इतनी लाठियाँ एक साथ ……नृशंसता की पराकाष्ठा………दोष सिर्फ़ इतना न्याय के लिये क्यों गुहार लगायी ?
बहुत हो चुका अत्याचार
बहुत हो चुका व्यभिचार
अब बन दुर्गा कर संहार
क्योंकि
बन चुकी बहुत तू सीता
कर चुकी धर्म के नाम पर खुद को होम
सहनशीला के तमगे से
अब खुद को मुक्त कर चल उस ओर
जहाँ ये नपुंसक समाज ना हो
जहाँ तू सिर्फ़ देवी ना हो
जहाँ अबला की परिभाषा ना हो
तेरी कुछ कर गुजरने की
एक अटल अभिलाषा हो
जहाँ तू सिर्फ़ नारी ना हो
समाज का सशक्त हिस्सा हो
जहाँ तू सिर्फ़ भोग्या ना हो
बराबरी का हक रखती हो
खुद को ना कठपुतली बनने देती हो
अब कर ऐसा नव निर्माण
बना एक ऐसा जनाधार
जो तेरी लहुलुहान आत्मा पर
फ़हराये अस्तित्व बोध का परचम
तू भी इंसान है ………स्वीकारा जाये
तेरा अस्तित्व ना नकारा जाये
तेरी रजामंदी शामिल हो
हर फ़ैसले पर तेरी मोहर लगी हो
कर खुद को इस काबिल
फिर देख कैसे ना रुत बदलेगी
खिज़ाँ की हर बदली तब हटेगी
और हर दिल से यही आवाज़ निकलेगी
बहुत हो चुका अत्याचार
अब तो ये पहचान मिलनी चाहिये
जिसमें हौसलों भरी उडान हो
तेरे कुछ कर गुजरने के संस्कार ही तेरी पहचान हों
तेरी योग्यता ही उस संस्कृति की जान हो
तेरी कर्मठता ही उस सभ्यता का मान हो
ऐसी फिर एक नयी लहर मिलनी चाहिये
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये …………
16 टिप्पणियां:
इसी परिवर्तन की जरूरत है. काली को मूर्त रूप में आने की और इन असुरसम लोगों से मुंडमाल बनाने की. सुन्दर अभिव्यक्ति.
कुछ तो बदलेगा ....उम्मीद है हम को भी
जोश जारी रहेगा तो तस्वीर जरूर बदलेगी ... लाठियां मारने वालों को जागना ही होगा ... सलाम करना ही होगा इस जज्बे को ...
अब तो ये पहचान मिलनी चाहिये
जिसमें हौसलों भरी उडान हो
तेरे कुछ कर गुजरने के संस्कार ही तेरी पहचान हों
तेरी योग्यता ही उस संस्कृति की जान हो
तेरी कर्मठता ही उस सभ्यता का मान हो
ऐसी फिर एक नयी लहर मिलनी चाहिये
बहुत सुंदर प्रेरणादायक शब्द ! आभार! आज ऐसे ही जोश की जरूरत है.
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |
बेहतर लेखन,
जारी रहिये,
बधाई !!
बढ़िया सटीक ,सार्थक रचना ,नारी को जागना ही पढ़ेगा : इसी से मिलती
नई पोस्ट : "जागो कुम्भ कर्णों" , "गांधारी के राज में नारी "
'"सास भी कभी बहू थी ' ''http://kpk-vichar.blogspot.in, http://vicharanubhuti.blogspot.in
बेह्तरीन अभिव्यक्ति
फ्रेम बदलते रहते हैं...तस्वीर वही रहती है....
काश बदले कभी तस्वीर भी....
सशक्त अभिव्यक्ति वंदना...
सस्नेह
अनु
यही समय की माँग है!
--
सुन्दर समसामयिक रचना!
हर दिशा बस यही पुकारती है कि समाज सुधरे।
आपने ठीक कहा,’अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये’
परंतु,विडंबना यही है—जो अस्मिता का हनन करते हैं
उन्हीं से न्याय की गुहार करते हैं.
निस्संदेह बदलनी चाहिए....
इसी उम्मीद को रेखांकित करती रचना
ओज से भरपूर अत्यंत सशक्त रचना ! आज ऐसे ही आह्वान की ज़रुरत है ! आगे का मार्ग प्रशस्त करती एक बहुत ही सुन्दर रचना !
अब तो तस्वीर बदलनी चाहिये …………
सही कहा आपने
आदरणीया वंदना गुप्ता जी
न केवल तस्वीर बदलनी चाहिए
बल्कि
खोखली मानसिकता बदलनी चाहिए
नपुंसक व्यवस्था बदलनी चाहिए
सड़ी-गली नीति बदलनी चाहिए
यह सरकार बदलनी चाहिए
हर नागरिक को सजगता से अपना दायित्व निभाने का समय आ गया है...
अब भी गफ़लत में रहे तो हम ही हमारी भावी पीढ़ियों के अपराधी होंगे ...
उत्कृष्ट सामयिक रचना के लिए पुनः साधुवाद !
नव वर्ष के लिए
अग्रिम शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
हर शब्द आगाज़ है,यलगार है ...
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