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शनिवार, 25 जनवरी 2014

साँकल

मैं रोज लगाती हूँ 
एक साँकल अपने 
ख्वाबों की दुनिया पर 
फिर भी जाने कैसे 
किवाड़ खुले मिलते हैं 
बेशक चरमराने की आवाज़ से 
रोज होती हूँ वाकिफ 
और कर देती हूँ बंद 
हर दरवाज़े को 
आखिर दर्द की तहरीरें 
कब तक बदलेंगी करवटें 
बार बार की मौत से 
एक बार की मौत भली 
मगर जाने कौन सी पुरवाई 
किस झिर्री से अंदर दस्तक देती है 
और खुल जाती है सांकल ख्वाबों की दुनिया की धीमे से 
और शुरू हो जाता है एक बार फिर 
आवागमन हवाओं का 
अगले ज़ख्म के लगने तक 
दर्द के अहसासों के बढ़ने तक 

मानव मन जाने किस मिटटी का बना है 
मिटटी में मिलने पर भी ख्वाब बुनना नहीं छोड़ता 
कितने जतन कर लो 
कितनी सांकलें चढ़ा लो 
ख़्वाबों की बया घोंसला बुनना जारी रखती है …… निरंतर कर्मरत रहना कोई इससे सीखे 

8 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

ख़्वाबों की महक सारे व्यक्तित्व को घेरे रहती है।

देवदत्त प्रसून ने कहा…

मित्रवर!गणतन्त्र-दिवस की ह्रदय से लाखों वधाइयां !
रचना अच्छी है !

देवदत्त प्रसून ने कहा…

मित्रवर!गणतन्त्र-दिवस की ह्रदय से लाखों वधाइयां !
रचना अच्छी है !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
गणतन्त्रदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
जय भारत।
भारत माता की जय हो।

vijay dixit ने कहा…

sundar

Asha Joglekar ने कहा…

कितनी सांकलें चढ़ा लो
ख़्वाबों की बया घोंसला बुनना जारी रखती है …… निरंतर कर्मरत रहना कोई इससे सीखे

सही कहा, इस सुंदर प्रस्तुति में।

Anita ने कहा…

कर्म किये बिना तो एक पल भी नहीं रह सकता मानव...कृष्ण ने गीता में यही तो कहा है

सुनीता अग्रवाल "नेह" ने कहा…

ati sundar ..