मैं रोज लगाती हूँ
एक साँकल अपने
ख्वाबों की दुनिया पर
फिर भी जाने कैसे
किवाड़ खुले मिलते हैं
बेशक चरमराने की आवाज़ से
रोज होती हूँ वाकिफ
और कर देती हूँ बंद
हर दरवाज़े को
आखिर दर्द की तहरीरें
कब तक बदलेंगी करवटें
बार बार की मौत से
एक बार की मौत भली
मगर जाने कौन सी पुरवाई
किस झिर्री से अंदर दस्तक देती है
और खुल जाती है सांकल ख्वाबों की दुनिया की धीमे से
और शुरू हो जाता है एक बार फिर
आवागमन हवाओं का
अगले ज़ख्म के लगने तक
दर्द के अहसासों के बढ़ने तक
मानव मन जाने किस मिटटी का बना है
मिटटी में मिलने पर भी ख्वाब बुनना नहीं छोड़ता
कितने जतन कर लो
कितनी सांकलें चढ़ा लो
ख़्वाबों की बया घोंसला बुनना जारी रखती है …… निरंतर कर्मरत रहना कोई इससे सीखे
8 टिप्पणियां:
ख़्वाबों की महक सारे व्यक्तित्व को घेरे रहती है।
मित्रवर!गणतन्त्र-दिवस की ह्रदय से लाखों वधाइयां !
रचना अच्छी है !
मित्रवर!गणतन्त्र-दिवस की ह्रदय से लाखों वधाइयां !
रचना अच्छी है !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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गणतन्त्रदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
जय भारत।
भारत माता की जय हो।
sundar
कितनी सांकलें चढ़ा लो
ख़्वाबों की बया घोंसला बुनना जारी रखती है …… निरंतर कर्मरत रहना कोई इससे सीखे
सही कहा, इस सुंदर प्रस्तुति में।
कर्म किये बिना तो एक पल भी नहीं रह सकता मानव...कृष्ण ने गीता में यही तो कहा है
ati sundar ..
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