मैं आग पहन कर निकली हूँ
मगर ना झुलसी हूँ ना जली हूँ
जो सीने में था बारूद भरा
चिंगारी से भी ना विस्फोट हुआ
जब आग को मैंने लिबास बनाया
तब बारूद भी मुझसे था शरमाया
ये कैसी आग की आँख मिचौली है
जो जलाती है ना रुलाती है
ना भड़कती है ना सिसकती है
पर मुझमे ऐसे बसती है
गोया सांसों की माला पर
कोई सुमरता हो पी का नाम
उफ़ ..........................
देखा है कभी सिसकती रूहों पर आग का मरहम
22 टिप्पणियां:
सिसकती रूहें आग का मरहम और सिसकता सन्नाटा - देखा है , जिया है ....
कभी कभी आग ही मरहम का काम करती है ॥बहुत खूब
वाह बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
(अरुन शर्मा = arunsblog.in)
वाह: क्या बात है भड़कती अभिव्यक्ति..
बहुत गहरी बात कही है आपने..
गहन भाव लिए ... ये शब्द ... आभार
बाप रे बाप!
पढकर सोच रहा हूँ,कैसी दिखतीं
होंगीं आप आग पहिनकर.
उफ......... जलन हो रही है.
कमाल है आपका,वन्दना जी
वंदना जी हैट्स ऑफ ।
हमसे दूर ही रहना।
हमारे पास आग बुढाने के उपकरण नहीं हैं।
वैसे रचना बहुत बढ़िया है।
गंभीर कविता... आग पहन के निकलना एक नया विम्ब है...
बहुत ही बेहतरीन रचना....
मेरे ब्लॉग
विचार बोध पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत ही सुंदर भावाव्यक्ति बधाई
बधाई , प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए !
बहुत ही आक्रोश भरी रचना...पर कभी कभी ये जरूरी भी होता है
यह आग भी कितनी अच्छी होती है
आज पता चला :-)
भावनाओं की सुंदर प्रस्तुति ...
गहरे भाव!
बहुत ही गहरे भावो की अभिवयक्ति......
पता नहीं चल रहा कि वह कौन सी आग है जो आप पहन कर निकली हैं...और क्यों ...
-- इस प्रकार अस्पष्ट और गहरी कविता का क्या लाभ जिसमें स्पष्ट भाव-सम्प्रेषण न हो ....बात निकले ही नहीं दूर तलक की बात तो दूर रही...
संगीता आंटी की बात से सहमत हूँ।
wah! garma garam rachna! ummid hai rooh ko kuch araam aaya hoga...
सुन्दर कविता...
सुन्दर रचना ....
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