कभी कभी लगता है
तुम भी एक छलावा हो -कान्हा
नहीं है तुम्हारा कोई अस्तित्व
ये सिर्फ हमने ही तुम्हें
एक रूप दिया है
तुम्हारा एक वर्चस्व कायम किया है
वरना तो सभी प्रकृतिजन्य है
न तुम हो न तुम्हारा अस्तित्व
गर होता कोई अस्तित्व
तो ऐसा न करते
कम से कम उनके साथ
तो बिलकुल नहीं
जिन्होंने अपना सर्वस्व
तुम्हें ही माना
अपना सर्वस्व
तुम्हें ही अर्पण किया
सिर्फ एक प्रीत जिन्होंने
तुम संग जोड़ी
उन्ही से तुमने
क्यों निगाह मोड़ी
शायद नहीं पक्का
तुम कहीं नहीं हो
ये तो सिर्फ आस्था
और डर न ही हमें
पंगु बना दिया
वरना क्या कहीं
देखा है ऐसा
वैद्य जो स्वयं
रोगी को मौत का सामान
मुहैया करा दे
या नाविक स्वयं
अपनी नाव डूबा दे
नहीं श्याम, तुम नहीं हो
ये तो सिर्फ हमारे बनाये
उपालंभ हैं
जिसमे हम तुम्हें देखते हैं
तुम कहीं नहीं हो
नहीं हो .....नहीं हो
तुम सिर्फ दृष्टिभ्रम हो
सब कुछ करके देख लिया
पर तुम्हें नहीं पाया
न अपना बना सके
न तुम्हें ही पाया
अगर कोई अस्तित्व होता
तो बना पाते न अक्स
मिल पाते तुमसे कहीं
किसी पते पर
किसी ठिकाने पर
और अगर तुम होते
और तुमने हमें
अपना माना होता
क्या भुला पाते तुम?
क्या रह सकते थे
तुम भी हमारे बिन?
क्या तुम्हें मिलने की
चाह न होती?
क्या तुम्हारी प्रीत न भटकती?
कुछ तो असर हुआ होता न
कुछ तो आहें तुम तक भी पहुँचती न
मगर नहीं हुआ ऐसा
क्योंकि
निश्चिन्त थी सर्वस्व समर्पण कर
सब कुछ तुमको अर्पण कर
क्या ऐसे ही
योगक्षेम वहाम्यहम का
नारा बुलंद किया
नहीं ये तो तुम्हारा
ढोंग प्रपंच हुआ
छलने की आदत रही
न सदा तुम्हारी
ओ छलिया ........
लो आज तुमने फिर से छल लिया
दुनिया के छल से घबराये
तेरी शरण हम आये
तूने भी छल लिया गिरधर
बता अब हम किधर जाएँ ?
आज तुम्हारा अस्तित्व प्रश्नचिन्ह बन गया है ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें