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बुधवार, 30 अप्रैल 2014

स्याह रुख




जीवन जीने की जिजीविषा 
व्यक्त हैं तुम्हारे चेहरे की लकीरों में 
हाथों पर पढ़ी झुर्रियाँ , झुलसी त्वचा 
स्वयं एक दस्तावेज़ है 
तुम्हारी ज़िन्दगी की जद्दोजहद की 

आशा निराशा और हताशा के झुरमुटों में भी 
सहेजी हैं तुमने उम्मीद की किरणें 
यूं ही नहीं त्वचा सँवलाई है 
आँखें प्रतीक हैं तुम्हारे पौरुष की 
जहाँ ठहरी चिंता की लकीरें 
दे देती हैं पता तुम्हारे मन की तहरीरों का 


दया करुणा की मोहताज नहीं तुम 
तुम तो हो वो स्वयंसिद्धा 
जिसके आगे नतमस्तक है 
सृष्टि का हर बंदा 
ऐसा कह उपहास नहीं कर सकती 
क्योंकि 
जानती हूँ न 
रोज कितनी आँखों में सिर्फ अपना बदन देखती हो 
तो कितने ही चेहरों में अपने लिए वितृष्णा
फिर कैसे हो सकता है हर बंदा नतमस्तक 
किन हालात से गुजरती हो 
किस नारकीय यातना को झेलती हो 
तब जाकर एक वक्त की रोटी का जुगाड़ करती हो 
सब जानती हूँ .......... क्योंकि 
आखिर हूँ तो एक औरत ही न 
और सुनो 
तुम्हारे रहन सहन के स्तर को जानने को 
नहीं है जरूरत मुझे तुम तक पहुँचने की 
तुम्हारी जीवन शैली का दर्शन करने की 
क्योंकि 
तुम अव्यक्त में भी व्यक्त हो 
यदि हो किसी के पास वो नज़र 
जो तुम्हें देह से परे  देख सके 
जो तुम्हारी उघड़ी देह का सही आकलन कर सके 
तो स्वयं जान जाएगा 
कैसे एक कपडे मे समेटा है तुमने पूरा ब्रह्माण्ड 

6 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

सब जानती हूँ .......... क्योंकि
आखिर हूँ तो एक औरत ही न
..एक औरत के छुपे दर्द को एक औरत ही बखूबी समझ सकती है
... मर्मस्पर्शी रचना

Shalini kaushik ने कहा…

तुम अव्यक्त में भी व्यक्त हो
यदि हो किसी के पास वो नज़र
जो तुम्हें देह से परे देख सके
very nice vandana ji .

prritiy----sneh ने कहा…

bahut hi marmik chitran kiya hai --- majdur aurat ya yun kahe kisi bhi aurat par ye gujarti hai kabhi n kabhi.

shubhkamnayen

Asha Joglekar ने कहा…

सब जानती हूँ .......... क्योंकि
आखिर हूँ तो एक औरत ही न

बहुत सही।

Neeraj Neer ने कहा…

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... दर्द को सुन्दर अभिव्यक्ति दी है ..

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

औरत ही औरत का दर्द समझ सकती है पर वो समझ कर भी अंजान बनी रहती है