आओ खेलो मेरी भावनाओं से
ठगो मेरे विश्वास को
करो मेरी आस्था का क़त्ल
खूं करना कितना आसाँ जो है
क्या हुआ जो मेरा भरोसा टूटा
क्या हुआ जो मेरी संवेदनायें सूखीं
क्या हुआ जो मेरा मन अब बंजर हुआ
तुम तो कुकुरमुत्तों से उगते रहोगे
तुम तो मेरी भावनाओं का बलात्कार करते रहोगे
क्योंकि
नपुंसक हो गया है समाज
नपुंसक हो गयी है मानवीयता की जमीन
तभी तो
नहीं दिखती तुम्हें आज
हर स्त्री में माँ , बहन और बेटी
तभी तो
करते हो तुम बलात्कार
कभी बाबा बनकर
कभी नेता बनकर
कभी कलम का सिपाही बनकर
तो कभी गली चौराहे पर घूमता
हवस का पुजारी बनकर
कैसे और कहाँ और कब तक मैं सुरक्षित हूँ
कानून की धज्जियाँ तुम उड़ाते हो
मुझे किसी ना किसी तरह
अपने चंगुल में फंसाते हो
कभी हमदर्द बनकर
कभी मसीहा बनकर
तो कभी शिकारी बनकर
आह ! मेरे विश्वास की नींव को
दीमक बन खोखला कर दिया तुमने
अब सोचती हूँ तो पाती हूँ
स्त्री विमर्श के नारों में भी मेरा
महज उपयोग भर किया तुमने
मानो बच्चे को मन बहलाने को
बस झुनझुना दिया तुमने
जबकि पाशविक मानसिकता पर अपनी
नकेल ना कसा तुमने
फिर कैसे सुरक्षित रह सकती हूँ
ये ना सोचा मैंने
इसलिए
जब तक मैं खुद के लिए खुद ही
कोई पुख्ता ज़मीन नहीं बनाती
जब तक मैं खुद अपने लिए खुद ही
अपनी आवाज़ नहीं उठाती
तब तक
मेरी भावनाओं से खेलना तुम्हारा अपराध नहीं
सिद्ध कर दिया तुमने ………………
इंसानियत की तहजीबों के नकाब उघाड़ना कोई तुमसे सीखे ……… क्या कहूँ तुम्हें
इंसान कह नहीं सकती
तो कह दूं तुम्हें क्या हैवान …………ओ पुरुष रूप में छुपे आदम के छद्म रूप !!!
6 टिप्पणियां:
Listen this:
http://www.youtube.com/watch?v=_rV9Z1rNHo8
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (23-11-2013) "क्या लिखते रहते हो यूँ ही" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1438” पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
http://www.youtube.com/watch?v=_rV9Z1rNHo8
सही ही कह रहे ........
बहुत ही सुन्दर और गंभीर भावनाओं का प्रवाह ,सादर
आक्रोश लिए ... बहुत ही संवेदनशील रचना ...
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