता हर मील के पत्थर को पार कर चुकी थी अगर उनकी ये किताब पढ़ी जाए तो यही लगेगा कोई फकीर अपनी बोली में इबादत कर रहा है .........अब पता नहीं खुद की या खुदा की ............ये संवाद यूँ ही नहीं होता कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में जब खुदा दस्तक देता है तभी लफ़्ज़ों में उतरता है ........
और बंद घरों को देखती
एक गली से गुजरी
ले जाने ------मन में क्या आया
मैंने एक दरवाज़े को खटखटाया
मैं नहीं जानती ---------वह कौन था
दरवाज़े पर आया ,बोला-----
तू आ गयी ----------कई जन्मों के बाद
मैं उसकी ओर देखती रही
पहचाना नहीं, पर लगा
खुदा का साया ...........जमीन पर आया है
यह रहस्य नहीं पाया
पर एक सुकून सा बदन में उतार आया
कहा -------जिस शाह से आई हूँ
तुम नहीं जानते
वह हँस दिया , कहने लगा ------जनता हूँ
मैंने पूछा ------अगर जानते हो----
तो उस घडी कहाँ थे ?
कहने लगा --------वहीँ था ,जब-----
बेलगाम घोड़े से उतारा
घोड़े कि पकड़ से छुड़ाया
अँधेरे में रास्ता दिखाया
फिर इस द्वार पर रोक लिया
और तुम्हें
तेरे घर का पता दिया -------
सारी ज़िन्दगी का कहो या जन्मों की भटकन का अंत यहीं तो होता है और इस किताब को पढ़कर लगा शायद अमृता की भटकन समाप्त हो चुकी थी उसे उसके घर का पता मिल चुका था ...........यूँ ही नहीं "ख़ामोशी से पहले" के सफ़र का आगाज़ हुआ .
पता है ऐसा लगा जैसे खुद को पढ़ रही होऊं इसलिए ये किताब ज्यादा करीब सी लगी और अमृता को खुद में रेंगता सा पाया मैंने
(ग्रीन कलर में जो शब्द हैं वो अमृता की कविताओं के शीर्षक हैं .......)
18 टिप्पणियां:
amrita jee ko sadar naman!!
padh kar achchha laga, ek kavi hriday kaise ek bade kaviyatri ke liye kuchh shabd arpit kar raha hai:)
बहुत ख़ूबसूरती से नाज़ुक पत्ते सी भावनाओं को लिखा है ...
आभार |
जीवन की भटकन और जीवन से भटकन का अन्त एक हो जाता है।
हाँ , सच तो कहा तुमने वंदना , हम सभी में एक अमृता है , एक इमरोज है , एक मोहब्बत है और एक खुदा भी तो है न.
बड़ी खूबसूरती से अमृता प्रीतम की कविताओं के माध्यम से उनकी यादों को समेटा है
padhkar bahut achcha laga.aabhar.
एक अच्छी पुस्तक का अच्छा परिचय।
वापस याद दिला दी आपने उनकी कविताओ की
jivan ke darshan se smahit post. aabhr.
बेहतरीन नज़्म और बेहतरीन विवेचना..अमृताजी को उनकी लेखनी मैं आप हमेशा तलाशें और हमें ऐसी ही सुंदर नज़्म पढने को मिलती रहें..
सुन्दर विवेचना!
अमृता जी की रचनाएँ तो बहते हुये पानी की तरह हैं....
हर रंग समेटे हुये फिर भी रंगहीन...
अमृता प्रीतम को पढ़ते हुए उनके के जीवन के सूफियाना अनुभवों को महसूस करना कुछ अंशों में अमृता बन कर जीना ही है।
अमृता के आकाश जैसे विस्तृत कविमन का सुंदर विश्लेषण किया है आपने।
बेहतरीन....आभार आपका..
अमृता जी की पुस्तक से परिचय बहुत अच्छा लगा ... सुंदर विवेचना
bahut hee sundar vivran!
बेहतरीन समीक्षात्मक प्रस्तुति ,आभार .
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