मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ किसके चरणों की धूल बन जाऊँ जो माथे पर तिलक सा सज जाऊँ या कहूँ मैं देखूँ जिस ओर सखि री सामने मेरे सांवरिया कुछ ऐसा ही तो हाल हो रहा है अब मेरा । एक तरफ़ कुंआ एक तरफ़ खाई और बीच में पुल भी डांवाडोल अब गिरा कि तब गिरा बताओ तो भला अब जायें तो जायें कहाँ समझेगा कौन यहाँ दर्द भरे दिल की दास्ताँ । सोच रहे होंगे पगला गया है तो भाई पगलाने का मौसम आ गया आखिर जब वो हमें पागल समझते हैं तो हम पागल ही अच्छे हैं कहलवा क्यों ने उन्हें खुश होने दें । वैसे ये पगलाने के भी मौसम अजीब हुआ करते हैं तुम आगे आगे वो तुम्हारे पीछे पीछे , तुम्हारी खुशामद करते , तुम्हारे आगे झुकते , तुम्हारी सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण करने को आतुर तो कैसे न पगलाया जाये आखिर कभी कभी तो मौका मिलता है और फिर जब कोई आपको आपकी कीमत बता दे तो थोडा तो पगलाना जायज है, थोडा तो अपनी अहमियत दिखाना जायज है , थोडा भाव खाना जायज है । जब उन्हें सब जायज होता है तो एक बार हमें भी तो मौका मिलता है तो भइये चूकें कैसे ? चूके तो गये बारह के भाव फिर क्या मोल रहेगा अब धूप का मज़ा या कहो सेंक तो सर्दी में ही सुहाती है न तो कैसे चूक सकते हैं । अब मौसम है कब बदल जाये क्या पता वैसे भी इतनी मुश्किल से तो मौका मिलता है इस मौसम में अपनी वेणियों में फ़ूल गुंथवाने का , अपने आँगन में झाडू लगवाने का , अपनी मिजाजपुर्सी करवाने का तो हम भी चढ ही गए इस बार रामगढ मे बनी पानी की टंकी पर धरमिंदर की तरह अब चढ तो गए मगर इस बार फ़ँस गए क्योंकि सारी जमातें हमारे पीछे और हम आगे आगे थे सो भांप न सके किस किस शहर के कौन से खिलाडी मैदान मे उतरे हैं फिर भी अब जब फ़ँस ही गये तो सोचा जो होगा देखा जायेगा इस बार पागलपना ही काम आयेगा सो सभी की हाँ में इस बार हमने भी हाँ मिलायी और बाजी जीत ली अपने सारे मंसूबे पूरे कर लिये सिर्फ़ एक हाँ के माध्यम से क्योंकि पता है इसके बाद तो कटना सिर्फ़ हमें ही है तो कम से कम एक दिन के बादशाह तो बन कर देख ही लें सो देख लिया , अपनी हर इच्छा अभिलाषा को पूर्ण कर इतराता हूँ बेशक थोडे वक्त के लिये ही सही मैं खुश हो जाता हूँ कि हाँ , इस बार मेरा पागलपन काम आया मगर अब सोचता हूँ किधर जाऊँ इधर या उधर क्योंकि यहाँ तो हमाम में सभी नंगे हैं मैं किसके जिस्म पर टावेल लपेटूँ या किसे अंगवस्त्र दे ढकूँ इसी पशोपेश में फ़ँस गया । जब कुछ न सूझा तो सिक्का उछाला कि हेड आया तो संतरा टेल आया तो नारंगी मगर सिक्के ने भी इस बार रंग दिखा दिया साला खडा ही हो गया तो हम क्या किसी से कम थे समझ गये इस बार बाजी उलटनी ही पडेगी सो चल दिये अपने भाग्य को आजमाने अपने हाथ का दम दिखाने अपनी किस्मत आजमाने और दबा दिया मशीन का वो बटन जिसे न कोई अनुभव था मगर बंदा सिद्धांतवादी , राष्ट्रभक्त था तो बोलो क्या गलत किया आजमाने का दौर है एक बार नए को भी आजमा लिया जाए सोच खुद को ' अब इधर जाऊँ या उधर जाऊँ ' की उहापोह से मुक्त कर लिया ………मिलते हैं अगले पाँंच साल के बाद इस उम्मीद में कि मेरे दबाये बटन की खुदा लाज रखे बिना किसी जोड तोड के नयी सरकार चले वरना यदि बीच में ही लुटिया डूबी तो मैं तो हूँ ना एक बार फिर पगलाने को तैयार ……
6 टिप्पणियां:
सच कहा आपने एक तो बढ़ती गर्मी ऊपर से महाभारत जैसे जीते जागते देखने-सुनने को मिले तो आम आदमी का पगलाना तो तय है ..
रूचिकर पोस्ट। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
रोचक पोस्ट !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (07-03-2014) को "बेफ़िक्र हो, ज़िन्दगी उसके - नाम कर दी" (चर्चा मंच-1575) पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सटीक रचना
असमंजस की स्थिति सबके साथ है...बस ये दुआ कीजिये...कि जो भी हो इस पार हो या उस पार...
एक टिप्पणी भेजें