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गुरुवार, 15 नवंबर 2012

भावों का रेला

 1)

शब्दों की बयार पर दौडी चली आती थी 
घन घन मेघ सी छा जाती थी 
ये सोच पर कैसा पडा पाला है 
उमंगो पर भी लगा भावों का ताला है 
वक्त की जो ना बन पायी थाती है 
ये कैसी ज़िन्दगी की परिपाटी है 
चिकनी सपाट सडकों पर भी 
ज़िन्दगी क्यों उलझ उलझ जाती है

यूँ ही नही हर मोड पर अंधी ,खामोश और गहरी खाई है



2)
शब्दों की बारात कहाँ से लाऊँ 
वो सुनहरा साथ कहाँ से लाऊँ 
जो उमड पडता था भीतर से 
वो जज़्बात कहाँ से लाऊँ 

शायद तभी उजडे दयारों मे महफ़िलें नही जमा करतीं………
 

3)

मै इक पहर सी गुजर जाती 
जो तेरी चाहत मे बंध जाती
यूँ तो मोहब्बत का कोई पहर नही होता 
फिर भी हर पहर के लम्हों मे याद बन सिमट जाती


भूले से भी ना छूना उन तहरीरों को 
जिन पर अक्स चस्पाँ होते हैं
बेशक नज़र नही आते मगर
हर हर्फ़ मे आईने गुमाँ होते हैं


4)

कभी कभी खामोशियाँ भी दस्तक नही देतीं 
लम्हों की इससे बडी सज़ा क्या होगी


5)
काश! ज़िन्दगी जवाब दे पाती 
जीने का कोई तरीका बतला पाती 
शायद उसकी भी कोई हसरत निकल आती 

बेजुबान ज़िन्दगी का खामोश सच्……है ना



6)

प्रीत जब कस्तूरी हुई मेरी 
दीवानगी की ना कोई हद रही 
सांवरिया……
अब बिगडी बनाओ या संवारो तुम्हारी मर्ज़ी 
मैने तो जीवन नौका तेरे हवाले कर दी


7)

भावशून्यता शब्दहीनता इकट्ठे हो जायें 
वो पल कहो फिर कैसे कट पायें..........

जैसे रसहीन गंधहीन रंगहीन गुलाब कोई अपने वजूद पर हँस रहा हो……
 

8)

दिल की कडियों के बीच खालीपन यूँ ही नही पसरा होगा 
कोई लम्हा जरूर सुलगती हवा- सा बीच से गुजरा होगा


9)
दर्द यूँ ही नही उतरता लफ़्ज़ों मे
दर्द भी कसक जाता है तब शब्द बन कर ढलता है 
मगर दर्द कभी भी ना पूरा बयान होता है 
इक अधूरा अबूझा आख्यान होता है

10)

दिल की तपिश पर इक अंगार रख चला गया कोई
ये उजडे दयार मे फिर सुलगती चिता छोड गया कोई
अब और क्या बचा जुनून मरने का ओ मेरे मौला
मेरी कब्र पर मुझसे ही गुलाब चढवा गया कोई


11)

फिर कोई नाखुदा मुझे खुदा से मिला दे
रात और दिन का हर फ़र्क मिटा दे
सिलवटों की सिहरनों से आज़ाद करा दे
ओ मौला मेरे, जिस्म को जाँ से मिला दे



12)

कोई एक आह होती तो
सिसकती भी .......निकलती भी
यहाँ तो आहों का बाज़ार लगा है
किस किस का हिसाब रखे कोई
सुकून मिलता है साए में इनके ही
अब किसी ख़ुशी की कोई चाह नहीं
दर्द का कोई नक्शा नहीं होता ना
शायद इसीलिए बिन नक़्शे वाली
दर्द की इबारतों पर मकान नहीं बनते ......



13)
अफ़साने अफ़साने रहे
जिसमे ना "मै" "तुम" रहे

आक के पत्तों का अर्क भी कभी पिया जाता है





19 टिप्‍पणियां:

सदा ने कहा…

आक के पत्तों का अर्क भी ..
वाह बहुत ही गहन भाव .... उत्‍कृष्‍ट लेखन

Unknown ने कहा…

भावों की बयार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

क्षणिकाओं के रूप में सभी शब्दचित्र बहुत बढ़िया लिखे हैं आपने!
--
भइयादूज की हार्दिक शुभकामनाएँ!

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

वाह ये एक नया रंग है

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गहरे बहती बातें..

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

भावों के अलग अलग रंग ...बहुत खूब

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

अच्छी रचना
सुंदर भाव

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत सुन्दर वन्दना....

सभी एक से बढ़ कर एक...
सस्नेह
अनु

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ज़बरदस्त भावों का रेला जिसमें बहा लिया हमारा भी मन .... सुंदर प्रस्तुति

रश्मि प्रभा... ने कहा…


कभी कभी खामोशियाँ भी दस्तक नही देतीं
लम्हों की इससे बडी सज़ा क्या होगी .... जब सारी लहरें बेबस हो जाएँ

Rashmi Swaroop ने कहा…

Awesome...! Aur kuch shabd hi nahi hain... saare to aapne use kar liye.. wo bhi aise dil chhu lene wale tareeke se.. :)

virendra sharma ने कहा…

वाह ! सुन्दर !सुन्दर!

Rohitas Ghorela ने कहा…

ये भावों का रेला बहुत गजब का लगा ....... मुझे तो 4 और 8 नम्बर का बहुत प्रभावित किया

Rohitas Ghorela ने कहा…

ये भावों का रेला बहुत गजब का लगा ....... मुझे तो 4 और 8 नम्बर का बहुत प्रभावित किया

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रविष्टि वाह!

इसे भी अवश्य देखें!

चर्चामंच पर एक पोस्ट का लिंक देने से कुछ फ़िरकापरस्तों नें समस्त चर्चाकारों के ऊपर मूढमति और न जाने क्या क्या होने का आरोप लगाकर वह लिंक हटवा दिया तथा अतिनिम्न कोटि की टिप्पणियों से नवाज़ा आदरणीय ग़ाफ़िल जी को हम उस आलेख का लिंक तथा उन तथाकथित हिन्दूवादियों की टिप्पणयों यहां पोस्ट कर रहे हैं आप सभी से अपेक्षा है कि उस लिंक को भी पढ़ें जिस पर इन्होंने विवाद पैदा किया और इनकी प्रतिक्रियायें भी पढ़ें फिर अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया दें कि कौन क्या है? सादर -रविकर

राणा तू इसकी रक्षा कर // यह सिंहासन अभिमानी है

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

बहुत ही सुंदर क्षणिकाएं |

ASHOK BIRLA ने कहा…

behatrin...!

ओंकारनाथ मिश्र ने कहा…

सब एक पर एक. पढ़ कर मज़ा आया.
शुक्रिया.

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

चित्र एक, रंग अनेक !
भावों का सान्निध्य पाकर शब्द कितने शक्तिशाली हो जाते हैं, यह इस कविता में स्पष्ट परिलक्षित है।